1982 में संन्यास ले बन गये राधानाथ

-हरिवंश- वहीं शरद ऋतु की एक दोपहर की घटना के बारे में रिचर्ड अपनी आत्मकथा में उल्लेख करते हैं. ‘मैं दर्द से बुरी तरह पीड़ित था, मैं भाग कर झाड़ियों के पीछे शौच के लिए गया. रोग और बुखार से मैं बुरी तरह थक चुका था, तभी मेरी नजर गयी कि एक विशाल सांप मेरी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 15, 2015 12:02 PM
-हरिवंश-

वहीं शरद ऋतु की एक दोपहर की घटना के बारे में रिचर्ड अपनी आत्मकथा में उल्लेख करते हैं. ‘मैं दर्द से बुरी तरह पीड़ित था, मैं भाग कर झाड़ियों के पीछे शौच के लिए गया. रोग और बुखार से मैं बुरी तरह थक चुका था, तभी मेरी नजर गयी कि एक विशाल सांप मेरी ओर रेंग रहा था.
पीले रंग का वह सांप लगभग छह फुट लंबा, दो इंच मोटा और हरे धब्बों से भरा था. इसके त्रिकोणीय सिर से मैं समझ गया कि यह विषैला था. सांप ने अपनी पथरीली निगाहें मुझ पर टिका दीं. फिर रेंगेते हुए मेरे नंगे पैरों पर चढ़ गया और अपने ठंडे शरीर को मेरे पैर पर लिटा दिया. मैंने हिलने की हिम्मत भी नहीं की. सांस रोके मैं सोचने लगा, मृत्यु सर्वाधिक अनपेक्षित क्षण में आ सकती है. क्या मेरी मृत्यु इस लज्जाजनक स्थिति में होगी? रमेश बाबा के विपरीत, जिन्हें मृत्यु से भय नहीं था, मैं अब भी मृत्यु से डर रहा था. जोर से धड़कता मेरा हृदय और चमकता हुआ मन, मुझे दिख रहा था कि भगवान को पूर्णत: समर्पित होने के मार्ग पर मुझे अभी कितना आगे जाना है.’
(साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
सांप के साथ रिचर्ड का यह प्रसंग पढ़ते हुए मुझे पाल ब्रंटन के स्मरण याद आये. पाल ब्रंटन थे तो ब्रिटिश पत्रकार, पर उन्हें अध्यात्म जिज्ञासु या एक अर्थ में संत कहना ही सही होगा. गुलाम भारत में वह (1920-30 के दशक में) भारत आये. जंगलों, पहाड़ों, हिमालय की कंदराओं में घूमे. भारतीय संतों, योगियों, साधकों से मिलने के लिए. अध्यात्म पर उनकी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं. भारत के संतों पर भी. गुप्त भारत की खोज (अंगरेजी से अनुवाद) उनकी बड़ी चर्चित पुस्तकों में से है. उनका महर्षि रमण के आश्रम का एक संस्मरण है.
पाल ब्रंटन, महर्षि रमण के आश्रम में ही दूर एक पथरीली और उबड़-खाबड़ जगह पर बनी एक कुटिया में रह रहे थे. तालाब के निकट, जंगल-झाड़ी से भरी. एक शाम धुंधलके में वह कमरे में घुसे. फुंफकार सुनी. यह फुंफकार किसी सांप की थी. वह चौकी पर चढ़ गये और चिल्लाने लगे. पास से दो-तीन लोग दौड़े. उनमें एक सिर्फ तेलुगु जाननेवाले अत्यंत पहुंचे योगी थे. पाल ब्रंटन चौकी पर खड़े थे. सांप फन निकाल कर पूंछ पर खड़ा होकर उन पर हमला करने की मुद्रा में था कि वह योगी अचानक मेरे कमरे में घुसे. पाल ब्रंटन चिल्लाये. सावधान किया, पर वह योगी रमय्या अविचलित धीरे-धीरे उस सांप की ओर बढ़ते गये. उन्हें पास देख कर सांप फन नीचे कर सिमट गया. उन्होंने उसे उठाया और झाड़ियों में छोड़ दिया.
पाल ब्रंटन स्तब्ध. यह कैसे संभव है. एक विषैला, खतरनाक सांप, जो आक्रामक मुद्रा में बिलकुल फुंफकारता और हमलावर स्थिति में था. कैसे वह इस योगी को देख कर मौन और शांत हो गया?
