कर्म का प्रतिफल!

– हरिवंश – कृष्ण के अलग-अलग रूप, अलग-अलग लोगों की पसंद हैं. कोई यशोदा के आंगन के बालकृष्ण में मगन है, तो कोई कुरुक्षेत्र में गीता के भाष्यकार में. कोई रासबिहारी श्रीकृष्ण में डूबा है, तो कोई यमुना तट की लीलाओं में. किसी को वृंदावन में आनंद है, तो कोई मथुरा से जुड़ा है. द्वारका […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 15, 2015 11:54 AM

– हरिवंश –

कृष्ण के अलग-अलग रूप, अलग-अलग लोगों की पसंद हैं. कोई यशोदा के आंगन के बालकृष्ण में मगन है, तो कोई कुरुक्षेत्र में गीता के भाष्यकार में. कोई रासबिहारी श्रीकृष्ण में डूबा है, तो कोई यमुना तट की लीलाओं में. किसी को वृंदावन में आनंद है, तो कोई मथुरा से जुड़ा है. द्वारका अलग बुलाती है. द्वारका में ही वह जगह है, जहां से कृष्ण, इस धरती से विदा हुए.

साध थी, आज के माहौल में वह जगह देखूं, जहां से श्रीकृष्ण ने महाप्रयाण किया. ईश्वर या महामानव के अंतिम पहर की धरती. एक बड़े संत ने कहा, महापुरुषों की पुण्यतिथि मनाते हैं. बड़े संतों के जन्मस्थान पर कम, समाधिस्थल पर ज्यादा भीड़ उमड़ती है. इस अर्थ में कृष्ण की जन्मतिथि दुखदायी है. वह कारागार में जन्मे. कृष्ण का देह छोड़ना भी दुखदायी है. राम ने भी सरयू में खड़े होकर संसार से विदा ली, तो कृष्ण ने हिरण्य नदी के किनारे, पीपल के पेड़ के नीचे लेट कर.

वहीं व्याध ने तीर चलाया, जो कृष्ण के तलवे में लगा. जब व्याध कृष्ण के पास पहुंचा, तो वह भयभीत हुआ. यह हमने क्या किया! कृष्ण कहते हैं, मा भय: व्याधे (भय मत करो व्याध). व्याध देखता है, बाण का जहर फैल रहा है. वह भगवान को देख कर कांपता है. युगपुरुष अधलेटे हैं. उनकी महिमा वह जानता है. पर वह कहते हैं, डरो मत, यही काल की नियति है. राम और कृष्ण दोनों का विदा होना दुखमय माना जाता है. दोनों भगवान माने गये और ईश्वर या सर्वशक्तिमान की पुण्यतिथि नहीं मनती.

उसी पीपल पेड़ के नीचे खड़ा था, जहां कई हजार साल पहले श्रीकृष्ण ने अपने वंश का पराभव देख कर देह त्यागी. वही चमत्कारी पुरुष, गीता का उपदेश देनेवाले, पर काल-नियति के प्रावधानों से बंधे. इस धरती पर खड़े-खड़े एहसास हुआ, सृष्टि संचालन के भी सूत्र हैं. नियम हैं. उससे महापुरुष या ईश्वर भी बंधे हैं.

संसार अगर सृष्टि के विधि-विधानों से भटकता है, तो काल या समय की अपनी नियति है. एक पुराने पत्थर पर यहां दर्ज है कि कृष्ण को भल्ल (बाण) से मारा. इसीलिए इस स्थान को भल्ल (भालका) तीर्थ कहते हैं. प्राचीन-पावन तीर्थ वेरावल से प्रभाष जाने के रास्ते में यह स्थित है. हिरण्य नदी के किनारे. यह भी लिखा है कि गोलोक धाम तीर्थ महाभारत, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण, ईसा पूर्व 3102, चैत्र, शुक्ल पक्ष, प्रतिपदा के दिन, शुक्रवार (अंगरेजी तिथि, 18 फरवरी) को दोपहर दो बज कर 27 मिनट, तीस सेकेंड समय पर हिरण्य नदी तट से योगधारण द्वारा निजधाम प्रस्थान.

