जीवन ईश्वरीय वरदान है
– हरिवंश – देश कहां खड़ा है और किधर जा रहा है? इसके बारे में क्या आज मौलिक या बुनियादी सवाल उठते हैं? स्वामी निरंजनानंद जी यह सवाल उठाते हैं कि आज कानून तो देश के 10-15 शहरों को देख कर बनते हैं. क्या गांवों को केंद्र में रख कर कानून बन रहे हैं? क्या […]
– हरिवंश –
देश कहां खड़ा है और किधर जा रहा है? इसके बारे में क्या आज मौलिक या बुनियादी सवाल उठते हैं? स्वामी निरंजनानंद जी यह सवाल उठाते हैं कि आज कानून तो देश के 10-15 शहरों को देख कर बनते हैं. क्या गांवों को केंद्र में रख कर कानून बन रहे हैं? क्या गांवों को देख कर कोई चीज तय है?
महज इंजीनियर और एमबीए पैदा करने की होड़ मची है, पर किसान कौन बनेगा? क्या क्षेत्रीय स्तर पर यह अध्ययन होता है कि अलग-अलग क्षेत्रों (मसलन खेती, पढ़ाई, नौकरी, रक्षा, प्रशासनिक सेवा वगैरह) में आनेवाले समय में कितने लोगों की जरूरत पड़ेगी और हम कितने लोग पैदा कर रहे हैं? क्या दोनों के बीच कोई सामंजस्य बनाने की देश में कहीं कोशिश दिखायी देती है? अंधदौड़ की तरह चीजें चल रही हैं. वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश से हुई लंबी बातचीत में स्वामी निरंजनानंद जी ऐसे अनेक सवालों पर चर्चा करते हैं.
स्वामी निरंजनानंद, परमहंस सत्यानंद की परंपरा-धारा के संन्यासी हैं. समाज को केंद्र में रख कर लगातार मौलिक ढंग से सोचनेवाले. निजी मुक्ति के लिए नहीं, बल्कि सांसारिक परमार्थ के लिए. वह मानते-कहते हैं कि संसार छोड़ना संन्यास नहीं है. त्याग और वैराग्य इसके दो चरण हैं, पर समाज में रहते हुए वासना (जिस चीज में भी आसक्ति हो) का त्याग ही वैराग्य है. कर्म, कर्तव्य, धर्म, आदर्श छोड़ कर कोई व्यक्ति या समाज कैसे टिक सकता है? पढ़िए जीवन-समाज से जुड़े अनेक सवालों पर स्वामी निरंजनानंद से हरिवंश की लंबी बातचीत के अंश.
जीवन दुर्घटना है या वरदान या किसी बड़े काम के लिए नियत. एक सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से इसका अर्थ है? निश्चित रूप से यह ईश्वरीय वरदान है. कोई दुर्घटना नहीं. अब मूल सवाल यह है कि इस ईश्वरीय वरदान को सिद्ध करने के लिए हमें कितने अवसर मिलते हैं? मनुष्य का काम ही होता है कि जीवन में अवसरों को खोज कर अपनी प्रतिभा को अभिव्यक्त करें. यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है. सही अवसर पर, सही अभिव्यक्ति. चाहे हम विद्यार्थी हों, व्यवसायी हों, गृहस्थ हों, साधु हों, किसी भी रूप में हों, जब सही अभिव्यक्ति होती है, तो उससे बहुतों को सुख मिलता है. इस दृष्टि से कह सकते हैं कि जीवन ईश्वरीय वरदान होता है, यदि हम इसका सही उपयोग कर सकें तो. अगर सही उपयोग नहीं हुआ, तो फिर दुर्घटना का चिंतन होगा.
हमारा जीवन फेट (भाग्य) से संचालित है या हमारे कर्म से? पश्चिमी कांसेप्ट (मान्यता) है, फ्री-विल (मुक्त इच्छा) का. क्या एक आदमी अपने संकल्प से अपना भविष्य गढ़ सकता है? आप क्या कहते हैं?
मैं एक कथा दृष्टांत सुनाता हूं. आपके पास एक बकरी है. बकरी को आप तीस फुट लंबी रस्सी से एक खूंटे से बांध देते हैं. बकरी स्वतंत्र है, तीस फुट की परिधि में घूम कर अपना चारा खाने के लिए या घास चरने के लिए. इस निश्चित परिधि में वह कहीं भी खा-चर सकती है. यही निश्चित परिधि उसका फ्री-विल है. पर बियांड दिस लिमिट देयर इज नो लिमिट (इस सीमा या बंधन के बाद कोई सीमा नहीं. बंधन नहीं). अगर हम (इंसान) भी देखें, तो हम भी काफी कोशिश करते हैं, काफी कुछ करना चाहते हैं, इसकी प्राप्ति के लिए. हमें बार-बार सफलता नहीं मिलती. यह हमारे डेस्टिनी (नसीब) में नहीं है. लेकिन कभी-कभी अनायास ही ऐसा हो जाता है कि हम स्क्वेअर पेग इन स्क्वेअर होल, की तरह एक दम फिट हो जाते हैं.
