गुरु हो तो वल्लभाचार्य जैसा
मध्ययुगीन कृष्णभक्ति संप्रदायों में वल्लभ संप्रदाय का नाम सर्वोपरि माना जाता है. इस संप्रदाय के प्रवर्तक श्रीवल्लभाचार्य का व्यावहारिक जीवन समाज के लिए प्रेरक है.भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्तिशाखा के आधार स्तंभ एव पुष्टिमार्ग के प्रणोता श्रीवल्लभाचार्यजी का जन्म संवत् 1535 वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्म ण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी […]
मध्ययुगीन कृष्णभक्ति संप्रदायों में वल्लभ संप्रदाय का नाम सर्वोपरि माना जाता है. इस संप्रदाय के प्रवर्तक श्रीवल्लभाचार्य का व्यावहारिक जीवन समाज के लिए प्रेरक है.भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्तिशाखा के आधार स्तंभ एव पुष्टिमार्ग के प्रणोता श्रीवल्लभाचार्यजी का जन्म संवत् 1535 वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्म ण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इल्लमागारू के गर्भ से काशी के पास हुआ. उन्हें वैश्वानरावतार (अग्नि का अवतार) कहा गया है. वह वेदशास्र में पारंगत थे.
दीक्षा : श्रीरुद्र संप्रदाय के विल्वमंगलाचार्य द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपालमंत्र की दीक्षा दी गयी. त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणोंद्रतीर्थ से प्राप्त हुई. उनका विवाह पंडित श्रीदेवभट्टजी की कन्या महालक्ष्मी से हुआ और यथासमय दो पुत्र हुए – गोपीनाथ व विट्ठलनाथ.
भगवत्प्रेरणा से वह ब्रज में गोकुल पहुंचे, और तदनंतर ब्रजक्षेत्र स्थित गोवर्धन पर्वत पर अपना आसन लगाकर शिष्य पूरनमल खत्री के सहयोग से संवत् 1576 में श्रीनाथजी का भव्य मंदिर बनवाया. वहां विशिष्ट सेवा-पद्धति के साथ लीला-गान के अंतर्गत श्रीराधाकृष्णकी मधुरातिमधुर लीलाओं से संबद्ध रसमय पदों की स्वर-लहरी का अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते थे.
मत : श्रीवल्लभाचार्य के मतानुसार तीन स्वीकार्य तत्व हैं – ब्रह्म , जगत और जीव. ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित हैं – आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अतर्यामी रूप. अनंत दिव्य गुणों से युक्तलीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म मानते हुए उनके मधुर रूप व लीलाओं को ही जीव में आनंद के आविर्भाव का स्नेत माना गया है. जग ब्रह्म की लीला का विलास है. सपूर्ण सृष्टि लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्मकृति है.
सिद्धांत : जीवों के तीन प्रकार हैं – पहला पुष्टि जीव, जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हुए नित्य लीला में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं. दूसरा मर्यादा जीव, जो वेदोक्तविधियों के अनुसरण से भिन्न-भिन्न लोक पाते हैं और तीसरा प्रवाह जीव, जो जग-प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुख पाने हेतु सतत प्रयासरत रहते हैं.
भगवान श्रीकृष्ण, भक्तों के निमित्त व्यापी बैकुंठ में (जो विष्णु के बैकुंठ से ऊपर है) नित्य क्रीड़ाएं करते हैं. व्यापी बैकुंठ का एक खंड है – गोलोक, जिसमें यमुना, वृंदावन, निकुंज व गोपियां सभी नित्य विद्यमान हैं. भगवद्सेवा के माध्यम से वहां प्रभु की नित्य लीला-सृष्टि में प्रवेश ही जीव की सर्वोत्तम गति है.
प्रेम लक्षणा भक्तिउक्तमनोरथ की पूर्ति का मार्ग है. इस ओर जीव की प्रवृत्ति मात्र भगवतानुग्रह से ही संभव है. श्री मन्महाप्रभुवल्लभाचार्यजी के पुष्टिमार्ग (अनुग्रह मार्ग) का यही आधारभूत सिद्धांत है. पुष्टि-भक्तिकी तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं – प्रेम, आसक्तिव व्यसन.
ब्रह्म के साथ जीव-जगत का संबंध निरूपण करते हुए उनका मत था कि जीव ब्रह्म का सदांश(सद् अंश) है, जगत भी ब्रह्म का सदांश है. अंश व अंशी में भेद ना होने से जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर अभेद है. अंतर मात्र इतना है कि जीव में ब्रह्म का आनंदांश आवृत्त रहता है, जबकि जड़ जगत में इसके आनंदांश व चैतन्यांश दोनों ही आवृत्त रहते हैं.
श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद केवलाद्वैत के विपरीत श्रीवल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकारते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित किये जाने के कारण ही उक्तमत शुद्धाद्वैतवाद कहलाया. इसके मूल प्रवर्तकाचार्य श्री विष्णुस्वामी हैं.
शिष्य परंपरा : वल्लभाचार्यजी के 84 शिष्यों में अष्टछाप कविगण – भक्तसूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास व परमानंद दास प्रमुख थे. श्री अवधूतदास नामक परमहस शिष्य भी थे. सूरदास की सच्ची भक्तिएव पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदास को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन-सेवा सौंपी. तत्व ज्ञान एव लीला भेद भी बतलाया –
श्रीवल्लभ गुरुतत्व सुनायो लीला-भेद बतायो (स्रोत : सूरसारावली)
सूर की गुरुके प्रति निष्ठा की मिसाल है –
भरोसो दृढ इन चरनन केरो श्रीवल्लभ। नख-चंद-छटा बिनुसब जग माझअधेरो।।
श्रीवल्लभ के प्रताप से प्रमत्त कुंभनदासजी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं ङिाझके – परमानंददास के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पड़े रहे. मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों के उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्य को दुर्लभ आत्म-निवेदन मंत्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया.
उनका शुद्धाद्वैत का प्रतिपादक प्रधान दार्शनिक ग्रंथ है – अणुभाष्य (ब्रह्म सूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा). अन्य प्रमुख ग्रंथ हैं – पूर्वमीमांसा भाष्य, भागवत के दशम स्कंध पर सुबोधिनी टीका, तत्वदीप निबंध एव पुष्टि प्रवाह मर्यादा. संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल तृतीया को उन्होंने अलौकिक रीति से इहलीला संवरण कर सदेह प्रयाण किया. वैष्णव समुदाय उनका चिर¬णी है.