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– हरिवंश – आज देश-दुनिया में सबसे अधिक मोटिवेशन (प्रेरणा) की बात होती है. पग-पग पर. मशीन या टेक्नालॉजी (तकनीक) की इस आधुनिक दुनिया में अकेलापन नियति है. जीवन का अर्थ ढूंढ़ना भी. जीने या होने (बीइंग) का आशय समझना. जीने का मर्म तलाशना भी. इस नयी दुनिया में पल-पल निराशा, हताशा और डिमोटिवेटिंग फोर्सेस […]

– हरिवंश –

आज देश-दुनिया में सबसे अधिक मोटिवेशन (प्रेरणा) की बात होती है. पग-पग पर. मशीन या टेक्नालॉजी (तकनीक) की इस आधुनिक दुनिया में अकेलापन नियति है. जीवन का अर्थ ढूंढ़ना भी. जीने या होने (बीइंग) का आशय समझना. जीने का मर्म तलाशना भी. इस नयी दुनिया में पल-पल निराशा, हताशा और डिमोटिवेटिंग फोर्सेस (उत्साह सोखनेवाली ताकतें) से लड़ना आसान नहीं.

इस युग का दर्शन है कि या तो धारा के साथ बहें, समय का गणित मानें, पैसे-पावर के खेल में हों या जीवन भोग में डूब कर जीयें या कथित सफलता के लिए आत्मसम्मान गिरवी रखें, चारण बनें. या फिर अपनी अंतरात्मा से जीयें, तो अकेले अपनी राह बनायें. दरअसल, संकट सबसे अधिक अंतरात्मा से जीनेवालों को है.

नयी पीढ़ी के युवकों-विद्यार्थियों में भी बड़ी बेचैनी है. उनकी परेशानियां अलग हैं. तीव्र स्पर्द्धा के बीच जगह बनाना. आइआइटी से लेकर अन्य बड़े संस्थानों के युवा छात्रों के बीच बढ़ती आत्महत्या, भारतीय समाज के लिए बड़ी चुनौती है.

मनुष्य के दुख को भी इस युग ने बाजार बना दिया है. निराशा, हताशा का धंधा. आज हजारों मोटिवेटर (प्रेरित करनेवाले) पैदा हो गये हैं. यह बिलियन (अरबों-खरबों) डॉलर का उद्योग बन गया है. इनके बीच अनेक जाने-माने लोग हैं, जो अच्छा काम कर रहे हैं, पर भारतीय समाज को प्रेरणा पाने के लिए या संकल्प लेने के लिए मोटिवेशन इंडस्ट्री (प्रेरणा बाजार) की जरूरत नहीं है.

विवेकानंद की हम 150वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. वह महज 39 वर्ष जीये. पर कई हजार वर्षों का काम कर गये. इस छोटी आयु में. उनके जीवन को नजदीक से देखने-समझने पर लगता है कि परेशानियों, चुनौतियों, मुसीबतों के पहाड़ के बीच वह पैदा हुए. पल-पल जीये. आजीवन इनसे ही घिरे रहे. फिर भी हैरत में डालनेवाले, स्तब्ध कर देनेवाले काम वह कर गये. यकीन नहीं होता कि भारी मुसीबतों के बीच एक इंसान की इतनी उपलब्धि.

आज लोग अपने जीवन से लेकर सामाजिक जीवन में जो चुनौतियां झेलते हैं, वे विवेकानंद की परेशानियों के मुकाबले एक रत्ती भी नहीं हैं. उनके शरीर को व्याधिमंदिर कहा गया. जब तक वह जीये, बीमारियों से जूझे. उन्हें दो बड़ी बीमारियां तो वंशगत मिलीं. कहें, तो विरासत में. पहला मधुमेह और दूसरा हृदय रोग. अचानक पिता के न रहने के बाद से हमेशा ही उनके सिर में तेज दर्द की समस्या रही.