मतलब दिस वाज डेस्टिनी. जो डेस्टिनी है, उसको सुधारने के लिए, उसको सुंदर बनाने के लिए हम कर्म करते हैं. दोनों का समन्वय है, यहां पर. डेस्टिनी इंडिकेट्स द बाउंड्री ऑफ योर प्रॉपट्र्री एंड कर्म इंडिकेट्स द हाउस, द गार्डन एंड द डेकोरेशन (नियति आपकी संपदा की सीमा का संकेत है और कर्म घर का, बाग-बगीचे और सजावट का). प्राय: लगता है कि हम परिस्थितियों की लहरों या थपेड़ों में बह रहे हैं. चीजें हमारे हाथ में नहीं हैं. हम तिनके की तरह समय की लहरों में बह रहे हैं. कई बार यह एहसास जीवन में होता है. यह क्या है?
यह एहसास तब होता है, जब हमारे वश में कुछ नहीं होता. हम जिसे अपने वश में समझते थे, अब वह चीज हमारे वश से बाहर हो रही है. मेरे स्वामी जी इस बात को हमेशा कहा करते थे कि जब तुम फेट (भाग्य) को लेकर साथ चलते हो, तब तुम्हें लगेगा की चीजें वश से बाहर जा रही हैं. क्योंकि तुम अपने को उस समय का केंद्र बना लेते हो. कर्मों का, इच्छाओं का, पुरुषार्थों का, घर-परिवार का, समाज का. और उस समय यू आर ट्राइंग टू होल्ड ऑन टू योरसेल्फ इमेज, सेल्फ-प्रेस्टीज (आप अपनी आत्मछवि को पकड़े रहना चाहते हैं, आत्म प्रतिष्ठा को भी), जो भी आपसे जुड़ा हुआ भाव है. जब कोई उसको सम्मान नहीं देगा, तब चोट लगती है.
दूसरी चीज स्वामी जी (निरंजनानंद जी के गुरु) कहते थे कि हमारे यहां इसलिए कहा गया है कि दो चीजें साथ लेकर चला करो. पहला यह सिद्धांत लेकर चलो कि जैसा भगवान चाहेंगे, वैसा ही होगा. जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए. दूसरा कि जिस परिस्थिति में हम रहें, उसे हमेशा अपने अनुकूल बनाते हुए आगे चलें. इसके लिए पहले आत्मशिक्षा की आवश्यकता है. क्योंकि यह तो मन की अभिव्यक्ति है. जब मन सजग, सहज और रचनात्मक रहेगा, तो आपको हर परिस्थिति का समाधान नजर आयेगा.
बचपन में स्वामी जी ने हमको एक सूत्र दिया था, देयर इज नो सिंपल सॉल्यूशन इन लाइफ. ओनली इंटेलीजेंट च्वायस (जीवन में किसी भी समस्या का सरल समाधान नहीं है. केवल जो विकल्प है, उसमें से हमें बेहतर को चुनना है). अपने विकल्पों की ओर देखो. किसी एक का चयन कर यह मत कहो कि यह परिस्थिति के अनुकूल नहीं है या मुझसे नहीं होगा. ऐसा मत कहो. क्योंकि तुम केवल एक ही बंद दरवाजे को देख रहे हो, बाकी जो खुले हैं, उनकी ओर तुम नहीं देख रहे हो.
बचपन में स्वामी जी ने एक कहानी सुनायी थी. एक बार एक अंधा आदमी थियेटर (सिनेमा घर) में गया. उसे कोई वहां ले गया होगा. उस अंधे आदमी ने एक व्यक्ति से पूछा कि बाहर जाना है, कैसे जाऊं? उस आदमी ने उस अंधे व्यक्ति से कहा कि दीवार पकड़ कर आगे बढ़ते जाओ, जहां यह दीवार खत्म होगी, वहीं दरवाजा है. वह अंधा व्यक्ति दीवार पकड़ कर आगे बढ़ने लगा. जैसे ही वह दरवाजे के पास पहुंचनेवाला था, उसके सिर में खुजली होने लगी, हाथ सिर के ऊपर रख कर वह सिर खुजलाते हुए आगे बढ़ा और दरवाजे से आगे निकल गया. इस तरह फिर उसे एक और चक्कर काटना पड़ा. जीवन में प्राय: हमलोग देखते हैं कि अच्छे लोग दुख झेलते हैं?