उसी भालका स्थान पर हम खड़े थे. बिल्कुल सामान्य जगह. कृष्ण के व्यक्तित्व के अनुरूप कुछ भी नहीं. द्वारका देखने की बार-बार ललक रही है. मन नहीं भरता. गहरे नीले समुद्र के किनारे सोमनाथ से कुछ ही दूर यह भालका तीर्थ है. यहां कृष्ण जैसे अद्वितीय पुरुष, सोलह कलाओं में पारंगत महामानव के अंतिम क्षण गुजरे.

मृत्यु, भगवान को भी नहीं बख्शती. हर देहधारी की यही अंतिम नियति है. यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यही बात युधिष्ठिर ने कही कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि हम रोज कंधों पर शव लेकर श्मशान जाते हैं, पर कभी नहीं सोचते कि हमारी नियति भी यही है. मृत्यु का गणित या दर्शन, श्मशान का वैराग्य अगर समाज या देहधारी समझ लें, तो शायद संसार आसान हो. खुशमय हो. तनाव कम हो.

जीवन के पग-पग पर श्रीकृष्ण प्रेरित करते हैं. पर उनके जीवन का अंतिम अध्याय भी उतना ही मार्मिक, प्रेरक और संदेशों से भरा है. प्राचीन ग्रंथों का निष्कर्ष है कि महाभारत युद्ध के 36 वर्षों बाद यदुवंश खत्म हुआ. महाभारत, श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण आदि के अनुसार जीवन के अंतिम 36 वर्षों में श्रीकृष्ण द्वारका में ही रहे. कहीं निकले नहीं. हस्तिनापुर तक नहीं गये. प्रिय सखा अर्जुन या पांडव या द्रौपदी से भी नहीं मिले. तटस्थ हो, जीवन की गति देखते रहे. इन अंतिम 36 वर्षों पर उपलब्ध साहित्य में नियति की कथा है. जहां कृष्ण के पास गोकुल और मथुरा की यादें हैं. हस्तिनापुर-महाभारत का अतीत है, उस कालखंड की हर घटना के नियंता या उसे प्रभावित करनेवाले नायक. चरम प्रेम के उपासक, तो मृत्यु के फन पर भी नृत्य करनेवाले. महाभारत के युद्ध क्षेत्र में गीता के प्रवर्तक भी. पर जीवन के अंतिम अध्याय में काल व संसार की स्वाभाविक गति-नियति के मौन दर्शक.

पर कृष्ण जगद्गुरु थे, ज्ञाता थे कि हर भौतिक चीज की एक सीमा है. देह की भी कालसीमा है. हर संबंध का एक अनिवर्य अंत है. कृष्ण का तो दर्शन ही था कि जीवन के हर यथार्थ को, अंत को सहज भाव से मान लें, तो दुख नहीं होता. इसलिए कृष्ण ने द्वारका में रहते हुए भी किसी चीज का स्वामित्व अपने पास नहीं रखा. राज्य चाहे मथुरा का हो या द्वारका का या हर वह दुर्लभ ऐश्वर्य, जो उन्होंने पाया, वह समाज को, यदुवंश को सौंप दिया. फिर भी उस द्वारका, जहां खुद श्रीकृष्ण रहे, संतोष नहीं रहा. संतोष का सुख नहीं रहा. प्रतिस्पर्धा, तनाव और अहं ने घेरा. खुशी, आनंद (हैपीनेस) की लय टूटी. यह नियति की गति थी. असंतोष की ज्वाला धधकी. भोग, अनियंत्रित इंद्रिय सुख की कामना, मद्यपान, अनुशासन भंग- राजपुरुषों के जीवन के प्रभावी तत्व रहे. कृष्ण वीतरागी थे, कहीं बंधे नहीं, पर उनका कुल बंध गया.

भव्य स्वर्णमयी द्वारका नगरी में मदिरा का ताप घर-घर पहुंचा. जुए ने कुरुकुल को तबाह कर ही दिया था. फिर भी द्वारका के राजकुमार मदिरा सेवन में डूबे थे. खुद द्वारका के राजकुमारों ने महर्षि कश्यप के साथ उच्‍छृंखल, अनुचित व्यवहार किया. तब कृष्ण ने भरे दरबार में कहा, विनाश का भय नहीं होना चाहिए. भय अनुचित एवं अधर्ममय व्यवहार का होना चाहिए.