पाल ब्रंटन, योगी रमय्या से बहुत कुछ पूछना चाहते थे. पर भाषा और संवाद की समस्या थी. पाल ब्रंटन जब भी योगी रमय्या को आश्रम में देखते, उन्हें उनकी आंखों में एक अद्भुत करुणा दिखती. विशाल सागर में डगमगाती नाव पर बैठे इंसान को भी उन आंखों को देख कर सुरक्षा का बोध होता. ब्रह्मांड का बोध होता. पाल ब्रंटन को लगा कि भारतीय अध्यात्म सही कहता है, ‘चींटी,
पशु, पक्षी और इंसान वगैरह सब में एक ही आत्मा है.’
रिचर्ड के अनुभव से, पाल ब्रंटन के संस्मरण से यह साफ होता है कि जगह वही नहीं बनती, जो हम देखते हैं. इसके परे भी है. हमारी काया (शरीर) की सीमा है. इंद्रियों की सीमा है. पर इस सृष्टि और ब्रह्मांड की सीमा कौन देख सका है?
रिचर्ड के मन में विचारों का प्रवाह उठा. पहले जब-जब वह मौत को छूकर निकले थे, वे पल-पल एक -एक कर आंखों के सामने झि ‍ लमिलाने लगे. ‘मैं गंगा के उस प्रबल प्रवाह के विषय में सोचने लगा, जिसमें डूब कर मैं मरने ही वाला था. अभी फिर से वही स्थिति थी. हृदय की पूरी गहराइयों से मैंने धीमे स्वर में जपना आरंभ किया- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। तभी ठीक उसी दिन के समान जब मैं गंगा की लहरों में डूब रहा था, मंत्र की अचिंत्य शक्ति से मैं धीरे-धीरे शांति का अनुभव करने लगा. मुझमें एक वैराग्य जग उठा. मैं अब सांप को एक शत्रु की भांति नहीं, अपितु एक बंधु की भांति देख रहा था.
भगवान की इस नाम की उपस्थिति में सारे भय छितरा गये. मैं आनंदित हो उठा. कई मिनट बीत गये. सांप ने मेरी आंखों में घूरा. फिर धीरे से सिर घुमाते हुए झाड़ियों में घुस गया. लज्जित मैं सोचने लगा कि आज भगवान ने मुझे दिखा दिया कि अध्यात्मिकता के पथ पर मैं कितना छोटा बालक हूं. जब एक बालक खतरे में होता है, तो अपने माता-पिता को पुकारना ही रक्षा का एकमात्र साधन होता है और आज इस छोटे बालक के माता-पिता ने अपने पवित्र नाम के रूप में आकर उसे आश्रय दिया है’
(साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा )
भारत में रहते हुए रिचर्ड को एक वर्ष हो चुके थे. वीजा बढ़ने की समस्या थी. रिचर्ड बड़ी कठिन मुसीबत में फंसे. अत्यंत पीड़ादायक अनुभव से गुजरे. इसी बीच एक रात उन्हें एक पागल जानवर (कुत्ता या सियार) ने काट लिया. उन्हें रेबीज का खतरा हो गया. वहां बड़ी पुरानी व्यवस्था थी.
मोटी सुई को डॉक्टर ने रेती से घिसा. बड़ी क्रूरता से सुई दी. सुई अंदर पेट में नहीं घुस रही थी. बहुत कठोरता से सुई घोंपी गयी. रिचर्ड लगभग मूर्छित. पेट में असहनीय दर्द. हरे और नीले रंग की सूजन. पर फिर भी लगातार सुई के डोज पड़ते रहे. यह वेदना मौत से होकर गुजरने जैसी ही थी. उन्हीं दिनों (जो नवंबर के अंतिम दिन थे), सर्दी की एक रात यमुना तट पर कदंब पेड़ के नीचे बैठे रिचर्ड, जीवन का मर्म तलाश रहे थे. कहते हैं, ‘यादों की किरणों, नदी की लहरों पर चमचमा रही थीं. वहां बैठे-बैठे अब तक के जीवन दृश्य, चलचित्र के समान उनके सामने घूम गये.
