खुले आसमान के नीचे सुविधाविहीन जीवन.
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जाना था अमरनाथ, पहुंच गये वृंदावन
-हरिवंश- सृष्टि के शुरू से ही शायद मनुष्य की सबसे बड़ी तलाश रही है, एक दिन वह जंगल की पगडंडी से गुजर रहे थे कि एक आदमी आया. उसने कहा, तुम मुझे नहीं पहचानते, पर मुझे तुम्हारे पास आने के लिए भेजा गया है. पास के ही एक गुफा में एक महान संत रहते हैं. […]
-हरिवंश-
सृष्टि के शुरू से ही शायद मनुष्य की सबसे बड़ी तलाश रही है, एक दिन वह जंगल की पगडंडी से गुजर रहे थे कि एक आदमी आया. उसने कहा, तुम मुझे नहीं पहचानते, पर मुझे तुम्हारे पास आने के लिए भेजा गया है. पास के ही एक गुफा में एक महान संत रहते हैं.
मेरा मिशन तुम्हें उन तक पहुंचाना है. वहीं रिचर्ड की मुलाकात टाटवाले बाबा से हुई. एक अत्यंत मशहूर योगी और संत. सिर्फ जंगली जड़ी-बूटी और फलों पर ही जिन्होंने कई दशकों तक साधना की. पूरी रात बिना हिले बैठ कर साधना में डूबे संत. रिचर्ड जब भारत आये, तो उनकी अभिलाषा थी, भारत के सही संतों से मिलने की और पवित्र धामों की यात्रा करने की. टाटवाले बाबा के साथ हुए अनुभवों के बारे में स्वामी राधानाथ जी ने लिखा है, उनके सान्निध्य में ध्यान करते हुए मुझे शब्दातीत अनुभव प्राप्त हुए.
अंतत: जब मैं अपने विचार उन्हें बताने गया, वे मेरे बारे में पहले से ही अवगत थे. इससे पहले कि मैं अपना मुंह खोलता, उन्होंने वे शब्द कह दिये, जिन्हें कहने की मैं योजना बना रहा था. सौम्यता से उन्होंने मेरी आंखों में देखा और अपना हाथ उठा दिया. जाओ भगवान तुम्हारी सहायता करे. ओउ्म तत् सत्. ‘ (साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
हे भगवान! कोई है, जो मुझे आप तक पहुंचने का मार्ग दिखा दे.
फिर रिचर्ड ऋषिकेश से आगे, उत्तर हिमालय में और ऊंचाई पर भागीरथी और अलकनंदा के संगम पर पहुंचे. इस संगम के बाद ही गंगा, गंगा कहलाती हैं. वह नहाने उतरे. तेज प्रवाह था. बहने लगे कि एक बलशाली इंसान ने उन्हें पकड़ा और तट तक पहुंचाया. फिर उस रक्षक ने रिचर्ड के सिर पर दाहिनी हथेली रखी और मंत्रों का सुंदर पाठ किया. रिचर्ड की यह पहली मुलाकात थी, कैलास बाबा से. उनकी संपत्ति थी एक त्रिशूल, जिसमें एक बड़ा डमरू बंधा था. लोहे का एक भिक्षापात्र और एक पुराना कंबल. कैलास बाबा के साथ रिचर्ड यायावर हो गये.
वह कहते हैं, ठंडी रातों में नदी को निहारते-परखते हम पहाड़ों के किनारे सो जाते. वह एकमात्र कंबल बाबा रिचर्ड को ओढ़ा देते थे. जंगल के कंद-मूल, फल और पत्ते ही उनके भोजन और औषधि थे. उन्होंने भिक्षा मांगना सिखाया. रिचर्ड कहते हैं कि उन्होंने कठोर तपस्या सीखी. कहते हैं, कैलास बाबा हमारे पिता तुल्य बन गये. मानो मैं उनका एकमात्र पुत्र हूं. वह कहते हैं कि हमने कभी बात नहीं की. क्योंकि भाषा की समस्या थी. पर जहां हृदय में परस्पर स्नेह-संवाद है, वहां भावनाओं की अभिव्यक्ति भाषा की सभी सीमा लांघ जाती है.