उस दर्द से राहत पाने के लिए वह कपूर सूंघते थे. कहते हैं कि पूरे जीवन में उन्हें 31 बीमारियां हुईं. इनमें हृदय रोग, मधुमेह, दमा, पथरी, किडनी की समस्या, अनिद्रा, स्नायु रोग या न्यूरोस्थेनिया, लिवर संबंधी बीमारी, डायरिया, टाइफॉयड, टॉनसिल, सिर का तेज दर्द, मलेरिया, सर्दी-खांसी, विभिन्न प्रकार के बुखार, बदहजमी, पेट में पानी जमना, डिस्पेप्सिया, लाम्बेगो या कमर दर्द, गर्दन का दर्द, ब्राइट्स डिजीज, ड्रॉप्सी या पैर का फूलना, एल्बूमिनियूरिया, रक्तिम नेत्र, एक नेत्र की ज्योति का चले जाना, असमय बाल व दाढ़ी का सफेद होना, रात को भोजन के बाद गरमी का तीव्र अनुभव, गरमी सहन न कर पाना, जल्द थकना, सी सिकनेस व सन स्ट्रोक शामिल हैं. समय-समय पर अपने परिचितों-मित्रों को उन्होंने पत्र लिखे. उन पत्रों में इन बीमारियों का उल्लेख है. कल्पना करें, इतनी बीमारियों से घिरे होने के बावजूद उस संन्यासी ने इतने कम समय में कैसे-कैसे काम किये? नितांत अविश्वसनीय. युगों-युगों तक असर डालनेवाले. 1897 में डाक्टर शशि घोष को अल्मोड़ा से उन्होंने पत्र लिखा.

अनिद्रा रोग के संदर्भ में. पत्र में वह कहते हैं, ‘ जीवन में कभी भी मुझे बिस्तर पर जाते ही नींद नहीं आयी. कम से कम दो घंटे तक इधर-उधर करना पड़ता है. केवल मद्रास से दार्जिलिंग की यात्रा और प्रवास के पहले महीने में तकिये पर सिर रखते ही नींद आ जाती थी. वह सुलभ निद्रा पूरी तरह चली गयी है. अब फिर इधर-उधर करने की बीमारी और रात को भोजन के बाद गरमी लगने की समस्या लौट आयी है. बाद में एक संन्यासी शिष्य स्वामी अचलानंद को उन्होंने कहा, होश संभालने के बाद कभी भी मैं चार घंटे से अधिक नहीं सो सका.

इलाज के लिए स्वामी जी, चिकित्सकों के पास गये. उनके जीते जी मेडिकल साइंस का इतना विकास और विस्तार नहीं हुआ था. इलाज के लिए स्वामी जी एलोपैथ, होम्योपैथ, देशज वैद्यों के अलावा देश-विदेश में झोलाछाप डाक्टरों या मामूली डाक्टरों के पास भी गये. वह लगातार आर्थिक तंगी में रहे. डाक्टरों को फीस देने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं होते थे. एक बार सन् 1898 में वह डाक्टर केएल दत्त के पास गये.

दिखाने के बाद डाक्टर ने 40 रुपये फीस की मांग की. साथ में दवा के लिए अतिरिक्त दस रुपये. स्वामी जी को वह देना पड़ा. उन दिनों पचास रुपये की कीमत क्या थी, इसका आकलन संभव है. उनके गुरुभाइयों ने बड़ी कठिनाई से इसका बंदोबस्त किया.

घर की परेशानियों से भी स्वामी जी आजीवन व्यथित-दुखी रहे. अपनी बीमारियों से अधिक वह अपनी मां, भुवनेश्वरी देवी के लिए बेचैन और परेशान रहे. कहते हैं, जब तक पिता विश्वनाथ दत्त जीवित थे, उनके परिवार का मासिक खर्च था, लगभग एक हजार रुपये. वर्ष 1884 में उनकी मौत के बाद स्वामी जी की मां, भुवनेश्वरी देवी ने वह खर्च घटा कर तीस रुपये तक ला दिया. अचानक आयी मुसीबत और दरिद्रता के बीच भी भुवनेश्वरी देवी का असीम धैर्य अपूर्व था. इधर स्वामी जी में आजीवन मां को सुख न दे पाने की पीड़ा रही.

