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सतुआइन पर हुआ सजल घट का दान, जुड़ शीतल पर्व आज
मिथिला की संस्कृति से जुड़ा है यह त्योहार बेनीपुर : मिथिलांचल के दो दिवसीय लोकपर्व जूड़शीतल के पहले दिन मेष संक्रांति को मिथिलांचल में मनाये जाने वाले सतुआइन पर्व मंगलवार को क्षेत्र में धूमधाम से मनाया गया. वैसे तो ग्रामीण क्षेत्र के लोग इसे आदिकाल से चली आ रही परंपरा मानते हैं पर इस मौके […]
मिथिला की संस्कृति से जुड़ा है यह त्योहार
बेनीपुर : मिथिलांचल के दो दिवसीय लोकपर्व जूड़शीतल के पहले दिन मेष संक्रांति को मिथिलांचल में मनाये जाने वाले सतुआइन पर्व मंगलवार को क्षेत्र में धूमधाम से मनाया गया. वैसे तो ग्रामीण क्षेत्र के लोग इसे आदिकाल से चली आ रही परंपरा मानते हैं पर इस मौके पर आयोजित सभी रिवाजों को अपना-अपना अलग शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक महत्व है.
मुख्य रूप से इस मौके पर ग्रामीण क्षेत्र के बुजुर्ग महिला जल भरा घट(घैला), जौ आदि दान करने और पुरणी पत्ता पर सत्तू खाने की परंपरा है. इस मौके पर दानादि के शास्त्रीय महत्व पर प्रकाश डालते हुए पोहदी निवासी पंडित डॉ परमेंदू पाठक कहते हैं कि मेष संक्रांति में दानादि की परंपरा लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व से चली आ रही है. इस पर्व में खासकर सत्तू एवं जलदान की विशेष महत्ता है.
उन्होंने कहा कि पांच सौ वर्ष पूर्व रचित देवी भागवत में मेष राशिगत सूर्य में दान करने की महिला वर्णन इस प्रकार है ‘बैशाखे सक्तु दानं च य: करोति द्विजातये . सक्तुरेणु प्रभाणद्धि मोदते शिव मंदिरे.’ इसके अलावा ‘तिथि तत्व’ स्मृति में भी मेष राशिगत सूर्य में सत्तू एवं घट सहित जलदान का महत्व दर्शाया गया है.
वहीं उन्होंने यव(जौ)दान के शास्त्रीय महात्म्य के बारे में बताते हैं कि जौ दान से घर में मंगलोता है जो इस प्रकार स्पष्ट होता है-‘ धान्यराजोश्च मांगल्ये द्विज प्रतिकरा यवा:. तस्मादेवां प्रदानेन प्रीयतां में प्रजापति:’ वहीं उन्होंने पुरणी पत्ता पर सतुआ, बड़ी भात खाते ने कोई शास्त्रीय प्रमाण या महत्ता होने से इनकार किया है.
वहीं दूसरी ओर इस सतुआइन पर्व का वैज्ञानिक महता भी है.इस मौके पर परंपरागत रूप से जौ की सत्तू खाने की परंपरा है, क्योंकि यह समय भीषण गरमी का होता है और इस मौसम में लोगों का उदर व्याधि विशेषकर वायु पित्त की अधिकता हो जाती है.
वैज्ञानिक दृष्टि से जौ एवं चना को शीतल एवं वायुरोधक माना गया है. इसलिए बैशाख मास के प्रथम दिन ही इसका सेवन करते हैं.
कमतौल : मिथिला में अलग-अलग रूपों में प्रकृति की पूजा की जाती है़ जुड़-शीतल भी मिथिला की संस्कृति से जुड़ा एक अद्भुत पर्व है़
जो विलुप्त होने के कगार पर है़ गांव-कस्बों में कमोबेश इसकी झलक मिल भी जाती है, परंतु शहरों में जुड़ शीतल का पर्व विलुप्त प्राय हो चुका है़ इक्का-दुक्का घरों में ही इस पर्व को विधिवत मनाया जाता होगा़ डा़ संजय कुमार चौधरी कि मानें तो जुड़ शीतल पर्व मनाने के पीछे इसकी उपयोगिता और सार्थकता है़ दो दिवसीय इस पर्व के पहले दिन सतुआइन और दूसरे दिन धुरखेल होता है़ सतुआइन के दिन सत्तू और बेसन से बने व्यंजनों को खाने कि परंपरा है़ गरमी के मौसम में सत्तू और बेसन से बने व्यंजन के खराब होने की आशंका कम होती है़
इसलिए सतुआइन के दिन बना खाना ही लोग अगले दिन खाते हैं़ इस दिन अहले सुबह घर के बड़े छोटे के सिर पर पानी डालते हैं, माना जाता है कि इससे पूरे गरमी के मौसम में सिर ठंडा रहेगा़ पेड़ – पौधे की जड़ों में भी पानी डालने की परंपरा है. वही धुरखेल के दिन जहां पानी जमा होता है, परंपरानुसार इन स्थानों की सफाई के दौरान विनोदपूर्ण क्रिया की जाती है़
माना जाता है कि जिस प्रकार तालाब, कुआं, गड्ढों में सफाई के बाद नये जल का आगमन होगा, वहीं समाज के सभी वर्गों के शामिल होने से आपस में मेल-मिलाप भी बढ़ेगा़ परंन्तु शहरों में लोग संप, वाटर फिल्टर और कूलर को साफ कर इस पर्व को मनाने की नयी शुरुआत कर चुके हैं इस दिन जहां पहले मिट्टी के चूल्हे की मरम्मत होती थी, वहीं आज लोग गैस चूल्हे की ओवरवायलिंग करवा खानापूर्ति करने लगे हैं
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