शहीदों के सरताज सच्चे बादशाह

गुरु अर्जुन देव शांति के पुंज, शहीदों के सरताज गुरु अर्जुन देव की शहादत अतुलनीय है. हर विचारवान व्यक्ति के मन में यह प्रश्र कौंध जाता है कि गुरु देव ने ऐसा कौन-सा ‘अपराध’ किया कि उन्हें इस तरह कैसी सियासत व कानून के अंतर्गत शहीद कर दिया गया. गुरु अर्जुन देव का प्रकाश, गुरु […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 22, 2015 9:04 AM
गुरु अर्जुन देव
शांति के पुंज, शहीदों के सरताज गुरु अर्जुन देव की शहादत अतुलनीय है. हर विचारवान व्यक्ति के मन में यह प्रश्र कौंध जाता है कि गुरु देव ने ऐसा कौन-सा ‘अपराध’ किया कि उन्हें इस तरह कैसी सियासत व कानून के अंतर्गत शहीद कर दिया गया.
गुरु अर्जुन देव का प्रकाश, गुरु रामदास जी तथा माता भानी जी के यहां वैशाख बदी 7 संवत 1620 मुताबिक 15 अप्रैल 1563 ई को गोइंदवाल साहिब में हुआ. आपका पालनपोषण गुरु अमरदास तथा बाबा बुड्ढ़ा की देखरेख में हुआ. आप बचपन से ही बहुत शांत स्वभाव तथा पूजा भक्ति करने वाले थे.
पूर्वी भारत में इस वर्ष भी गरमी का प्रकोप चरम पर है. लोगों ने कई दशकों में ऐसी चिलचिलाती धूप का नहीं ङोली थी. परंतु विज्ञान ने साधन उपलब्ध करवा दिये हैं, जिससे क्षमतावान व साधन-संपन्न लोग इस कहर से स्वयं को बचा सकते हैं. अब कल्पना कीजिए उस मंज़र का जब मुगल बादशाह जहांगीर गर्म था, लाहौर शहर का वज़ीर गर्म था, चंदू व्यवसायी गर्म था, जेठ का महीना गर्म था, लोहे का तवा गर्म था, जल रही चूल्हे की आग गर्म थी, शरीर पर डाली जा रही रेत भी गर्म थी.
केवल गुरु अर्जुन देव, इन सब की परवाह ना करते हुए, बिल्कुल ठंडे थे. तनिक भी विचलित नहीं हुए थे. किंचित मात्र क्रोध नहीं आया था इन जल्लादों पर. ‘वाहेगुरु’ के सिमरन (सुमिरन) में वह पूरी तरह लीन थे. यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गुरुजी सहनशीलता की पराकाष्ठा को पार कर गये थे.
हुआ कुछ यूं कि गुरु अर्जुन देव के काल में अमृतसर शहर सिखों के धार्मिक केंद्रबिंदु के रूप में उभर रहा था. बड़ी संख्या में सिख बैसाखी के पवित्र उत्सव पर वहां उपस्थित होते थे. गुरुजी ने एक और अभिनव परंपरा का सृजन किया था. इसमें प्रत्येक सिख अपनी कमाई का दसवां हिस्सा (जिसे ‘दसबंद’ कहा जाता था) गुरुजी के राजकोष में जमा करवाता था.
इस राशि का उपयोग धर्म एवं समाज के उत्थान के विभिन्न कार्यो में किया जाता था. दूरदराज के इलाकों से इस दसबंद की राशि को एकत्रित कर लाने के लिए गुरुजी ने अपने विश्वस्त अनुयायियों का एक प्रतिनिधि-दल बनाया था, जिसे ‘मसंद’ नाम से भी पुकारा जाता था. यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि सिखों के 10वें एवं अंतिम गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने सन 1698 में विभिन्न कारणों से मसंदों की सेवा को समाप्त कर दिया था. परंतु दसबंद की परंपरा आज भी सिखों में यथावत प्रचलित है.
इस बीच, धीरे-धीरे सिखों ने गुरु अर्जुन देव को ‘सच्च पातशाह (बादशाह)’ कह कर संबोधित करना आरंभ कर दिया था. सिख अनुयायियों की संख्या दिन दूना, रात चौगुनी बढ़ने लगी थी. इसलिए उनसे समाज में रूढ़िवादी व कट्टर मुसलिम समुदाय के लोग ईष्र्या करने लगे थे.
सन् 1605 में सम्राट अकबर की मृत्यु के पश्चात से ही ये लोग अगले मुगल शासक जहांगीर के कान गुरुजी व सिखों के खिलाफ भरने लगे थे. स्वयं बादशाह जहांगीर भी गुरु अर्जुन देव के सिख धर्म के प्रचार-प्रसार से डर गया था. उसने गुरु के विरोधियों की बातों में आकर उनके विरुद्ध सख्त रुख अपनाने का मन बना लिया था. जहांगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन देव को गिरफ्तार कर लाहौर शहर लाया गया तथा वहां के राज्यपाल को गुरु को मृत्युदंड सुनाने का फ़रमान दे दिया गया.