मैंने यही सवाल गुरु जी से किया था कि ऐसा क्यों होता है? दुष्ट लोग आराम की जिंदगी जीते हैं. अच्छे लोग कष्ट झेलते हैं या कष्ट भरी जिंदगी जीते हैं. गुरु जी ने उत्तर देते हुए कहा कि जो अच्छे लोग हैं, उनके द्वारा अच्छे काम इसलिए होते हैं, क्योंकि उनका कर्म अच्छा है. जब कर्म अच्छा है, तो वह बढ़ता नहीं है, घटता है.
अच्छे कर्मो से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है. जैसे-जैसे हम अच्छे कर्म करेंगे, वैसे-वैसे बुरे कर्मों का बंधन कटेगा. उनके कटने से जब दूसरी समस्याएं आती हैं, परिस्थितियां आती हैं, तो कष्टप्रद स्थिति हावी होती है. जो अच्छा आदमी है, वह उसके प्रति रियेक्ट नहीं कर रहा है. दुख आया, तो ठीक है आया. घर में खाने को नहीं है, तो ठीक है. भगवान के भरोसे रहेंगे. उसकी प्रकृति ऐसी ही है, और दूसरे लोगों को लगता है कि दुख उस पर हावी हो रहा है. आरंभ में स्वामी जी की यह बात मुझे समझ में नहीं आयी, लेकिन फिर कालांतर में जैसे-जैसे अच्छे-बुरे लोगों के साथ पाला पड़ा. अच्छे और बुरे लोगों के जीवन को देखने का मौका मिला कि वे कैसे परिस्थितियों से झेलते-जूझते हैं या सामना करते हैं या स्वीकार कर लेते हैं या नकारात्मक हो जाते हैं या आस्थावान रहते हैं या निराश हो जाते हैं.
तब इस स्थिति में हमने उनकी बातों को समझा कि जो अच्छा है यदि उसके यहां डाका पड़ा है, तो वह कहेगा कि ठीक है, जो लेना है वो ले लो. लेकिन जो बुरा है, वह तो बंदूक लेकर कहेगा कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अंदर आने की? हो सकता है, वह डाकुओं को गोली मार दे. जो रिएक्टिव नेचर वाला होता है, वो सामान्यत: इस संसार में अपना रास्ता बना लेता है. साम, दाम, दंड, भेद से.
दूसरी तरफ जो शांत प्रवृत्ति का है, वह सब चीजों को स्वीकार कर लेता है और परिस्थिति के अनुरूप ढल जाता है. तुलसीदास जी इस परिस्थिति को स्वीकार करते हैं, तो समाज कहता है कि तुलसीदास आप झेलें. कबीर इस परिस्थिति को स्वीकार करते हैं, तो समाज कहता है कि इनके पास खाने को अन्न का एक दाना भी नहीं है. बहुत दुख झेल रहे हैं. इन्हें काफी तकलीफ हो रही है. अच्छे लोगों को तकलीफ होती है, यह हमारी मानसिकता में है.
लेकिन अच्छे लोग जिस भाव में बह रहे हैं, वो तो अलग ही है. स्वामी जी के पंचाग्नि का दृश्य आपको याद होगा. लोग स्वामी जी को कहते थे कि हम आपके पास एसी-पंखा लगा देते हैं. तब स्वामी जी कहते थे कि मेरे पड़ोसियों को नहीं है, तो मैं क्यों लगाऊं? उनके शिष्य तो कभी नहीं कहते थे कि स्वामी जी दुख झेल रहे हैं. कष्ट सह रहे हैं. बाकी लोग कहते थे कि स्वामी जी दुख झेल रहे हैं. हम मानते थे कि यह तो उनकी ही इच्छा है. ऐसा वो करना चाहते हैं और इसमें ही वो रम गये हैं. हम या हमारी आत्मा जन्म के समय अपने मां-बाप, अपना परिवेश चुनते हैं या यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है?
यह वैज्ञानिक प्रक्रिया तो नहीं हो सकती. जो चिंतन रहा है, उसके आधार पर, आत्मा किसी शरीर को धारण करती है, अपने विकास के लिए. शास्त्रों का ऐसा मानना है. जब आत्मा शरीर को धारण करती है, तो इस धरातल पर आकर कुछ शिक्षाओं को प्राप्त करती है, ताकि वो इस पदार्थमय या भौतिकता के जीवन से अपने आप को मुक्त कर सके और अंतरात्मा से संबंध को जोड़ सके.
इस क्रम में एक ऐसा वर्ग होता है, आत्माओं का, जो अपने आप को अन्य सामाजिक अभिव्यक्तियों से अलग कर लेता है. वो कहलाते हैं, महात्मा. एक है आत्मा और एक है महात्मा. महात्मा का अर्थ होता है, जो अपने आप को सामाजिक परिवेश, दुनिया के आकर्षण से मुक्त कर लेता है. चाहे 10-15-20 फीसदी तक ही क्यों न हो. आदिगुरु शंकराचार्य ने जन्म लिया. अवतार हुए या नहीं, यह अलग बहस का विषय है. लेकिन जब जन्म हुआ, तो वह एक सामान्य इंसान ही रहे होंगे. लेकिन उनके भीतर आत्मा की जो अवस्था थी, अलग थी अन्य लोगों से. उनको पूर्व का अनुभव रहा और उन संस्कारों ने उनके जीवन की दिशा निश्चित की. वो चीज दूसरों को क्यों नहीं हुई. छह करोड़ में और किसी को क्यों नहीं?