जो भी सादा भोजन मिलता, बाबा पहले रिचर्ड को भरपेट खिलाते, फिर खाते. बाबा से रिचर्ड ने और बहुत कुछ सीखा. नीम की दातून से दांत मांजना और नदी की मिट्टी से शरीर को रगड़ कर नहाना. खाने और स्वच्छ रहने की शिक्षाओं के अतिरिक्त उन्होंने मुझे न केवल पवित्र नदियों, मंदिरों, वृक्षों, सूर्य, चंद्र और यज्ञाग्नि का, अपितु सांप, बिच्छू एवं सभी जंगली जानवरों का भी आदर करना सिखाया. रिचर्ड कहते हैं, वे अंग्रेजी नहीं बोलते थे, लेकिन उनमें अपने विचार मुझ तक संप्रेषित करने की एक जादुई शक्ति थी.
विशेषत: यह विचार कि भगवान सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं. उदाहरणत: उन्होंने मुझे एक विषैले सांप के हृदय में स्थित आत्मा को देखने और उसे चले जाने का रास्ता देकर उसका सम्मान सिखाया. एक दिन रिचर्ड को लगा कैलास बाबा अब एकांत चाहते हैं. बिछुड़ने के समय रिचर्ड कहते हैं कि उनकी कोमलता और विरक्ति की दृढ़ता ने मुझे छू लिया. हम एक दूसरे को एक पिता और एक पुत्र के समान प्रेम करते थे. किंतु हम समझ गये कि विचरते साधु होने के कारण हम अब कभी नहीं मिल पायेंगे.
इसके बाद के अनुभव पत्र के रूप में वह अपने घर लिखते हैं. अध्यात्म या तप-त्याग या साधना के दौरान रिचर्ड ने अपने घर के नाम जो भी पत्र लिखे, वे अलग मार्मिक दस्तावेज हैं. जीवन का अर्थ जानने के लिए. जीवन का मकसद पहचानने के लिए. उनकी जीवन शैली बदल चुकी थी. त्वचा शुष्क और कठोर, होंठ फट गये थे. बाल उलझ कर जटाएं बन गयी थीं. साधुओं का एक जोड़ा कपड़ा पास में. नदियों, झरनों, तालाबों और मटमैले पानी में धोने के कारण कपड़े भी मटमैले. पैर मिट्टी में भूरे हो चुके थे. एड़ियों में बेवाई फट गयी थी. साधुओं का यह जीवन उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहा था. इसी दौरान देवप्रयाग में उन्हें एक अद्भुत योगी मिले. अचानक जंगल से आये.
योग के बल निष्प्राण बन कर साबित किया, फिर जीवित हो उठा. अनेक डॉक्टरों एवं जानकारों ने परीक्षण किया. सच पाया. तब तक रिचर्ड योगानंद परमहंस की प्रसिद्ध पुस्तक योगी कथावृत्त पढ़ चुके थे. भारतीय योगियों-साधकों को जान चुके थे. वहीं उन्हें मां आनंदमयी से मिलने का भी मौका मिला. वहां उन्होंने पाया कि औरतों से दूर रहनेवाले वैरागी, स्वामी, बड़े योगी भी उनके चरणों में बैठ कर आशीर्वाद की अभिलाषा कर रहे थे.
रिचर्ड ने कठिन जीवन चुना था. आरामदेह अमेरिकी जीवन शैली और सुख-मोह छोड़ कर. बिना गर्म कपड़ों के कड़ाके की ठंड को सहना. नदी के तट पर रहना. जंगल या गुफाओं या खाली मैदान में सोना-जागना. अकेले रहना. साधना, ध्यान और तप में मगन. लगातार कीड़ों, पशुओं और जंगली जानवरों के बीच जीना. बीमारी में भी कोई मददगार नहीं. सिर्फ नदी का साथ. सबसे अधिक बोझिल अकेलापन. पर रिचर्ड का संकल्प रत्ती भर नहीं डिगा. साधुओं की घाटी के रूप में मशहूर उत्तरकाशी वह पहुंचे. एक पर्वत की ऊंचाई पर रहने के लिए एक गुफा मिली.
वह वहीं रहने लगे. वहां उन्हें एक और रमते साधु बालशिवयोगी से भेंट हुई. एक दिन हिमालय की एक निर्जन पगडंडी पर वह बैठे थे कि बीस लोगों का एक झुंड पहुंचा. उनके हाथों में लोहे के त्रिशूल थे. त्रिशूलों के ऊपर मानव खोपड़ियों का मुकुट. सिरों पर भारी जटाएं, दाढ़ियों में गांठ. जटा और पूरी देह भस्म की मोटी परत से ढकी. गले में रुद्राक्ष की माला. माथे पर त्रिपुंड. ठिठुरती सर्दी में भी महज कौपीन पहने.