उन्हें हिमालय में मिले ऋषियों, योगियों, तपस्वियों, सिद्धों और लामाओं का स्मरण हुआ, जिनसे रिचर्ड ने आतुरता से ज्ञान सीखा. उन्हें पटना में मिले रामसेवक स्वामी की बात याद आयी कि यह युवक कृष्णभक्त हैं और वृंदावन इसकी आराध्य भूमि होगी. तब रिचर्ड को यह सही नहीं लगा था. उन्हें पांच माह हो गये. कहते हैं, मेरे अंदर संपूर्ण समर्पण की भावना जाग गयी थी और मैंने अंतत: श्रीकृष्ण भक्ति को अपने अध्यात्मिक मार्ग के रूप में स्वीकार कर लिया.. वृंदावन की यह ठंडी मिट्टी का नदी तट मुझे अपने देश में बनी राजसी हवेलियों से कई गुणा अधिक प्रिय है.’ (साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
रिचर्ड वृंदावन में ही अपने जीवन में आये उस मोड़ को याद करते हैं, जब श्रील प्रभुपाद पूरी दुनिया में वृंदावन के राजदूत बन कर अपनी यात्रा से फिर वहीं लौट रहे थे. श्रील प्रभुपाद ने 1959 में संन्यास लिया. 69 वर्ष की उम्र में. 1965 में वह वृंदावन से अपना मिशन पूरा करने निकल पड़े.
उनके पास था, एक मुफ्त समुद्री जहाज का टिकट और अदद चालीस रुपये. वे अमेरिका जा रहे एक मालवाहक जहाज ‘जलदूत’ में सवार हुए. समुद्री यात्रा में ही उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा. यात्रा में ही अपना सत्तरवां जन्मदिन भी मनाया. बोस्टन होते हुए वह न्यूयार्क पहुंचे. उन्होंने हिप्पी आंदोलन के गंभीर जिज्ञासुओं को अपनी ओर खींचा. रिचर्ड कहते हैं, वह पांच फुट पांच इंच के थे.
कद में छोटे, पर उनकी उपस्थिति बहुत प्रबल थी.
उनके प्रवचनों ने रिचर्ड को गहराई से प्रभावित किया था. एक दिन रिचर्ड से उनकी बातचीत हुई. उस मुलाकात के बाद उन्हें लगा कि उन्हें (रिचर्ड को) एक शाश्वत मित्र, कृपालु पिता और भगवान का प्रेम प्राप्त हुआ. अमरीका में हिप्पी आंदोलन के जो हीरो रहे. एलन गिंसबर्ग, टीमोथी लीयरी और केन कैसे जैसे हिप्पी हीरो वहां आये थे. बहुत बाद में श्रील प्रभुपाद ने टिप्पणी भी की, मैंने हिप्पियों को हैपी बना दिया.
श्रील प्रभुपाद का जीवन भी प्रभावित करता है. कैसे, अकेले ढलती उम्र में श्रील प्रभुपाद अध्यात्म में उतरे? अकेले अमेरिका गये. विश्वभर के हिप्पियों के घर ‘हेट स्परी’ में रहे. उन नशेड़ियों, मादक पदार्थ विक्रेताओं, पर्यटकों, जीवन का अर्थ ढ़ूंढनेवाली बेचैन पीढ़ी को, चमचमाती हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिलों को ऊपर-नीचे दौड़ाते हेल्स एंजिल्स गैंग से भरी जगह पर या इनके बीच रह कर वृंदावन के श्रील प्रभुपाद ने चमत्कार किया. उन्होंने बीट्ल्स (1960 के दशक में दुनिया के सर्वाधिक मशहूर संगीत बैंड) के अग्रणी लोगों का दिल जीता. घर से दस हजार मील दूर बैठे रिचर्ड को श्रील प्रभुपाद के व्यक्तित्व ने स्पर्श किया.
इस तरह श्रील प्रभुपाद की बातों और चेतना ने रिचर्ड को एक नयी दृष्टि दी. वह कहते हैं, ‘एक भूकंप की भांति इनके शब्दों ने मेरे संसार को झकझोर दिया. मैंने सोचा, यह सिद्धांत क्रांतिकारी है.’ एक शाम एक टीले पर बैठे (जिसके शिखर पर प्राचीन मदन मोहन मंदिर है) बहती यमुना के सामने श्रील प्रभुपाद की वह प्रार्थना पढ़ रहे थे. यह प्रार्थना उस समय लिखी गयी, जब उनकी विदेश यात्रा हो रही थी.
