श्रम के सिद्धांत
समाजवादी अर्थनीति को समझने के लिए कौन सी दृष्टि अपनाएं? एक ही चीज को किस कोण से दखें? जिस दृष्टि से उस प्रश्न को उठाते हो, उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है, नतीजा चाहे हर हाल में एक ही सा निकले. ठोस का और सिद्धांत का जो संबंध होना चाहिए वह हिंदुस्तान की सोच […]
समाजवादी अर्थनीति को समझने के लिए कौन सी दृष्टि अपनाएं? एक ही चीज को किस कोण से दखें? जिस दृष्टि से उस प्रश्न को उठाते हो, उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है, नतीजा चाहे हर हाल में एक ही सा निकले. ठोस का और सिद्धांत का जो संबंध होना चाहिए वह हिंदुस्तान की सोच में नहीं है.
जीवन के दुनियावी मामलों में जब तक यह संबंध नहीं रहता, तब तक ठीक तरह का सोच-विचार नहीं चल सकता. पूंजीवाद, समाजवाद, साम्राज्यवाद, साम्यवाद, ये सभी सिद्धांत एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति से निकले हैं. उन परिस्थितियों पर सोचते-सोचते, जो ठोस था, उसको व्यापक बनाते हुए चिंतकों ने ये सिद्धांत दिये.
उनकी यह इच्छा रही होगी कि अपनी परिस्थिति को दिमाग में इतना व्यापक बनाओ कि वह सारी मानवता के लिए हो जाये. लेकिन, ऐसा होता नहीं. आदमी की जो भी सोच होती है, वह अपनी परिस्थिति से कुछ न कुछ बंधी हुई जरूर रहती है. बीसवीं सदी के आरंभ में अमेरिका जैसे देश ने तो भौगोलिक श्रम-विभाजन को थोड़ा-बहुत अपनाना शुरू किया, लेकिन फिर अंगरेजों ने कहा, नहीं खाली भौगोलिक श्रम-विभाजन से काम नहीं चलेगा.
उसके साथ एक दूसरा विचार लाओ कि हर देश की आबादी को पूरी तरह से काम मिला हो. जब देश की आबादी काम में लगी हो तभी भौगोलिक श्रम-विभाजन से प्रत्येक देश का लाभ होगा. नहीं तो जिस देश की आबादी काम में लगी है, उसको ज्यादा लाभ होगा और जहां बेकारी है, उसको कम लाभ होगा.
डॉ राम मनोहर लोहिया