आज कृष्ण के कई हजारों साल बाद का समाज कहां खड़ा है? धर्म व मूल्य किस हाल में हैं? यह सार्वजनिक बहस का विषय नहीं, स्वानुभूति का प्रसंग है. कोई भी इनसान, समाज या मुल्क बगैर मूल्य, बिना स्थापित मापदंडों के दीर्घजीवी हो ही नहीं सकता. कृष्ण के द्वापर युग की तुलना, मौजूदा कालखंड से करें, तो हम किस संकट में हैं? यह संकट बहुआयामी है. नैतिक संकट, मूल्यों का संकट, स्वधर्म पर न चलने का संकट, देश और समाज को चलाने के सही मापदंड और अनुशासन न होने का संकट. बगैर स्वानुशासन के कोई समाज जीवित रह सकता है?

रोज बननेवाले नये कानून हमें कितना अपराधमुक्त बना रहे हैं? क्या हमें एहसास है कि हमारे कर्मों में ही हमारी फिसलन, विनाश, पतन और आत्मविनाश के बीज होते हैं? कृष्ण ने जहां पार्थिव शरीर छोड़ा, वहां खड़े होने पर ये सारे प्रसंग, संदर्भ और सवाल मन में गूंज रहे थे. हिरण्य-कपिला नदी की उस धरती पर.

आज देश में मद्यपान और जुआ, दोनों के प्रति चुंबकीय आकर्षण है. तब कृष्ण थे, जो अपने राजवंश को चेता रहे थे. आज देश के कई राज्यों में होड़ है कि किसे शराब से कितनी आमद हो? उत्तर प्रदेश हो, बिहार हो, महाराष्ट्र हो या दक्षिण के राज्य. इनमें होड़ है कि शराब से अधिकाधिक आमद कैसे हो? जुए के नये-नये रूप दिखते हैं. दुनिया के मशहूर कसीनो में जाते भारतीय, मैच-फिक्सिंग जैसी चीजें..

इस मानव प्रकृति या स्वभाव में ही श्रीकृष्ण आत्मविनाश के बीज देखते थे. मर्यादा भंग करनेवालों को वह राजदंड देने के पक्षधर थे. उन्होंने दंड भी दिया. स्वजनों को, खुद के पुत्रों को, क्योंकि वह प्रकृति के सनातन नियमों को समझते थे. पर मद्यपान और अहंकार द्वारका के राजवंश के पतन के कारण हुए.

तब कृष्ण को माता गांधारी का शाप स्मरण हुआ. ‘‘36 वर्ष पूर्व माता गांधारी ने जब यादव कुल के सर्वनाश का शाप दिया था, तब कृष्ण ने पूर्ण स्वस्थता से, सहज भाव से उसको स्वीकार करते हुए कहा था, ‘हे माता! आपका शाप केवल उचित ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है. यादव अति समर्थ हैं एवं उनका नाश अन्य कोई भी नहीं कर सकता. नाश अवश्यंभावी है. महाकाल, जिसके नाश का निमित्त किसी अन्य को नहीं बना सकता. उसका नाश स्वयं ही होता है. आपने यह शाप देकर महाकाल का ही कर्तव्य निभाया है’’ (साभार- द्वारका का सूर्यास्त, लेखक – दिनकर जोशी)

दिनकर जोशी की पुस्तक, द्वारका का सूर्यास्त में मार्मिक वर्णन है कि श्री कृष्ण प्रभाष क्षेत्र में मरे पड़े यादव कुल के लोगों को देखते हैं. वहां उन्हें पुत्र प्रद्युम्न का अर्धमूर्छित शरीर दिखा. कृष्ण कहते हैं, हम खुद अपने कर्मों का फल पाते हैं. वह यह भी कहते हैं, ‘पुत्र, गणतंत्र का मद्य-निषेध तुमने स्वीकार नहीं किया. राज के नियमों की यदि राजसभा के सदस्य ही अवज्ञा करें, तो वह सभा विनाश के मार्ग पर ही समाप्त हो जाये, इसमें क्या आश्चर्य! गण-परिषद केवल शासन के लिए ही नहीं होती, बल्कि स्वयं को शासित करने के लिए भी होती है’ (साभार- द्वारका का सूर्यास्त, लेखक – दिनकर जोशी)

यह प्रसंग पढ़ते हुए संसद से लेकर अनेक राज्यों की विधानसभाओं की तसवीरें उभरीं? क्या कभी हमारा शासक वर्ग खुद को संविधान, नियम-कानून या मर्यादाओं की कसौटी पर परखता है?