इस यात्रा के समय वे सत्तर वर्ष के थे और उन्हें दिल के दो दौरे पड़े. उनके पास केवल चालीस रुपये थे और भारत के बाहर वे किसी को भी नहीं जानते थे. तीस दिन की समुद्री यात्रा के बाद वह बोस्टन, अमेरिका पहुंचे, जहां उन्होंने श्रीकृष्ण को एक निजी प्रार्थना लिखी. अनेक वर्षो के पश्चात उनके अनुयायियों ने उस प्रार्थना को एक पुराने संदूक में पाया. सचमुच वह प्रार्थना मर्मस्पर्शी है.
इस तरह वृंदावन में रहते हुए उन्हें अनेक अध्यात्मिक अनुभव हुए. वृंदावन उनका घर हो गया. वह एक जगह लिखते हैं, ‘मैंने अतीत में हुए सुख-दुख, मान-अपमान, हार-जीत के समय को देखा और पाया कि कैसे वे सभी मुझे उस मार्ग पर आगे लेकर आये थे. मुझे कैलास बाबा जैसे लोग स्मरण हो आये, जिन्होंने मुझे स्नेह से सराबोर कर दिया था. इस्तांबुल के हमलावर लोग व अन्य लोग भी, जो मुझसे घृणा कर रहे थे, वे सभी एक सुनियोजित योजना के ही भाग थे. जिस तरह नदी का जल अंतत: सागर में स्थान पाता है, उसी प्रकार मेरे जीवन की पुकार, अंतत: मुझे मेरे कृष्ण और मेरे प्रिय गुरु के चरणों तक ले आयी. कृतज्ञता और आंसुओं के साथ मैंने भगवान को याद करते हुए अनुभव किया, ‘मैं यहीं हूं. मैं तुम्हें यहां लाया हूं और ये हैं, तुम्हारे गुरु.’
रिचर्ड गुरु की तलाश में बहुत भटके. उन्हें अलग-अलग एहसास और अनुभूति हुई. अत्यंत रोमांचक. मौत को स्पर्श करनेवाले अनुभवों से गुजरते हुए उन्होंने अनुभव किया कि ‘यमुना की लहरों में अपने मन की आंखों से खोजते हुए मैंने गेट्टिसबर्ग की नदी, लक्जमबर्ग के झरने, एमस्टर्डम की लहरें, लंदन की थेम्स, रोम के केबर और हिमालय की सुंदर गंगा को देखा. उनमें से प्रत्येक ने संकट भरे मोड़ पर आवश्यकताओं की घड़ियों में मुझसे बातें की थीं.’
रिचर्ड तय कर चुके थे कि अब मुझे वृंदावन में ही रहना है. श्रील प्रभुपाद को वृंदावन से गये चार महीने हो गये थे. रिचर्ड शांत वनों में साधना में डूबे थे. कुछ समय लोगों से मिलते. उन मंदिरों-संतों के पास जाते, जिनसे उन्हें प्रेम हो गया था. उन्हें लगा कि उस बात को वर्षों बीत गये हैं, जब हिमालय की ओर जाते हुए रहस्यमय तरीके से जन्माष्टमी के दिन मैं वृंदावन पहुंच गया था. ‘मैं जिसके लिए लालायित था. मेरा अध्यात्मिक मार्ग और प्रिय गुरु, दोनों मुझे यहां मिल गये.’ पर वीजा खत्म हो रहा था. वृंदावन छूटना था. वृंदावन छोड़ने के एक दिन पहले रिचर्ड गोवर्धन पर्वत गये. उन जगहों पर घूमे, जो उन्हें सर्वाधिक प्रिय थे.
सभी प्रिय जगहों की धूल एकत्र कर छोटी थैली में बांध ली, ताकि नियति में जहां भी जाना लिखा था, वहां वृंदावन साथ रहे. उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहा, नियति मुझे जहां भी ले जाये, कृपया मुझे अनुमति दीजिए कि मैं आपको सदैव अपने हृदय में संजो कर रखूं. उस रात यमुना के तट पर तारों के प्रकाश के नीचे बैठ कर जप करते रहे. चले, तो साथ में वृंदावन का अपना प्रिय भोजन, ब्रज की रोटी और गुड़ बांध लिया. छोड़ते समय उनकी आंखों से आंसू बहने लगे. उन्हें लगा कि यह वही स्थान है, जहां श्रीकृष्ण ने मेरी सारी प्रार्थनाओं का उत्तर दिया था. फिर वह काठमांडू गये. वहां एक सप्ताह निर्जन वन में पहाड़ की एक गुफा में रहे. सूर्योदय से सूर्यास्त तक साधना करते.
