सुपात्र और कुपात्र दान
अनाकांक्षा भावना से, अप्रतिफल की भावना से अथवा जो हमारा उपकार करनेवाला नहीं है, उस आदमी को दान देना सात्विक दान है. आदमी के पास धन होता है, वस्तुएं होती हैं, फिर भी दान देना सबके लिए संभव नहीं होता. सामान्यतया उस आदमी को दरिद्र माना जाता है, जो गरीब होता है, निर्धन होता है, […]
अनाकांक्षा भावना से, अप्रतिफल की भावना से अथवा जो हमारा उपकार करनेवाला नहीं है, उस आदमी को दान देना सात्विक दान है. आदमी के पास धन होता है, वस्तुएं होती हैं, फिर भी दान देना सबके लिए संभव नहीं होता. सामान्यतया उस आदमी को दरिद्र माना जाता है, जो गरीब होता है, निर्धन होता है, दयनीय होता है, किंतु आचार्य भिक्षु ने कहा है कि दरिद्र वह होता है, जिसके घर में धन है, वस्तुएं हैं, पर वह दान नहीं दे सकता. उसका धन धरती पर भारभूत है और मात्र अहंकार का कारण बनता है.
उसका धन दूसरों के लिए उपयोगी नहीं बनता. गुरुदेव तुलसी ने एक शब्द दिया-विसर्जन. उन्होंने कहा- आसक्ति छोड़ो, स्वामित्व छोड़ो, त्याग करो. जितना त्याग बढ़ेगा, उतनी आसक्ति छूटेगी और आत्मा का कल्याण होगा. जो आदमी कंजूस वृत्तिवाला होता है, उसके लिए हाथ से कुछ देना बड़ा मुश्किल होता है. जो त्यागी संत-महात्मा हैं, जिन्होंने संसार का, धन-वैभव का त्याग कर दिया, महाव्रतों को स्वीकार कर लिया, ऐसे साधुओं को दान देना सुपात्र दान है.
ऐसे दान से धर्म होता है और साथ में पुण्य का बंध भी होता है. यदि व्यक्ति गलत कार्यो के लिए या हिंसाजन्य कार्यो के लिए दान देता है, तो वह कुपात्र को दान देना, अपात्र को दान देना कहा जाता है. दान के साथ त्याग और संयम की भावना होनी चाहिए. यही कारण है कि प्राचीन साहित्य में यह लिखा मिलता है कि ज्यादा संग्रह करना पाप है. जितने से पेट भर जाये, आदमी को उतना ही संग्रह करना चाहिए.
आचार्य महाश्रमण