तटस्थ जगत का नियम
तुम्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने में समय लगेगा, लेकिन तुमने चेष्टा शुरू की और तुम्हारे भीतर बीज आरोपित हो गया कि मैं उठूं और इस कारागृह के बाहर जाऊं. मैं शरीर से मुक्त होऊं और जन्मों की आकांक्षा न करूं. तुम्हारे भीतर जैसे ही यह भाव सघन होना शुरू हुआ कि अब मैं चैतन्य बनूं, […]
तुम्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने में समय लगेगा, लेकिन तुमने चेष्टा शुरू की और तुम्हारे भीतर बीज आरोपित हो गया कि मैं उठूं और इस कारागृह के बाहर जाऊं. मैं शरीर से मुक्त होऊं और जन्मों की आकांक्षा न करूं. तुम्हारे भीतर जैसे ही यह भाव सघन होना शुरू हुआ कि अब मैं चैतन्य बनूं, वैसे ही तुम ब्रह्म के साथ एक होने लगे.
क्योंकि मूलत: तो तुम एक हो ही, सिर्फ तुम्हें स्मरण आ जाये बस. तुम उसी सागर के झरने हो, उसी सूरज की किरण हो, उसी महाआकाश के एक छोटे से खंड हो. तुम्हें स्मरण आना शुरू हो जाये और दीवारें विसर्जित होने लगें, तो तुम उस महाआकाश के साथ एक हो जाओगे. सघन चेष्टा जरूरी है. क्योंकि नींद गहरी है; इसे सतत तोड़ोगे, तो ही यह टूट पायेगी. जगत में जो भी होता है, न्याय है. क्योंकि यहां न्याय-अन्याय करने को कोई नहीं बैठा है.
जगत में तो नियम हैं, उन्हीं का नाम धर्म है. तुम अगर तिरछे चले, गिरोगे, टांग टूट जायेगी; तो तुम जाकर अदालत में यह नहीं कहोगे कि गुरुत्वाकर्षण के कानून पर मुकदमा चलाता हूं. गुरुत्वाकर्षण तुम्हें गिराने-संभालने में उत्सुक नहीं है. तुम जब सीधे-सीधे चलते हो, वही तुम्हें संभालता है. जब तिरछे चलते हो, वही गिराता है. तटस्थ है जगत का नियम, जिसका नाम धर्म है. वह पक्षपात नहीं करता कि किसी को गिरा दे, किसी को उठा दे. इसलिए महान श्रम चाहिए. उद्यम यानी प्रगाढ़ श्रम. तुम्हारी समग्रता लग जाये इस प्रगाढ़ श्रम में, उसका नाम ही उद्यम है. और तब देर न लगेगी तुम्हे ब्रrा हो जाने में.
आचार्य रजनीश ‘ओशो’