फिर वहां से निकले तो अचानक अपने प्रिय मित्र गैरी से मुलाकात हुई. जिनसे वर्षों पहले उन्होंने हरिद्वार में मिलने का तय किया था. यह नियति थी या संयोग कौन जानता है? बचपन के मित्र गैरी ने पूछा, अब तुम क्या हो? मॉन्क या रिचर्ड? जवाब दिया, लोग अब मुझे कृष्णदास कहते हैं. दोनों ने मिल कर अपने बचपने के अब तक के दिनों, गिरजाघरों में तथा ध्यान के लिए गुजारे समय, गुफा और पर्वतों के दिन स्मरण किये. स्मरण किया कि कैसे क्रीट की एक गुफा से भारत जाने की पुकार आयी.
रिचर्ड या कृष्णदास, एयर इंडिया से बेल्जियम के लिए उड़े. वह बदल गये थे. साधु की वेशभूषा थी. सामान के नाम पर कपड़े की एक थैली. लोहे का एक भिक्षापात्र. विदेशी पर्यटकों के बीच अजूबा और अचरज भरा दृश्य. फिर बेल्जियम से हिचहाइक कर वह हालैंड में अपने पुराने मित्रों से मिलने गये. फिर महसूस किया कि मैं कितना बदल गया हूं? एमस्टर्डम में वह मूंगफली और दही खाकर रहे. क्योंकि वह शाकाहारी हो चुके थे. एमस्टर्डम में ही उन्हें दिलचस्प अनुभव हुए. संयोग से एक कृष्णभक्त का भी मकान मिला. वहां से वह लंदन गये.
लंदन से न्यूयार्क. न्यूयार्क एयरपोर्ट पर उन्हें कस्टम के बड़े अफसरों ने पकड़ लिया. क्योंकि वह अफगानिस्तान-पाकिस्तान होकर भारत गये थे. अमेरिकी कस्टम अफसरों ने कहा कि वह (रिचर्ड या कृष्णदास) अवैध नशीले पदार्थो की तस्करी करने के आरोप में पकड़े जा रहे हैं. कृष्णदास (रिचर्ड) को यह भी प्रस्ताव मिला कि स्वेच्छा से समर्पण करो, तो सजा कम हो जायेगी. कृष्णदास बदल चुके थे. उन्होंने शालीनता से कहा, मेरे पास कुछ भी नहीं है. अफसरों ने सख्ती बरती. पूरे सामान की छानबीन हुई. दावन की धूल की पोटली या थैली देख कर अफसर खुश हुए. उन्हें लगा कि यह नशीले पदार्थ की पोटली है. पूछा, क्या है यह? बताया गया कि यह पवित्र स्थल की धूल है. फिर तलाशी शुरू हुई.
कौपीन की गांठ देख कर कहा, इसमें माल छिपा है. उन्होंने कौपीन छोड़ कर सब वस्त्र उतार दिये. उनके बदरंग कौपीन की भी तलाशी हुई. अंतत: कुछ मिला नहीं. अमेरिकी कस्टम अफसरों ने क्षमा मांगी. कहा, असुविधा के लिए खेद है. आप यह समझें कि अमेरिका की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है. उन्होंने पासपोर्ट लौटाया और कस्टम दरवाजे तक छोड़ने भी आये. यह पढ़ते हुए सोचा कि अगर भारत में ऐसा होता, तो क्या होता? क्या हमारे अफसर यह भूल स्वीकार करते? या अपने अहं के तहत झूठे मुकदमे लादते?
अब रिचर्ड न्यूयार्क की धरती पर थे. वह कहते हैं, ‘जब मैंने घर छोड़ा, एक किशोर छात्र था. गर्मियों की छुट्टियां बिताने यूरोप जा रहा था और अब दो वर्ष बाद मैं एक प्राचीन अध्यात्मिक पथ का अनुगमन करनेवाले साधु के रूप में लौट रहा था. मेरे पास एक पुराने सूती थैले और धातु के भिक्षापात्र के अलावा कुछ भी नहीं था. घर के लोगों ने देखा, तो वे भावविह्वल हो गये.