चाहे वह स्वामी शिवानंद जी रहे हों. उन्होंने भी तो नौकरी की थी. लेकिन उनके जीवन में एक मोड़ आया, जब किताब पढ़ कर उनमें विरक्ति आ गयी, और सब कुछ छोड़ कर वो चले आये भारत. उनके लाइफ में एक कैटलिस्ट हुआ (मोड़ आया), एक ट्रिगर हुआ, जिसने किसी पुरानी एक्टिविटी (काम) को एक्टीवेट (सक्रिय) कर दिया. स्वामी जी बचपन में बेहोश होकर गिर जाते थे. लोग या डॉक्टर सोचते थे कि टेस्ट कराने से कुछ बीमारी का पता चलेगा. कुछ नहीं निकलता था. साधु-संत कहते थे कि यह समाधि है. परिवारवाले कहते थे कि यह बेहोशी की बीमारी है. आनंदमयी मां को बीच में आना पड़ा. उन्होंने कहा कि लड़का बीमार नहीं है. समाधि की स्थिति में है. तब जाकर साधु-संतों से संपर्क किया गया.
इस तरह जीवन में कहीं एक ट्रिगर प्वाइंट (मोड़) आता है, जो मनुष्य को उसके सामान्य जीवन से हटा कर एक नये दृष्टिकोण, एक नयी दिशा की ओर ले जाता है. चाहे वो ज्ञान के रूप में क्यों न हो. हमारे पास आश्रम में भी कई बार सिविलियन (आम आदमी) आते हैं, जो संन्यासी नहीं होते. कभी-कभी उनकी सोच, उनकी मानसिकता धीरे-धीरे बदलने लगती है (आश्रम का प्रभाव). अगर हम इनसे या आपसे ही पूछें कि इस साल पहले आप क्या थे और आज क्या हैं, तो क्या जवाब होगा? इस दौरान इनकी सोच, व्यवहार, कार्य, चिंतन में आध्यात्मिकता का प्रवेश हुआ. विज्ञान का प्रवेश हुआ. पहले से अधिक चौकन्ने और सजग हो गये हैं, तो कहीं पर इनके लिए भी एक ट्रिगर प्वाइंट हुआ है. आपके साथ भी हुआ होगा, जिसके चलते आप स्वामी जी से इतना प्रेम करते हैं.
नहीं तो पहले आपके लिए भी साधु-संन्यासी एक ही प्रकार के थे. लेकिन यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि वह कौन-सा ट्रिगर था, जिसने एक सामान्य व्यक्ति में नयी दिशा, नयी चेतना प्रदान की. जब ऐसा परिवर्तन हमारे जीवन में आता है, तो हमें बहुत शांति मिलती है. आत्माओं का संबंध बिल्कुल वैसा ही जैसे कई बच्चे एक साथ प्राथमिक विद्यालय में नामांकन लेते हैं.
विद्यार्थियों में कुछ प्रतिभाशाली होते हैं, जो तुरंत आगे की कक्षा में चले जाते हैं. कुछ तेज नहीं होते है, तो एक ही कक्षा में चार-पांच साल तक रहते हैं. ऐसे विद्यार्थियों को जबरदस्ती दूसरी कक्षा में बैठाना पड़ता है. लेकिन प्रवेश के समय तो सब विद्यार्थी एक समान हैं. वैसे ही जन्म लिये तो सब एक समान. जन्मना जायते सुग्रह. आप, हम सब बराबर हैं. संस्कार मिला, तो कुछ आप बने, कुछ हम बने.
जीवन में अहंकार, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रूरता यही मानव इतिहास को आकार देते रहे हैं. अब लोग कहते हैं कि दुनिया एक नये मुकाम पर है. खास तौर से जो योग से संस्कारों का विकास हो रहा है, भारत जैसे मुल्क में. यहां कानून विफल होते दिखायी देते हैं. आपको क्या लगता है कि संस्कार, मनुष्य-मन को बदलने की क्षमता रखता है?
यह निश्चित है कि दुनिया में सभ्यता का विकास पावर (शक्ति) के चलते हुआ है. जिसके पास अच्छे अस्त्र-शस्त्र हैं, वह हमेशा दूसरों पर हावी रहा है. ट्राइबल समय (आदिकाल) से लेकर अब तक, यही स्वरूप है. मेरे पास आपसे अधिक शक्ति है, तो हम आप पर हावी होंगे. आपके पास हमसे अधिक शक्ति है, तो आप हम पर हावी रहेंगे. आपके पास बंदूक है, तो आप हम पर हावी हैं.
