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चलें बर्दवान में चामुंडा देवी के मंतेश्वरधाम
भारत में शक्तिपूजा की रीत बड़ी पुरानी है. सन 1922 में सिंधु घाटी की सभ्य्ता की खोज के दौरान की जा रही जमीन की खुदाई में कई ऐसी चीजें मिलीं, जिनसे शक्ति पूजा व इसकी प्रथा की पुष्टि होती है. खुदाई में पांच पशुओं (बाघ, हाथी, गैंडा, भैंस व हिरण) की मूर्ति के साथ सिर […]
भारत में शक्तिपूजा की रीत बड़ी पुरानी है. सन 1922 में सिंधु घाटी की सभ्य्ता की खोज के दौरान की जा रही जमीन की खुदाई में कई ऐसी चीजें मिलीं, जिनसे शक्ति पूजा व इसकी प्रथा की पुष्टि होती है. खुदाई में पांच पशुओं (बाघ, हाथी, गैंडा, भैंस व हिरण) की मूर्ति के साथ सिर पर दो सींग वाले एक विचित्र योगी जैसे पुरुष की प्रतिमा भी मिली.
साथ ही कई अर्धनग्न नारियों की मूर्तियां भी मिलीं. तत्कालीन विद्वानों ने योगी जैसे पुरुष की प्रतिमा को शिवमूर्ति और नारीमूर्ति को मातृमूर्ति या भूमातृका माना. हालांकि इन मूर्तियों की पूजा की जाती थी कि नहीं, इस संबंध में पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलते. मान्यता यहभी है कि शक्ति पूजा सबसे पहले इस देश में प्राचीन आर्यऋषियों ने शुरू की थी. उनकी दृढ आस्था थी कि सृष्टि चलानेवाली अदृश्य सत्ता ब्रह्मा व आदिशक्ति या चित्तशक्ति हैं और दोनों अभेद है. शाक्त मत के अनुसार सृष्टि के सृजन के पीछे आदिशक्ति भगवती ही हैं. प्राचीन ऋषि-मुनि भी आदिशक्ति की सत्ता को स्वीकारते थे.
मध्य काल में देश के कई हिस्सों में विदेशी हमले हो रहे थे. जब मुगल शासकों ने यहां धावा बोला, तो जगह-जगह कमजोर व निम्न जाति की महिलाओं पर इज्जत पर खतरा मंडराने लगा. मुगल शासक व उनके कारिंदे जबरन धर्म-परिवर्तन करा रहे थे. अखंड बंगाल के भी कई हिस्सों में उनका आतंक था. तब स्थानीय बंगाली समुदाय व अन्य प्रवाली लोगों ने आतताइयों से बचने व अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए शक्ति पूजा शुरू की. बताते हैं कि 13वीं शताब्दी के मध्य में अविभाजित बंगाल ने भयंकर बाढ़ की विभीषिका ङोली थी.
बर्दवान जिले के कई गांव भी बाढ़ में डूब गये थे. तब वहां के मंतेश्वर गांव भी पूरी तरह डूब गया था. बर्दवान के पास मेमारी से 25-30 किलोमीटर दूर मंतेश्वर बाजार में चामुंडा देवी का अपेक्षाकृत कम चर्चित मंदिर है. वहां वैसे तो रोज भट्टाचार्य व मुखोपाध्याय परिवार के पुरोहित देवी की पूजा करते हैं, पर बांग्ला कैलेंडर के वैशाख मास की अष्टमी से यहां देवी की महापूजा की जाती है. तीन दिन पूजा चलती है और चौथे दिन धार्मिक मेला लगता है. महापूजा के दौरान देवी को भैंस की बलि दी जाती है. इनका वाहन मयूर है.
महापूजा के पहले देवी की मूर्ति को पास की एक झील में डुबा दिया जाता है. फिर महापूजा से ऐन पहले मांझी जाति के लोग उस मूर्ति को झील से निकालते हैं और महापूजा की जाती है. मोर को सौंदर्य का प्रतीक समझा जाता है. देवी पूजन के वक्त मोर नचाकर इस सौंदर्य प्रतीक को वातावरण में लाया जाता है.
चूंकि देवी की पूजा वैशाख में होती है, जब गरमी तेज होती है. इस गरमी से निजात पाने के लिए भी वर्षा ऋतु के पर्याय के रूप में मोर नचाया जाता है व उसकी पूजा की जाती है. देवी पूजा के लिए सभी लोग अपने घरों को साफ-सुथरा करते हैं. अतिथियों के स्वागत के लिए अलग-अलग प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं.
सप्तमी की संध्या को नित्य पूजा से जुड़े पंडित (जो देवी की महापूजा से विशेष रूप से जुड़े हैं) रायका यात्रा से पहले माला पहनते हैं व चंदन लगाते हैं. इनमें मुख्य रूप से माइचपाड़ा, उत्तरपाड़ा व जोकारीपाड़ा के राय, धायरापाड़ा के मोड़ल, कुंभकार, माइचपाड़ा के कैवर्त व उत्तरपाड़ा के पतिराम सरदार शामिल होते हैं. रायका यात्रा की शुरुआत चामुंडा बाड़ी के उत्तर में मेठापथ के मोड़ से शुरू होती है, जिसमें लोग नाचते व कीर्तन गाते आगे बढ़ते हैं. यह यात्रा गोभागाड़ से होकर गुजरती है. यात्रा उत्तरपाड़ा के रास्ते से होती हुए पुकुरघाट पर आकर समाप्त होती है.
कहते हैं, पुकुरघाट पर एक मल्लाह (मांझी) एक बार जाल फें क कर मछली पकड़ रहा था. देवी मां की कृपा से जाल में मछली के साथ कुछ कंकड़ पत्थर भी बाहर आया. उस मछली को मांझी ने खाया नहीं, बल्कि संभाल कर रखा. रायका यात्रा के बाद उत्तरपाड़ा से होते हुए देवी के बड़े मंदिर की परिक्रमा शुरू होती है. सभी घरों की बहुएं अपने घरों के सामने यात्रा में शामिल हुए लोगों की धूप-धूने से पूजन करती हैं. बाग संप्रदाय की महिलाएं देवी के प्रसाद के लिए पंडितों के हाथ में मांगुर मछली का सिर अर्पित करती हैं.
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