इसके साथ ही अमानवीय यातनाओं का अंतहीन दौर चल पड़ा. लाहौर के वज़ीर ने गुरु अर्जुन देव को एक रूढ़िवादी सोच के व्यवसायी चंदू को सुपुर्द कर दिया.
कहा जाता है कि चंदू ने गुरुजी को तीन दिनों तक ऐसी-ऐसी शारीरिक यातनाएं दीं, जो ना तो शब्दों में बयां की जा सकती हैं, ना ही वैसी कोई मिसाल इतिहास में ढूंढ़े मिलेगी. यातनाओं के दौरान गुरु अर्जुन देव को लोहे के धधकते हुए गर्म तवे पर बैठाया गया. इतने पर भी जब चंदू का मन नहीं भरा, तो उसने गुरुजी के सिर व नग्न शरीर पर गर्म रेत डलवायी. गुरुजी के सारे शरीर पर छाले व फफोले निकल आये. ऐसी दर्दनाक अवस्था में ही गुरुजी को लोहे की ज़ंजीरों में बांध कर 30 मई सन 1606 ईस्वी में रावी नदी में फेंकवा दिया गया.
गुरु अर्जुन देव की शहादत ने उस समय समूचे सिख समुदाय को झकझोर कर रख दिया था. शांतिपूर्वक अपने धर्म के प्रचार -प्रसार के उनके इस प्रयास को आनेवाले समय में बदलने की आवश्यकता का बीजारोपण उसी दिन हो गया. सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ को जन्म दिया, जिसे अत्याचार व जुल्मोसितम से लड़ने के लिए तलवार से लैस किया गया. एक ऐसी क़ौम का सृजन हुआ, जो अत्याचारियों व दुराचारियों के समक्ष लाचार या कमजोर नहीं थी. न्याय व बलिदान का वह ऐसा तूफान था, जिसके सामने अधर्म का टिकना लगभग असंभव था.
बावजूद इसके खालसा पंथ ईश्वर में पूर्ण आस्थावान था तथा दुर्बल व अबलाओं की रक्षा करने को कृत-संकल्प एक ‘संत-सिपाही’ था. गुरु अर्जुन देव ने ‘संतोखसर’ एवं ‘अमृतसर’ में दो महत्वपूर्ण व पवित्र सरोवरों का निर्माण करवाया. धार्मिक सहिष्णुता की एक अभिनव मिसाल दुनिया के सामने रखते हुए उन्होंने अमृतसर में श्रीहरिमंदिर साहिब का शिलान्यास मुसलिम जाति के विख्यात पीर, हज़रत मियां मीर के कर-कमलों से दिसंबर 1588 (प्रथम माघ, विक्रमी संवत् 1644) में करवाया.
गुरु अर्जुन देव ने ‘गोइंदवाल साहिब’ के निकट ‘तरन तारन’ शहर को बसाया. सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने लगभग पांच वर्षो तक समूचे भारत-वर्ष का भ्रमण किया. गुरुजी ने वर्तमान जालंधर के पास दोआबा कस्बे में करतारपुर नामक एक और शहर भी बसाया. इस परंपरा को आगे ले जाते हुए गुरु अर्जुन देव ने व्यास नदी के निकट ‘हरगोविंदपुर’ शहर को भी स्थापित किया.
‘आदिश्री गुरुग्रंथ साहिब’ के रूप में गुरु अर्जुन देव ने सिख समुदाय को एक बहुमूल्य, अभिनव एवं शिक्षा से सराबोर ऐसे ग्रंथ की रचना कर भेंट की, जो आगे चलकर सिखों के ‘गुरु’ के रूप में प्रतिष्ठित हुई और यह आज भी कायम है.
गुरुजी ने अपने से पहले हुए सिख गुरुओं, नौवें गुरु, समकालीन हिंदू तथा मुसलिम संतों, फ़कीरों व सूफ़ियों (जिनकी संख्या 17 है) की वाणियों को इसमें संकलित किया. संपूर्ण गुरु ग्रंथ साहिब 31 पारंपरिक रागों में रचित है तथा मूलत: इसे गायन शैली में पढ़ने के लिए प्रस्तुत किया गया था. गुरु अर्जुन देव का शहीदी दिवस दुनिया भर के सिख बड़ी श्रद्धा व उल्लास के साथ मनाते हैं. इस दिन जगह-जगह ठंडे-मीठे पानी का शरबत जन साधारण को पिलाया जाता है.
यह इस बात का प्रतीक स्वरूप है कि कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को कभी भी प्यासा ना रखे, उसे निर्मम यातनाएं ना दे तथा जिस प्रकार गुरु अर्जुन देव को तकलीफ पहुंचायी गयी, उस प्रकार किसी की आत्मा को कष्ट ना दिया जाये. चूंकि मौसम गरमी का होता है, इसलिए ठंडे-मीठे पानी का लंगर श्रेष्ठ माना जाता है.

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