मेरे पास अणु बम है, तो मैं आप पर हावी रहूंगा. दुनिया के विकास के पीछे निश्चित रूप से हथियारों, महायुद्धों की भूमिका रही है. समाज में जो दिखता है, वो उसका एग्रेसिव (आक्रामक) रूप है. लेकिन हम इसे दो तरह से लेते हैं. पहला, समाज निर्माण में. हम मानते हैं कि हमको भौतिक स्तर पर आगे बढ़ना है. दूसरा, व्यक्तिगत स्तर पर. यहां पर जो भौतिक स्तर है, वह समाज का दिन है. जो व्यक्तिगत स्तर है, वह समाज की रात है. दिन में आप कर्मो में संलग्न हैं और रात्रि में आप अपने में समाहित. अध्यात्म रात्रि है. रात में जो काम होता है, वह दूसरों को मालूम नहीं पड़ता. दिन में होनेवाले काम तो सब देखते हैं.
सबकी नजरों में हैं. तुलनात्मक रूप यह है कि अगर हम लोगों का कर्ममय जीवन दिन है, तो अध्यात्म जीवन रात है. अगर हम लोगों का कर्ममय जीवन रात है, तो अध्यात्मिक प्रयास, व्यक्तिगत उत्थान हेतु है. दोनों का समन्वय हो रहा है. इसलिए स्वामी शिवानंद जी या स्वामी जी ने कभी नहीं कहा कि तुम दिन में योग करो. दस मिनट रोज. सब्जी में नमक की तरह. सब्जी में पालक की तरह नहीं कि एक किलो डाला और खाने के समय सौ ग्राम मिला. यह नमक की तरह हो. चुटकी भर में काम हो जाये. स्वाद आ जाये. हम अपने आसपास के बच्चों को देखते हैं या जो रिखिया में ही हैं, ये वे लोग हैं या बच्चे हैं, जिन्होंने जिंदगी में पहले से ही कुछ पाया है. कुछ प्राप्त कर लिया है.
अनुशासन, सजगता और चिंतन. इनका ज्ञान इन्हें इतना बेहतर बना चुका है कि कभी-कभी अपने मां-बाप को भी वे करेक्ट (समझाना, सही करना) करते हैं. पिता से प्रश्न करते हैं कि आप शराब पीकर क्यों आते हैं? आप रात में देर से क्यों आते हैं? सुबह मुझे स्कूल जाना होता है. जल्दी क्यों नहीं आते? ऐसे प्रश्नों से बच्चों के अभिभावक को दुख होता है कि हम अपने ही बच्चों के आदर्श क्यों नहीं हैं? उन्हें विचार आता है कि मुझे भी कुछ अच्छा करना चाहिए.
मुंगेर बहुत कठिन और एक अर्थ में बहुत टिपिकल प्लेस रहा है. वहां इस तरह का फूल खिलना या संस्था का उदय होना, अपने आप में अद्भुत है. आप अपने दो अनुभव सुना रहे थे कि कैसे यहां हर नवरात्रि पर उपद्रव हो जाते थे. फिर किस तरह लोगों में बदलाव आया. एक गांव की बात आप बता रहे थे कि 17 गांवों में जो काम हुआ, तो वहां कैसे लोगों ने हथियार सौंपे. दोनों ही घटनाएं मामूली नहीं हैं. मुंगेर को जाननेवालों के लिए, असाधारण चीज. आज भारत में भी लगता है कि रोज सिर्फ कानून बन रहे हैं. दिल्ली में घटना हुई, कानून बना. फिर भी घटनाएं नहीं रुक रहीं. लेकिन एक मन बदलने से मुंगेर जैसी जगह में यह चीज हुई.
आरा में हमारे संन्यासी प्रशिक्षण दे रहे थे. देर रात किसी ने गेस्ट हाउस का दरवाजा खटखटाया. खोला, तो देखा तीन-चार लोग खड़े थे. पूछा, आप लोग कौन हैं? एक कहता है कि मैं इस क्षेत्र का एमएलए हूं. आपसे कुछ बात करनी है. संन्यासियों ने पूछा, क्या बात है? कहा कि आप जेलों में जो योग सिखा रहे हैं, मत सिखायें. संन्यासियों ने पूछा, क्यों? क्योंकि आपके योग सिखाने के बाद ये लोग हमारी बात नहीं मानेंगे. संन्यासियों ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘भाई, अब तो कार्यक्रम शुरू हो गया है.
