दरगाह अजमेर शरीफ : ख्वाज़ा के दर से खाली हाथ नहीं जाता सवाली
सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती, अजमेर शरीफ के 803वें सालाना उर्स का रस्मी आगाज़ बस होनेवाला है. छह दिवसीय उर्स मुबारक में शरीक होने के वास्ते देश-विदेश से जायरीनों के अजमेर शरीफ पहुंचने का सिलसिला चल पड़ा है. हर वर्ष की तरह इस साल भी बुजुर्ग, जवान व बच्चों का रेला ‘वली के आस्ताने […]
सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती, अजमेर शरीफ के 803वें सालाना उर्स का रस्मी आगाज़ बस होनेवाला है. छह दिवसीय उर्स मुबारक में शरीक होने के वास्ते देश-विदेश से जायरीनों के अजमेर शरीफ पहुंचने का सिलसिला चल पड़ा है. हर वर्ष की तरह इस साल भी बुजुर्ग, जवान व बच्चों का रेला ‘वली के आस्ताने पर नबी की याद आयी है..’ की पंक्तियों के साथ ख्वाजा साहब के दीदार को निकल रहा है.
जायरीनों के दरगाह पहुंचने का यह सिलसिला छह दिन चलेगा. जल्द ही जन्नती दरवाजे के खुल जाने की उम्मीद है. फिर चांद दिखने पर उर्स मुबारक शुरू होगा. ख्वाजा साहब के दीवाने उनकी खिदमत में पवित्र चादर के साथ पेश होंगे. अजमेर की फिज़ां में सूफियाना क़व्वाली गूंज रही है. दरगाह अजमेर शरीफ ऐसा पाक और शफ़्फ़ाफ (निर्मल या स्वच्छ) नाम है, जिसे सुनने भर से रूहानी सुकून मिल जाता है.
रमज़ान के माह-ए-मुबारक में हर एक नेकी पर 70 गुना सवाब (पुण्य) होता है. रमजानुल मुबारक में अजमेर शरीफ में हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह की मज़ार की जियारत कर दरूद-ओ-फातेहा पढ़ने की चाहत हर जायरीन की होती है, लेकिन रमज़ान की मसरूफियत से सभी के लिए इस माह में अजमेर शरीफ का रुख करना मुमकिन नहीं होता.
ख्वाजा की दरगाह भारत ही नहीं पूरे विश्व में हर जाति, धर्म-मजहब, क्षेत्र-सूबे के लोगों को इंसानियत व धार्मिक सदभावना का पैगाम देता है. साथ ही यह सबक देती है कि सिर्फ दुआ ही नहीं, दया व करुणा भी धर्म व मानवता के रक्षक हैं. खास बात यह भी है कि ख्वाजा पर हर धर्म के लोगों का विश्वास है. ख्वाजा के दर पर पहुंचे किसी भी मज़हब के जायरीन के ज़ेहन में सिर्फ अकीदा ही बाकी रह जाता है.
दिल की सदा सुनते हैं गरीब नवाज़ : अजमेर में सूफी संत गरीब नवाज़ ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह हिंदू-मुसलिम भाईचारे की जीवंत मिसाल है. इसके प्रति सभी धर्म के अनुयायियों में आस्था देखी जाती है.
इसलाम धर्मावलंबियों के लिए मक्का के बाद सबसे बड़े तीर्थस्थल के रूप में ख्वाजा साहब या ख्वाजा शरीफ अजमेर का दूसरा स्थान है. लिहाजा यह भारत का मक्का कहलाता है. भारत में दरगाह अजमेर शरीफ ऐसा पाक स्थल है, जिसका नाम सुनते ही जायरीनों को रूहानी सुकून मिल जाता है. ख्वाजा की पूरी जिंदगी इनसानियत, खासकर गरीबों की भलाई को समर्पित रही, गरीबों के प्रति दया, करुणा व समर्पण भाव रखने से वह गरीब नवाज कहलाये. कहते हैं, ख्वाजा हर दुआ कुबूल करते हैं.
जायरीनों को मिले धर्मानुकूल ग्रंथ : सूफी मत की खूबी अवाम में भाईचारे की तालीम देना है. सूफी संतों ने संदेश दिया है – तुम किसी के मज़हब को बुरा मत कहो, हर मज़हब का आदर करो. अगर तुम अपने मज़हब का आदर चाहते हो, तो दूसरे धर्म-ओ-मज़हब का आदर करना भी सीखो. सूफी मत की इसी मूल भावना के मुताबिक अजमेर की दरगाह में जो खास जायरीन पहुंचते हैं, उन्हें उनके धर्मानुकूल ग्रंथ गीता, रामायण, कुरआन शरीफ, बाइबल, गुरुग्रंथ साहिब आदि भेंट किये जाते हैं.