मां, पल-पल गरीबी में समय काटती थी. उनके लिए पैसे का प्रबंध करना, स्वामी जी के लिए सबसे कठिन था. इसका एहसास भी उन्हें आजीवन रहा. एक जगह उन्होंने कहा भी है, जो अपनी मां की सच में पूजा नहीं कर सकता, वह कभी भी बड़ा नहीं हो सकता.

स्वामी जी को परेशानियों की महज कल्पना या झलक सिहरन पैदा करती है, पर इनके बावजूद उन्होंने वे काम किये, जो भारत हजारों-हजार वर्ष तक याद रखेगा. इस इंसान से बढ़ कर दूसरा कौन बड़ा प्रेरक है, मानव समाज के लिए? पारिवारिक जीवन की भारी मुसीबतें, निजी जीवन में रोगों से परेशान फिर भी दूसरों के लिए, समाज के लिए, भारत माता के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देना और जीवन झोंक देना. इससे बड़ा आदर्श चरित्र आज की युवा पीढ़ी के लिए दुनिया में कौन होगा?

अनेक इतिहास नायक हुए हैं, बड़े लोग हुए हैं, जिनकी कुरबानियों और संघर्ष ने संसार को यहां तक पहुंचाया, पर अभावों से इस तरह गुजरते हुए इतना कुछ कर जाने वाले इंसान बहुत कम हुए हैं. अवसर है कि जब देश, स्वामी विवेकानंद की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है, तब घर-घर तक उनके पुरुषार्थ, संकल्प और संघर्ष की बात पहुंचे.

उनके जीवन को लोग जानें, ताकि देश में एक नया मनोबल पैदा हो. खासतौर से युवाओं के बीच स्वामी जी का संदेश पहुंचना जरूरी है. उनके जीवन के ‘ मिशन और विजन’ (ध्येय और दृष्टि) से ही भारत की युवा पीढ़ी जीने का अर्थ तलाश-जान सकती है. वह एक व्यक्ति हैं, जो भारत के सामाजिक -आर्थिक -सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में टर्निंग प्वाइंट (मोड़ देनेवाले) हैं. इतिहास अब तक सेनाएं या सम्राट मोड़ते रहे हैं, एक फकीर-संन्यासी नितांत अभावों मे जीता इंसान, गरीबी से त्रस्त, बीमारियों से घिरा, पर मुल्क का इतिहास मोड़ दिया. रजवाड़ों में बंटे भारत में एक देश होने का भाव भरा.

हजारों वर्ष से चली आ रही भारत की आध्यात्मिक एकता (भौगोलिक नहीं) को एक नयी ऊर्जा दी. वह भारतीय ताना-बाना मजबूत बना. उनके होने और काम के बाद ही भारतीय जीवन के हर क्षेत्र में एक नयी चेतना का विस्तार हुआ. जब देश दास था, तब एक अकेला इंसान, विवेकानंद के रूप में खड़ा हुआ, और भारत के जगद्गुरु होने की भविष्यवाणी की. भारत की पहचान को एक नयी संज्ञा दी. आज विवेकानंद के लिए नहीं, अपने होने का मतलब-मकसद जानने के लिए उनका स्मरण जरूरी है.

आज भारत को सबसे अधिक किस चीज की जरूरत है? विवेकानंद के शब्दों में, ‘भारत को समाजवादी अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाये.

सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों मे जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रंथों के पन्नों के बाहर निकाल कर, मठों की चहारदीवारियां भेद कर, वनों की शून्यता से दूर लाकर, कुछ संप्रदाय-विशेषों के हाथों से छीन कर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें-उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सब जगह फैल जायें- हिमालय से कन्याकुमारी और सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें. सबसे पहले हमें यही करना होगा.

(विवेकानंद साहित्य भाग – 5, पृष्ठ 115-116)
(विवेकानंद साहित्य के मर्मज्ञों, संन्यासियों से मिली सूचनाओं-तथ्यों केआधार पर)
दिनांक – 03.02.13

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