परितुष्टि की इच्छा

कलह से मुक्त मन:स्थिति को समझने के लिए, उस सजर्नशील अस्तित्व के यथार्थ को स्पर्श कर पाने के लिए हमें प्रयास की समस्या का पूर्णरूपेण अध्ययन करना होगा. प्रयास से हमारा तात्पर्य है स्वयं को परितुष्ट करने के लिए, कुछ बनने के लिए, संघर्षरत होना. मैं यह हूं और वह हो जाना चाहता हूं. वह […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 31, 2015 1:26 AM

कलह से मुक्त मन:स्थिति को समझने के लिए, उस सजर्नशील अस्तित्व के यथार्थ को स्पर्श कर पाने के लिए हमें प्रयास की समस्या का पूर्णरूपेण अध्ययन करना होगा. प्रयास से हमारा तात्पर्य है स्वयं को परितुष्ट करने के लिए, कुछ बनने के लिए, संघर्षरत होना.

मैं यह हूं और वह हो जाना चाहता हूं. वह बनने में ही संघर्ष है, लड़ाई है, द्वंद्व है. इस संघर्ष में हमारी दिलचस्पी अनिवार्य रूप से किसी लक्ष्य को हासिल कर परितुष्टि पाने में है. हम किसी लक्ष्य में, किसी व्यक्ति में, किसी विचार में आत्मतुष्टि खोजते हैं, और उसके लिए हमें जरूरी लगता है कि हम निरंतर लड़ते रहें, संघर्ष करते रहें.

अत: हमने इस प्रयास को अपरिहार्य मान लिया है और मेरे सामने प्रश्न यही है कि क्या कुछ होने का यह संघर्ष सच में जरूरी है? यह संघर्ष क्यों? परितुष्टि की इच्छा चाहे जिस मात्र में हो और चाहे जिस स्तर पर हो, संघर्ष अवश्य होगा. चाहे कोई बड़ा प्रशासक हो, गृहिणी हो, या कोई निर्धन व्यक्ति, प्रत्येक में कुछ होने-बनने के लिए, किसी न किसी रूप में परितृप्त होने के लिए संघर्ष चलता रहता है.

अपने आप को तुष्ट करने की यह इच्छा क्यों होती है? स्पष्ट है कि कुछ होने की, परितुष्टि की इच्छा तभी पैदा होती है, जब कुछ न होने का एहसास होता है. क्योंकि मैं कुछ भी नहीं हूं, अपूर्ण हूं, खोखला हूं, भीतर से गरीब हूं, इसीलिए मैं कुछ होने के लिए संघर्ष करता हूं. किसी विचार के जरिये खुद को परितुष्ट करने के लिए संघर्ष करता हूं. उस खालीपन को भरना ही हमारे अस्तित्व की समूची प्रक्रिया है.

जे कृष्णमूर्ति

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