एक बार खत्म कर लेने दीजिए. फिर आपको जो करना है, कर लीजिएगा.’ वो निकल गये. लेकिन यह कार्यक्रम जेलों में हुआ, उसका अनुभव बड़ा सकारात्मक रहा. हम लोगों ने वहां हजारों कैदियों को प्रशिक्षण दिया. फिर उनका परीक्षण किया. योग से पहले और योग के बाद. इस मनौवैज्ञानिक परीक्षण में पाया कि उनके भीतर एक गिल्ट (पश्चाताप) की भावना जगी. घर-परिवार के प्रति संवेदना थी. जो लोग जेलों में उत्पात मचाते थे, मारपीट करते थे, तनावों के कारण बीमार रहते थे, इन सबमें परिवर्तन आया. तीन महीने बाद जब दोबारा इनका परीक्षण किया, तो अपराध और आक्रोश की भावना लगभग शून्य हो गयी. क्षमा की भावना जाग्रत हुई.
मादक द्रव्यों का सेवन लगभग खत्म. कुछ होगा, क्योंकि पूरी तरह तीन महीने में तो नहीं हो सकता. रात में जिन्हें नींद नहीं आती थी, वहां अब लोग रात भर सो रहे हैं. स्वास्थ्य के लिए कभी कोई कार्यक्रम नहीं होता था. कैदी बीमार रहते थे. उनके ऊपर दवाइयों पर भारी खर्च होता था. अब उनका स्वास्थ्य पहले से काफी बेहतर था. दवाइयों का खर्च भी बहुत कम हो गया था. जहां पहले दवाई पर साठ-सत्तर हजार रुपये महीना खर्च होता था, वहां अब पांच-साढ़े पांच हजार का ही खर्च होता है. लगभग 55-60 हजार तक की बचत होने लगी. इस प्रकार चाहे वह कैदियों के बीच हो, या अपराधियों के बीच हो, चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, जब हम योग करते हैं, तो शरीर में रासायनिक संतुलन होता है.
यही रासायनिक संतुलन, मस्तिष्क की उग्रता और तीव्रता को शांत कर देता है. जब हम आसन करते हैं, तो यह रासायनिक परिवर्तन व्यवस्थित हो जाते हैं. इस अवस्था में जो न्यायसंगत है, धर्मसंगत है, वही करने की इच्छा होती है. यह स्वत: होता है. 17 गांवों में हमने कोई नैतिक शिक्षा नहीं दी थी. सिर्फ घंटे भर के कार्यक्रम में योग सिखाया और योग करने को प्रेरित किया. मंत्रों के साथ ध्यान करने को प्रेरित किया. उनके लिए तो यहीं बहुत बड़ी चीज थी.
शाम के समय रामायण के दो-चार दोहे सुनाये. उनका अर्थ बताया. गीता के कुछ दस श्लोक बताये. मात्र इतने से ही उनकी मानसिकता में परिवर्तन हुआ. कोई मोरल (नैतिक) शिक्षा नहीं. कोई नैतिकता का ज्ञान नहीं दिया. केवल उन्हें यही कहा कि जो काम आप अपने लिए करते हैं, उसका दसवां हिस्सा दूसरों के लिए भी किया करो. लेकिन सबसे बड़ी बात जो हमने की, वह यह कि उन्हें महसूस कराया कि उनके आगे-पीछे कोई है. उन्हें भरमाया नहीं जा रहा है. विश्वास का एक केंद्र उनके बीच विकसित किया. उस विश्वास ने उनका जीवन बदला है, हमने नहीं. हमने तो सिर्फ एक माध्यम बन कर उनका मार्गदर्शन किया.
खासतौर से भारत में युवा पीढ़ी के बारे में जो खबरें आती हैं कि वे डिस्टर्बिग (परेशान करनेवाली) हैं या जिस तरह मोबाइल से लेकर इंटरनेट की सारी चीजों का इस्तेमाल हो रहा है, उस अध्ययन पर जो रिपोर्ट आ रही है, वह बता रही है कि बहुत ही परेशान-दिग्भ्रमित पीढ़ी भी हमारे सामने आ रही है. आपके अनुसार इस नयी पीढ़ी को संस्कार के रास्ते ले चलने के रास्ते क्या हैं?
युवा पीढ़ी और बच्चे लोग हैं, वो किसी भी सोशल इनपुट से मुक्त तो नहीं हैं. आजकल मीडिया के चलते दुनिया में जहां कुछ हो रहा है, तत्काल जानकारी मिल जाती है. पहले तो अमेरिका में क्या हो रहा है, हमें पता भी नहीं चलता था. लेकिन अब वहां जो हो रहा है, हम यहां तुरंत टीवी पर लाइव देख सकते हैं. विज्ञान को सही रूप में जानें, तो यह चाकू है. इसका सदुपयोग भी किया जा सकता है और दुरुपयोग भी. हर वैज्ञानिक उपलब्धि के, दर्शन के, सिद्धांत के, धर्म के या चिंतन के तीन गुण होते हैं. अवगुण, रजोगुण और सद्गुण. मीडिया और टीवी पर कुछ हद तक कंट्रोल भी है. लेकिन इसके अवगुणों से भी हम मुक्त नहीं हैं.