ख्वाजा का जन्म स्थान : ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती मूलत: फारस यानी ईरान के निवासी थे. उनका जन्म 18 अप्रैल 1143 यानी 537 हिजरी में ईरान के सीस्तान कसबे के संजर गांव में माना जाता है. इनके वालिद सय्यद गयासुद्दीन थे और वालिदा का नाम सय्यदा बीबी उमु वरा माहे नूर था. इसके बाद उनके वालिदैन (माता-पिता) इसहाक शामी हेरात के पास चिश्त नामक स्थान पर बस गये. ख्वाजा के नाम में चिश्ती लफ्ज़ जुड़ा. ख्वाजा के उस्ताद (गुरु) उस्माने हारुनी पीर थे.
उस्ताद की खिदमत के दौरान ख्वाजा ने सीखा कि मुफलिसों के लिए मन में प्रेम-स्नेह रखो, बुरे कामों से दूर रहो. बुरे दिनों व गर्दिश में भी इरादे फौलादी रखो. उस्ताद के संदेशों का ख्वाजा ने घूम-घूम कर प्रचार किया. अजमेर में ख्वाजा का आगमन 1195 ईसा बाद माना जाता है. कहते हैं, मुगल बादशाह अकबर ने भी संतान पाने के लिए ख्वाजा की दरगाह पर सजदा किया था.
अजमेर शरीफ में हुआ इंतकाल : चिश्ती के दुनिया से रुखसत का दिन 11 मार्च 1233 रजब 633 हिजरी माना जाता है. कहते हैं कि रोज़ की तरह एक रात गरीब नवाज़ ख्वाजा अल्लाह की इबादत को अपने कमरे में गये और जब वह पांच दिन तक बाहर नहीं निकले, तब उनके अनुयायियों ने अगले दिन कमरा खोला, तो देखा ख्वाजा यह दुनिया छोड़ चुके हैं. उन्हें उसी कमरे में सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया. यह मज़ार वहीं बना है.
अजमेर शरीफ दरगाह पर ख्वाजा के इंतकाल को याद कर हर साल रजब माह के पहले दिन से छठे दिन तक उर्स मनाया जाता है. आज ख्वाजा गरीब नवाज़ का यह स्थान पूरी दुनिया में अकीदत यानी श्रद्धा व आस्था का केंद्र है. सालाना उर्स के दौरान मुसलिमों के साथ हिंदू व अन्य धर्मावलंबी (इसलामेतर) भी दरगाह पर चादरपोशी करते रहे हैं.
सूफी मत के प्रवर्तक : भारत में इसलाम के साथ ही सूफी मत की शुरुआत हुई थी.
सूफी संत एकेश्वरवाद पर विश्वास रखते थे. वे धार्मिक आडंबरों से सहिष्णुता, उदारवाद, प्रेम व भाईचारे पर बल देते थे. उन्हीं में से एक थे हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह. अपनी जिंदगी के कुछ पड़ाव ईरान में बिताने के बाद वह हिंदुस्तान की सरज़मीं पर आ गये थे.
अजमेर की शान में कशीदे : अजमेर नगरी सदियों से अपनी खूबसूरती के लिए जानी जाती रही है. यहां की पहाड़ी पर बने किले के कुओं व तालाबों में भी पर्याप्त जल है. माहिरीन के मुताबिक इस शहर का बढ़ता हुआ वैभव इंद्रपुरी को भी मात देता है. यहां के लोगों को पुष्कर का पवित्र जल उपलब्ध है.
यहां पर संगमरमर के दुग्ध धवल भवन चंद्रमा के कलंकित सौंदर्य को भी पीछे छोड़ देते हैं. शास्त्रों में अजमेर की रौनक के आगे स्वर्णपुरी लंका और द्वारका को भी फीका बताया गया है. उस समय की इस खूबसूरत नगरी को ख्वाजा साहब ने अपना मुकाम बनाया और सूफी मत का प्रचार किया.
देग का इतिहास : दरगाह के बरामदे में दो बड़ी देग रखी है. इनमें एक 2240 किलो तथा दूसरा 4480 किलो वजनी है. इन देगों को मुगल बादशाह अकबर और जहांगीर ने भेंट किया था. तब से लेकर आज तक इन देगों में काजू, बादाम, पिस्ता, इलायची, केसर के साथ चावल, खीर आदि पकाये जाते हैं और तबरुक (प्रसाद) के रूप में गरीबों-जायरीनों में बांटा जाता है.
धार्मिक सदभाव की मिसाल : धर्म व मज़हब के नाम पर नफरत फैलाने वालों को गरीब नवाज़ की दरगाह से सबक लेना चाहिए. ख्वाजा के दर पर हिंदू हों या मुसलिम या किसी अन्य धर्म को मानने वाले, सभी जियारत करने जाते हैं. वहां का मुख्य पर्व उर्स है, जो इसलाम कैलेंडर के रजब माह की पहली से छठी तारीख तक मनाया जाता है.