स्वतंत्रता की स्वीकृति

मनुष्य को जीने के लिए श्वास की जितनी अपेक्षा है, उससे भी अधिक आवश्यक है एक राष्ट्र की स्वतंत्र चेतना का विकास. परतंत्रता एक प्रकार की विकृति है. विकृत वातावरण में व्यक्ति की सांसें घुटने लगती हैं, उन क्षणों में जनतंत्रीय चेतना के जागरण की घंटी बजती है. अपने असामान्य प्रयत्नों के द्वारा वह परतंत्रता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 2, 2015 12:57 AM
मनुष्य को जीने के लिए श्वास की जितनी अपेक्षा है, उससे भी अधिक आवश्यक है एक राष्ट्र की स्वतंत्र चेतना का विकास. परतंत्रता एक प्रकार की विकृति है. विकृत वातावरण में व्यक्ति की सांसें घुटने लगती हैं, उन क्षणों में जनतंत्रीय चेतना के जागरण की घंटी बजती है. अपने असामान्य प्रयत्नों के द्वारा वह परतंत्रता की श्रृंखला को अस्वीकृत कर देता है.
इससे एक नये युग का प्रारंभ होता है और युगांतर चेतना की जिजीविषा व्यक्ति को अकल्पित आनंद से भर देती है- ऐसा आनंद जो पराधीनता की परिधि में कभी प्रवेश ही नहीं पा सकता. स्वतंत्रता की स्वीकृति का एक स्वतंत्र मूल्य है. इससे अनियामकता नामक तत्व परतंत्र हो जाता है. स्वतंत्रता से प्रत्येक नागरिक को समान अवसर उपलब्ध होते हैं. स्वतंत्रता को उपलब्ध करने का सबसे बड़ा लाभ है अवसर का सदुपयोग करना. व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से पनपनेवाले दोषों का अपहार किये बिना स्वतंत्रता में सुख की अनुभूति नहीं हो सकती. वर्तमान परिस्थितियों के व्यापक संदर्भ कुछ व्यक्तियों को निराशावादी बना रहे हैं.
उनका चिंतन है- इससे तो पहले ही अच्छे थे. स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद महंगाई बढ़ी है, बेरोजगारी बढ़ी है, देश की अर्थव्यवस्था गडमड हो रही है, आदि-आदि. यह चिंतन की संकीर्णता है. भारत ही नहीं, अपितु दुनिया के हर विकासशील देश की स्थिति ऐसी ही है. इन समस्याओं के सामने घुटने टेक कर जनतंत्र को असफल घोषित करना, अपने आपको स्वतंत्र चेतना के लिए अयोग्य घोषित करना है.
आचार्य तुलसी

Next Article

Exit mobile version