अपने आईने में खुद को परखता है. कृष्ण काल में तो द्वारका के प्रतापी राजवंश ने खुद को जांचा, परखा अपनी ही कसौटियों पर? द्वारका राजवंश ने अपने नियमों पर अपने प्रतापी लोगों के आचरण की बात, सार्वजनिक सभा में की. कृष्ण काल का आशय साफ रहा. व्यवस्था के नियम या कानून एक होते हैं, चाहे वह कृष्ण का पुत्र हो या कृष्ण के भृत्य (नौकर) का जिस व्यवस्था में यह बुनियादी नियम टूटता है, वहां विनाश अपरिहार्य है. इस कसौटी पर आज की व्यवस्था को परखना और जानना जरूरी है. हम कितनी दूर आ गये हैं.

कहने को देश का कानून एक है, पर शासक पुत्रों, संपन्न पुत्रों और प्रभावशाली लोगों के लिए कानून और एक अशक्त, गरीब के लिए वही कानून, क्या इस व्यवस्था में सचमुच दोनों एक हैं? संजय दत्त का प्रसंग ताजा है. देश के समर्थ लोग उन्हें सजा मुक्त कराने का अभियान चला रहे हैं.

यह क्या है? एक अपुष्ट सूचना के अनुसार, देश में आर्म्स एक्ट में 60,000 से अधिक लोग बंद हैं, फिर वे सब क्यों न रिहा किये जायें? क्या देश ऐसे चलता है? सलमान खान ने अपनी कार से सड़क पर सो रहे लोगों को कुचला, संरक्षित काले हिरणों का शिकार किया, उन्हें भी बरी कर देने की मांग उठती है? फिर कानून है ही क्यों? याद रखिए, कृष्ण के जीवन का संदेश यही है कि प्रकृति व काल का अपना न्याय है. यह संपूर्ण तबाही का न्योता है.

कृष्ण कोरी कल्पना हैं, या लीला या सच या आस्था, नहीं पता? पर वह भारतीय मानस के सच हैं. भारतीय चेतना के यथार्थ हैं. जीवन, समाज, देश में जो भी संभव और कठिन चुनौतियां हैं, संघर्ष हैं, उन सब से गुजरे श्रीकृष्ण. भारतीय जनमानस के लिए उनका व्यक्तित्व हर परिस्थिति में प्रेरित करता है. सृजन की तरह ही नाश को भी स्वाभाविक कर्म माननेवाले. पर यह बतानेवाले कि नाश के कर्त्ता तो हम खुद हैं. प्रतापी कृष्ण के परिवार या राज्य का क्षय, बाहरी ताकतों से संभव नहीं था.

यह यथार्थ सब जानते थे. पर अहंकार और मद्यपान (शराब) कैसे विवेक खत्म करते हैं और आत्मनाश को आमंत्रित करते हैं. जीवन से प्रस्थान करते कृष्ण यह संदेश भी दे गये. आज का समाज सिर्फ अहंकार और मद्यपान से ही नहीं बंधा है, भोग, छल-कपट, प्रपंच, भ्रष्टाचार, मूल्यविहीनता.. न जाने कितने दुगरुण और नये रोग हमने ढूंढ़ लिये हैं. क्या इन चीजों के अवश्यंभावी परिणाम के लिए भी हम तैयार हैं? कृष्ण कहते हैं, कर्म का प्रतिफल मिलता ही है.

(इस पवित्र स्थल की यात्रा के समय प्रतिभाशाली गुजराती लेखक दिनकर जोशी की पुस्तक द्वारका का सूर्यास्त (हिंदी अनुवाद) साथ थी. यह टिप्पणी लिखने में इस पुस्तक से मदद ली है.)

दिनांक – 24.03.13

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