ये लोग नागा साधु थे. रिचर्ड की उत्सुकता हुई कि वह इनके साथ रह कर कुछ सीखें. अंगरेजी जाननेवाले एक नागा से उन्होंने पूछा. आपसी परामर्श के बाद जय शंकर की चीत्कार के साथ उन्होंने सहमति दी. नागा साधुओं के साथ रिचर्ड के अनुभव पग-पग पर स्तब्ध करते हैं. एक नये संसार, एक नये परिवेश का बोध कराते हैं. नागाओं ने गांजे से भरा चिलम लिया. प्रसाद के तौर पर. यह महाप्रसाद इंकार करना खतरनाक था. पर रिचर्ड ने कहा, मैंने आजीवन नशा नहीं करने की प्रतिज्ञा की है. नागाओं का पद्मासन करना, धरती से एक फुट ऊपर उठना, हवा में तैरना. रिचर्ड कहते हैं कि इन साधुओं लिए आम बात थी.
याद रखिए, रिचर्ड अमेरिकी दृष्टि के इंसान. वैज्ञानिक सोच-समझ वाले. तार्किक और पश्चिमी मानस लिये, जो किसी भी बात पर, कहीं भी कुछ यकीन नहीं करता. नागा समुदाय के प्रमुख गुरु से रिचर्ड की मुलाकात और उनका वर्णन अत्यंत रोचक और भारतीय अध्यात्म की ऊंचाई की झलक है.
अब रिचर्ड हिमालय से नीचे उतर कर मैदानी इलाकों में जा रहे थे. हिमालय में ही स्वामी चिदानंद ने एक शाम रिचर्ड के अतीत और भविष्य की सारी बात कह दी थी. वह स्तब्ध रह गये.
हिमालय से बहुत कुछ सीख कर वह भारत के मैदानी इलाकों में उतर रहे थे. हिमालय में उन्हें अपने जीवन का नया अर्थ मिला, इसने जीवन को संपन्न बनाया, इसका बड़ा मार्मिक उल्लेख उन्होंने किया है. वह आगरा होते हुए बनारस की ओर निकल पड़े. आगरे में ताजमहल देखने उतरे. रिचर्ड का इतिहास बोध अद्भुत है. उन्होंने लिखा है कि 22 वर्षों के कड़े परिश्रम के बाद बीस हजार कारीगरों-मजदूरों के श्रम का परिणाम था, 1648 में ताजमहल का निर्माण.
पर क्या हश्र हुआ? आगे चल कर उस राजा के एक पुत्र ने राज हड़प लिया. अपने भाइयों को या तो मार दिया या देशनिकाला दे दिया. अपने पिता को जेल में डाल दिया. रिचर्ड के मन में वहां बैठे-बैठे सवाल उठा, भव्य महलों-किलों, मस्जिदों और ताजमहल का निर्माण करानेवाले इस राजा को उसके ही लड़के ने बंदी बना दिया. जेल के अंदर बादशाह अनेक यातनाएं सहता रहा. बाहर उसके परिजन एक दूसरे को मारने-काटने में लगे थे.
लोग समझते है बादशाहों की जिंदगी बड़ी सुखी रही होगी, पर उसका कितना सही सच रिचर्ड के मन को छू गया. फिर वह कहते हैं, अपने हृदय की ईर्ष्या, काम और लोभ पर विजय पाना ही सच्चा स्मारक है.
ट्रेन में तीसरी श्रेणी से भटकते-घूमते वह बनारस पहुंचे. मणिकर्णिका घाट के दृश्य ने उन्हें विचलित किया. पूरब के संसार का यह उनके लिए एक नया ज्ञान था. उन्होंने तय किया कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक मणिकर्णिका श्मशान पर मृत्यु के अटल सत्य पर चिंतन करूंगा. नदी के किनारे या पेड़ों के नीचे सोना, सस्ता भोजना, भिक्षा मांग कर खाना, यही उनकी जीवनशैली थी.
ऋषिकेश से मिले कपड़े, बदरंग और जर्जर हो चुके थे. बाल लंबे. साथ में संपत्ति थी, लकड़ी का एक भिक्षापात्र, एक लाठी और पुस्तकों से भरा एक थैला. और अंतिम बची धनराशि से दिल्ली में खरीदा गया एक धार्मिक चित्र. पर रिचर्ड के अंदर कुछ था, जो उन्हें जीवन के विद्यालय में एक जिज्ञासु विद्यार्थी के रूप में सीखने को प्रेरित कर रहा था. फिर ट्रेन से या कभी ट्रक से 250 मील चल कर वह नेपाल के काठमांडू पहुंचे.