पर वह घर पर बहुत दिन रहे नहीं. अमेरिका के एक आश्रम में रहने लगे. साधना और तप में रत. कृष्णदास (रिचर्ड) कहते हैं, ‘आगामी छह वर्षो तक मैं एक निर्जन पर्वत पर तपस्या के लिए आश्रम में रहा, जहां तक पहुंचने के लिए जंगल के बीच से कीचड़ भरा तीन मील लंबा मार्ग तय करना पड़ता था. सर्दियों में चारों ओर बर्फ जमी रहती थी और हमारे पास रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी.
स्नान के लिए हम पत्थर से बर्फ की सतह तोड़ते और बर्फीले पानी में डुबकी लगाते. शौच के लिए हम बेलचा लेकर पहाड़ से नीचे उतरते और गड्ढा खोद कर मल उसमें दबा देते. इस स्थान पर मैंने स्वयं को घनश्याम बाबा जैसे जीते पाया. दिन-रात भगवान के विग्रहों की सेवा, अध्यात्मिक अनुशासन का कठोरता से पालन करने का प्रयास और गायों की सेवा.’ (साभार : अनोखा सफर-एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
इसके बार रिचर्ड को लगा अपने अनुभव दूसरों से साझा करूं. फिर आगामी आठ वर्षों तक उन्होंने ओहियो और पश्चिमी पेन्सिलवेनिया के महाविद्यालयों और विद्यालयों में व्याख्याता के रूप में काम किया. दर्शन, धर्म, समाजशास्त्र, अंत:धार्मिकता, भगवद्गीता और शाकाहारी पाक कलाओं की शिक्षा दी.
1982 में संन्यास आश्रम स्वीकार करने का प्रबल आग्रह आया. रिचर्ड ने संन्यास लिया. फिर उनका नाम राधानाथ स्वामी हुआ. 11 वर्षों बाद 1983 में वह भारत आये. कहते हैं, ‘मैं लंदन से नयी दिल्ली की उस यात्रा को, जिसे मैंने हिचहाइक कर छह महीने में पूरा किया था, इस बार विमान से नौ घंटे से भी कम समय में पहुंचा.’ राधानाथ स्वामी जी वृंदावन गये. उन संतों से मिलने, जिन्होंने उनका जीवन बदल दिया था.
बड़ा मार्मिक वर्णन हैं, पुराने संतों से मिलने का. फिर वह अमेरिका लौटे, तो दशकों बाद अपने प्रिय मित्र गैरी को खोज कर उनसे मिले. पर इन सबके बीच युवक रिचर्ड के वे शब्द राधानाथ स्वामी को याद थे, जो उन्होंने भारत में प्रवेश करते समय दिये थे. एक सिख इमिग्रेशन अफसर को. वह कहते हैं, ‘भारत की सीमा पर एक धनहीन, हताश युवक था. मैंने वचन दिया था, एक दिन आपके लोगों के लिए (भारतीयों के लिए) कुछ अच्छा करूंगा.’ 1986 से स्वामी जी भारत में रहने लगे. मुंबई के मध्य भाग में, जहां उन्होंने मंदिर और आश्रम बनवाया. इस मंदिर और आश्रम में शुद्ध जीवन शैली सिखायी जाती है. अध्यात्मिक शिक्षा दी जाती है. एक अस्पताल की स्थापना भी हुई, जहां शरीर, मन और आत्मा के बेहतर उपचार के लिए आधुनिक और परंपरागत ढंग से उपचार होता है.
नि:शुल्क चिकित्सा शिविरों का आयोजन होता है. आंतकवादी हमलों, भूकंप और सूनामी में पीड़ितों की सेवा के लिए बड़े काम होते हैं. हर साल वृंदावन में नेत्र शिविर का आयोजन होता है, जिसमें छह-सात सौ नि:शुल्क ऑपरेशन होते हैं. ऐसे विद्यालय विकसित हुए हैं, जहां शैक्षणिक, नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा दी जाती है.
साथ ही गरीब बच्चों के लिए अनाथालय, गो-रक्षा, पर्यावरण के अनुकूल खेती पर भी कार्यक्रम चलाये जाते हैं. गरीब बस्तियों के डेढ़ लाख कुपोषित बच्चों को दोपहर का पौष्टिक भोजन दिया जाता है. रोज बढ़ती कटुता और द्वेष के बीच अनेक प्राथमिक और उच्च विद्यालयों में हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध और पारसी पंथों के छात्रों को एक साथ बिठा कर नैतिक शिक्षा के पाठ्यक्रम पढ़ाये जाते हैं. इस क्षेत्र के लगभग तीस विश्वविद्यालयों में साप्ताहिक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं.