हमें भी यह चिंता रहती है कि जिस पीढ़ी ने संघर्ष नहीं देखा, जो पीढ़ी चवन्नी की कीमत नहीं जानती, उससे हम भविष्य में क्या अपेक्षा कर सकते हैं? करोड़ों खर्च करती है. लेकिन हमें जो सिल्वर लाइन (उम्मीद की किरण) दिखायी देती है, बादल के पीछे का जो सूर्य है, वो यही कि अगर सब लोग मिल कर (आप, हम, दिल्ली वगैरह) कोशिश करें, तो अगली पीढ़ी को मजबूत बनाने के लिए हम कुछ कर सकते हैं. मुझे लगता है कि नये ढंग से चीजों को समझने की जरूरत है. अब सोचिए कि सभी इंजीनियर ही बन जायेंगे, तो खेती कौन करेगा?
हम बाहर से किसान मगांयेंगे क्या? आज देखिए न, किसानों के पास काफी जमीन है, लेकिन बेकार. पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसमें खेती हुई. लेकिन आज देखिए, बच्चों को बाहर भेज दिया है, एमबीए पढ़ने, ताकि बड़े होकर कुछ करे. बच्चा पढ़ा, लेकिन नौकरी नहीं मिली, तो गांव वापस लौटा. लेकिन खेती में उसका रुझान नहीं है. अब उसे दस हजार के काम से संतुष्टि नहीं है. उसे पचास हजार चाहिए. उसकी महत्वाकांक्षा बड़ी है. कौन रोकेगा इसे? कौन समझायेगा उसे?
अगले पचास सालों में हमारे सामने जो मुसीबत आनेवाली है, उसकी जिम्मेदारी आज कौन ले रहा है? मेरे विचार से भारतीय समाज को इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए. केवल पश्चिम ऐसा कहता है, और उनका अनुकरण करने से ऐसा नहीं होगा. हमारे समाज और पाश्चात्य समाज में काफी अंतर है. क्या चाइल्ड लेबर (बालश्रम) को भारतीय समाज से खत्म करना संभव है?
कहां से होगा? पिता खेती कर रहा है, तो कोई बेटा बीडीओ कार्यालय में खड़ा है, तो दूसरा राशन की लाइन में खड़ा है. कैसे पढ़ेगा? कब पढ़ेगा? जब यहां पर व्यवस्था ही नहीं है, तो बदलने की बात होगी कैसे? कैसे हम कह दें कि चाइल्ड लेबर खत्म हो गया या खत्म हो जायेगा?
हमारे यहां मुंबई-दिल्ली की अराजकता के अनुसार कानून बनते हैं. आप बताइए कौन-सा ऐसा कानून है, जो गांवों को ध्यान में रख कर बनाया जाता है या बना. हमारा कानून निश्चित रूप से 10-15 शहरों को छोड़ कर पूरे देश को अनदेखा करके ही बनता है.
तेलंगाना को देख लीजिए. क्यों वह अलग होना चाहता है? क्योंकि वह व्यवस्था चाहता है. जब कोई सरकार राज्य को उसके अनुकूल व्यवस्था नहीं दे सकती है, तो वह उससे अलग होना चाहता है. हम अलग होंगे, तो अपना अलग और बेहतर ख्याल रख सकेंगे. उस भावना से अभी दो-तीन स्तर पर काम करने की जरूरत है. पहला, प्रॉपर थिंक-टैंक होना चाहिए.
भारत के शहरों की इकानॉमी या तड़क-भड़क न देख कर, ग्रामीण भारत के विषय में सोचना चाहिए. ग्रामीण क्षेत्र में वो सुविधाएं मिलें, जिससे ग्रामीण आबादी बाहर न जाये. वह गांवों में ही केंद्रित रहे. दूसरी है शिक्षा. भारत के संदर्भ में आज सुपर स्पेशियलिटी के युग में कंप्लीट पिक्चर किसी के पास नहीं है. कुछ ऐसे लोग चाहिए, जिनके पास इसकी पूरी रूपरेखा हो. शिक्षा के क्षेत्र में विशेष ध्यान देने की जरूरत है.
हाल में भोपाल गया था. एक योग कार्यक्रम में. मेरी बारी आयी, तो मैंने एक चुटकुला सुनाया. वहां के योग सिलेबस को देख कर मैंने प्रश्न किया कि यह किसने तैयार किया है? जैसे-तैसे यह सिलेबस तैयार किया गया था. हमने उन्हें कहा कि देश में मान्यताप्राप्त तीन-चार ही योग विद्यालय हैं, उनसे परामर्श लेकर आपको यह सिलेबस तैयार कराना चाहिए था. उत्तर में शिवानंद आश्रम. पूर्व में बिहार स्कूल ऑफ योग. दक्षिण में विवेकानंद केंद्र. पश्चिम में कैवल्यधाम, लोनावाला. सन् 2000 में भारत सरकार ने इन्हीं चार संस्थानों को मान्यता प्रदान की थी.