अगले दिन पशुपतिनाथ से दो सौ मील चल कर वह बोध गया आये. बुद्ध को हुए ज्ञान की धरती पर. ज्ञान पाने. बोध गया में उनकी दिनचर्या थी, बोधि वृक्ष के नीचे बैठ कर हर दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करना. ध्यान लगाना. उसी पावन धरती पर ध्यान के दौरान उन्हें लगा कि कोई ओजस्वी शक्ति, शरीर और मन से अलग कर उन्हें अंतरिक्ष में ले जा रही है.
कुछ गुरु ओं के उन्हें कटु अनुभव भी हुए. वहां से रिचर्ड मदर टेरेसा से मिलने कोलकाता गये. मदर से उनकी मुलाकात भी मर्मस्पर्शी अनुभव है. मदर ने उन्हें कहा, अगर आप विनम्र हैं, तो कुछ भी आपको स्पर्श नहीं कर पायेगा. न मान, न अपमान. क्योंकि आप जानते हैं कि आप कौन हैं? वहां से वह बंबई पहुंचे, ढाई दिनों में रेल से.
वहां क्रास मैदान में एक अध्यात्मिक महोत्सव का विज्ञापन देखा. उन्हें दिल्ली में मिली बांसुरी बजा रहे नीले बालक की तस्वीर बीच-बीच में बार-बार आकर्षित करती रही, पर अब तक वह जान न सके थे कि यह कौन है? जब वह क्रास मैदान पहुंचे, तो एक पुस्तक के कवर पर वह इसी तस्वीर को देख कर चौंक गये. वहां पहली बार उस तस्वीर का रहस्य जाना, जो पिछले कई महीनों से उनके दिल में था. पहली बार श्रीकृष्ण का नाम पढ़ा.
पुस्तक पर. वह अंग्रेजी की पुस्तक पढ़ रहे थे कि अचानक एक व्यक्ति ने उनका चेहरा देख कर पूछा, क्या आप अंग्रेजी जानते हैं? तब रिचर्ड को ध्यान आया कि मैं मूलत: अमेरिकी गोरा. फिर पहचान में यह भ्रम क्यों? तब लगा लंबे समय से उन्होंने आईना नहीं देखा था. लंबी जटाओं और मटमैले कपड़ों और धूल-गर्द में डूबे, उनमें एक घुमंतू भारतीय साधु की झलक मिलने लगी थी.
शाम होते-होते लगभग 25 हजार लोगों की भीड़ इस महोत्सव में आयी. भीड़ के बिल्कुल पीछे थे, रिचर्ड. उस भीड़ में दूर मंच पर बैठे श्रील प्रभुपाद का भेजा एक भक्त आया. वह विशाल भीड़ में से किसी को ढूंढ़ रहा था. पहले उसने मंच से ही संकेत किया, पर कोई नहीं पहुंचा़ तब वह मंच से उतर कर, भीड़ में सबसे पीछे खड़े. रिचर्ड के पास पहुंच कर रुक गया.
रिचर्ड लिखते हैं, एक मोहक मुस्कान के साथ उस भक्त ने कहा, श्रील प्रभुपाद चाहते हैं कि आप उनके साथ मंच पर बैठें ‘ (साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा). रिचर्ड हतप्रभ़ उन्हें आश्चर्य हुआ, वे मुझे कैसे जानते हैं? हजारों की भीड़ में यह आदमी मेरे पास ही क्यों आया? बगैर किसी पूर्व-परिचय के़ रिचर्ड को लगा कि भारत में उनके साथ अनेक चमत्कारिक और अनहोनी चीजें हो रही है. वहां अच्छे वस्त्र पहने, सजे-संवरे, कीर्तन और नृत्य में डूबे कई लोग थे. रिचर्ड के कपड़े पुराने और नदियों की मिट्टी से धुलते-धुलते मटमैले हो गये थे. बाल बढ़े हुए थे. न कंघी, न बाल की सुध, न देह की सुध. निर्जन वन से वह मुंबई की इस सजी-संवरी भीड़ के सामने थे. रिचर्ड को असहज लगा.