1989 में राधानाथ स्वामी के पिता और मां भी भारत आये. भारत के लिए उनकी असीम श्रद्धा और प्रेम देख कर वे अभिभूत हो गये. 2003 में स्वामी जी की मां का शिकागो में निधन हुआ. वह उनकी अस्थियों को भारत लाये और दो हजार भक्तों के बीच गंगा में विसर्जित किया. उन्हें याद आया कि 33 वर्ष पहले उन्होंने गंगा को अपनी मां माना था. वह कहते हैं. अस्थियां बहते जल में विलीन होने लगीं और अश्रुपूरित नैनों से मैंने प्रार्थना की, ‘आज मेरे शरीर को जन्म देनेवाली माता और अध्यात्मिक जन्म देनेवाली माता का मिलन हो गया है.’
स्वामी राधानाथ जी भारत में जैसा कार्य कर रहे हैं, वह अद्भुत है. एक विदेशी धरती पर रिचर्ड के रूप में अमेरिका में जन्मे स्वामी राधानाथ, अपनी तप, साधना और जीवन यात्रा में जिन अनुभवों से गुजरे, वे मानव समुदाय की धरोहर हैं. आज की बेचैन युवा पीढ़ी या बेचैन समाज के लिए पथ-प्रदर्शक. एक नये मानवीय समाज के बनने की संभावनाओं से भरपूर. आज दुनिया में जो नैतिक और सामाजिक संकट हैं, उनके उत्तर स्वामी जी के अनुभवों में हैं. यह विलक्षण आत्मज्ञान है. हर एक को बहुत कुछ सीखने की प्रेरणा देनेवाला है. जीवन बदल देनेवाला है.
स्वामी राधानाथ अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहते थे. इसके पीछे भी एक मार्मिक कथा है. एक बार वर्ष 2005 में उनके आजीवन मित्र रहे श्री भक्ति तीर्थ स्वामी ने उन्हें बुलाया. वे मृत्यु के कगार पर थे. उनकी इच्छा थी कि वह (रिचर्ड) उनके साथ रहें. भक्ति तीर्थ स्वामी, अश्वेत अमेरिकी थे, जो क्लू लैंड की बस्तियों से निकल कर एक विश्वस्तरीय अध्यात्मिक शिक्षक बने. उनके प्रसंशकों में नेल्सन मंडेला, मोहम्मद अली और एलिन बोल्ट्रेन भी थे. वह कैंसर की अंतिम अवस्था में थे. रहस्य और चमत्कारों के विषय में बतियाते. भक्तिशास्त्रों की कथाओं का आनंद लेते.
भक्ति तीर्थ स्वामी, नोमा कैंसर से पीड़ित थे. उनकी इच्छा थी कि मैं तुम्हारी (रिचर्ड की) बाहों में शरीर छोड़ना चाहता हूं. स्वामी राधानाथ जी लिखते हैं, ‘मुझे भक्ति तीर्थ स्वामी से बेहतर कोई नहीं जानता था. वे मेरे इस सफर की सब बातें जानते थे. यह भी जानते थे कि उन वृत्तांतों को लिखने के लिए मैं हिचकिचा रहा हूं. एक दिन भक्ति तीर्थ स्वामी ने मेरे हाथ थाम लिये और मेरी आंखों में झांकते हुए कहा, यह तुम्हारी कथा नहीं है.
यह भगवान द्वारा ऐसे युवक के पथप्रदर्शन की कथा है, जो अपने हृदय में छिपे आर्थिक रहस्यों की गवेषणा कर रहा था. ऐसे रहस्य, जो हम सबके अंदर छिपे है. कृपण मत बनो. तुम्हें जो प्राप्त हुआ है, उसे सबके साथ बांटो. उनकी आवाज भर गयी और एक आंसू उनके गाल पर टपक पड़ा. उन्होंने कहा मुझे मेरी मृत्युशय्या पर वचन दो कि तुम इस कथा को लिखोगे. यह पुस्तक उनकी अभिलाषा पूरी करने के लिए स्वामी जी ने लिखी और यह मानव समुदाय की धरोहर है.
दिनांक : 26.02.13

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