अब आप इन चारों से कहिए कि मिल कर सिलबेस बना कर आपको दें. हमने उनकी लगभग सभी गलत योजनाओं को काटा. हमने उनसे कहा कि ऐसा काम कीजिए, जिससे बच्चे प्रोत्साहित हो सकें. बच्चों में सकारात्मक गुण आयें. वह बड़ा होकर कहीं जाये, तो अपने साथ संस्कार-चिंतन साथ ले जाये. चाहे वहां वह छोटी जगह या छोटे पद पर ही क्यों न हो?
आपकी सोमनाथ यात्रा और कैलास-मानसरोवर यात्रा के प्रसंग हाल में मैंने पढ़े. एक सामान्य व्यक्ति को जो अनुभव नहीं होता है, वैसे कई अनुभव आपने बताये हैं. क्या इसका यह अर्थ निकलता है कि जो चीजें या जिसके बारे में हमारी संस्कृति में कहा गया है, वे बिल्कुल सत्य हैं?
दस वर्ष पहले तो मैं यह नहीं कह सकता था. लेकिन अब मैं कह सकता हूं. पूरी दृढ़ता के साथ कि यह सौ फीसदी सही है.
इन प्रतीक स्थलों पर जाने से क्या लाभ मिलता है, एक सामान्य आदमी को? गर्मी के दिनों में ठंडी हवा के झोंकों से जो सुख मिलता है, यह उसी तरह का लाभ है, जो चिंता या तनावग्रस्त लोगों को तीर्थों में जाकर मिलता है.
योग विद्या केंद्र में एक विदेशी (बुल्गारियाई या हंगेरियन) लड़की का मैंने एक संस्मरण पढ़ा. काफी मर्मस्पशी और परिवार बिखरने के बाद कैसे मंत्रों के बल सारी चीजें बदल गयीं, इस संदर्भ में मंत्रों में वो क्या शक्ति है? कैसे उनका पाठ किया जाये, ताकि जीवन में परिवर्तन आये या दिखायी दे?
मंत्र, बुद्धि का विषय नहीं है. उदाहरणस्वरूप ऊँ नम: शिवाय. इसका अर्थ होता है, मैं सूर्य को नमस्कार करता हूं. अगर आप सोचते हैं कि मैं शिवजी को नमस्कार करता हूं, तो आपका मन बार-बार नमस्कार में जायेगा. लेकिन विदेशों में तो लोग नहीं जानते कि शिव कौन हैं, नारायण कौन हैं, देवी कौन हैं? वो जब मंत्रोच्चरण करते हैं, तो उनका ध्यान स्पंदन में होता है, शब्दों पर होता है. स्पंदन का वही रूप होता है, जो मरा..मरा.. राम.. राम. का होता है.
क्या मरा..मरा उच्चरण करते समय रत्नाकार सोचते थे कि राम कौन है? या राम क्या है? किसी राजा का नाम मुझसे क्यों लिवाया जा रहा है, तो फिर वे वाल्मीकि बनते? जैसे उन्होंने मरा..मरा.. कह कर राम.राम.. कह डाला, उसी तरह विदेशों में भी ऊँ नम: शिवाय कह कर शिव को प्राप्त कर लेते हैं. जब वो ध्यान लगाते, तो मंत्र द्वारा उत्पन्न ऊर्जा में, स्पंदन में उनका ध्यान जाता है.
भाव में वहीं. अगर हम ध्यान लगायेंगे, तो ऊँ नम: शिवाय का मंत्रोच्चरण करते समय शिव का स्वरूप सामने आने लगता है . इस तरह हमारी भावना, भक्ति में बदल जाती है. यहां मैं नमस्कार करता हूं की श्रद्धा नहीं रहती. विदेशों में इसका शिवजी से कोई संबंध नहीं होता. बस आंखें बाद करके शब्दों पर ध्यान दिया जाता है. इसकी तरंगों पर. इसके स्पंदन में ध्यान किया जाता है. जैसे ही मस्तिष्क की तरंगें बदली, तो शरीर शांत, मन शांत होने लगता है.
मंत्र का असर पड़ता है. मंत्र तो अक्षर है. कुंडलनी योग के अनुसार मंत्र के अक्षर शरीर के विभिन्न नसों-नाड़ियों को संवेदनशील बनाते हैं. मंत्रों से कई गंभीर बीमारियां ठीक हो जाती हैं. शरीर की चंचल तरंगों पर मंत्र का प्रभाव पड़ता है. विश्राम और एकाग्रता आने लगती है. मंत्रोच्चारण के तीन तरीके हैं- उच्चारण करना, बुदबुदाना और मन से कहना. सबसे बेहतर है मानसिक मंत्रोच्चारण करना.
दिनांक – 24.03.13