मंच से वह भागना चाहते थे कि श्रील प्रभुपाद ने करुणा भरी दृष्टि से देखा. स्नेह और सांत्वना के साथ रिचर्ड में एक नयी अध्यात्मिक ऊर्जा उठी. वहीं रिचर्ड ने कीर्तन में वह पंक्ति सुनी, जो गंगा के किनारे निर्जन वन में कई महीनों पहले साधना के दौरान उन्हें प्रकृति की गोद में सुनने को मिली थी.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
रिचर्ड अवाक्. गंगा की लहरों में उन्होंने यही मंत्र सुना था. तब वह इसका अर्थ नहीं जान पाये थे, पर बिना जाने वह इसे गाते थे. वह कहते हैं, अर्थ और रहस्य तब समझा, जब मुंबई की इस बैठक में श्रील प्रभुपाद ने कहा कि हमलोग यह महामंत्र गा रहे हैं, अर्थात मुक्ति के लिए महामंत्र ‘ (साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
इतने गुरुओं-संतों से मिलने के बाद भी रिचर्ड तय नहीं कर पा रहे थे कि गुरु किसे बनाया जाये? अनेक बड़े संत-योगियों ने संकेत दिया, पर उनका पश्चिमी मन सब कुछ परख कर निर्णय लेना चाहता था. वहीं उन्हें एहसास हुआ कि श्रीकृष्ण उनके मन में बस गये हैं. उनके पास श्रीकृष्ण पर पुस्तक खरीदने के पैसे नहीं थे.
रिचर्ड ने भिक्षाटन शुरू किया, ताकि किताब खरीद सकें. पर इस बीच श्रील प्रतिपाद को यह सूचना मिली. उन्होंने रिचर्ड को बुलाया और यह पुस्तक भेंट की. अत्यंत करुणा, स्नेह और ममता के साथ.
रिचर्ड फिर हिमालय की ओर निकल पड़े. रास्ते में वह मुंबई पहुंचे. वहां से गणेशपुरी गये. नित्यानंद बाबा के आश्रम. वहां स्वामी मुक्तानंद थे. यहां भी उन्हें अलौकिक अनुभूति हुई. उन्हें दीक्षा पाने का प्रस्ताव भी मिला, पर अपनी साफ बात बता कर वह आगे बढ़ गये, गोवा की ओर. गोवा में वह बिल्कुल नितांत, निर्जन और एकांत में चले गये. समाधि के लिए.
समाधि में उन्हें गणेशपुरी का स्मरण आया़ समाधि में बैठे ही थे कि उन्हें नित्यानंद बाबा की भावविह्वल कर देनेवाली उपस्थिति का एहसास हुआ (याद रखिए, दस वर्ष पूर्व नित्यानंद बाबा ने अपना भौतिक शरीर छोड़ दिया था). गोवा में यह स्मरण आया, पर सामने देखा कि गोवा के तट पर पश्चिम का दृश्य है.
एक दूसरे का चुंबन करते स्त्री-पुरुष, खुलेआम आलिंगन, रॉक-एन-रोल’ का शोर. वह और नितांत निर्जन जगह चले गये. उनके मन में विचार उभरा कि मैं तो इनसे भिन्न हूं. अलग हूं. उसी क्षण लगा कि ऐसा सोचना अहंकार है. रिचर्ड प्रार्थना करने लगे कि मैं दूसरों में दोष देखने के इस अवगुण से मुक्त हो सकूं.
गोवा में रिचर्ड कैसे रहे? यह उन्हीं के शब्दों में पढ़ना बेहतर है. इससे उनके संकल्प और मानस का संकेत मिलता है. जीवन को जानने की कितनी गहरी प्रतिबद्धता रिचर्ड में थी? किसी भी इंसान के दिल को छूनेवाली़ उन्हीं के शब्दों में पढ़ें, सात दिन तक मैं नारियल के एक पेड़ के नीचे बैठ कर ध्यान, साधना, अध्ययन और प्रार्थना करता रहा. कुछ गरीब मछुआरों को छोड़ कर, जो प्रतिदिन प्रात: समुद्र में अपनी नौकाएं लेकर जाते थे, वह स्थान निर्जन था.
प्रतिदिन भोजन के लिए मैं झुके हुए नारियल के पेड़ पर चढ़ कर उसे हिलाते हुए एक नारियल गिराता और उसे बार-बार एक चट्टान पर पटक कर तोड़ लेता. स्नान के लिए सामने विशाल सागर था और बिस्तर के लिए सितारों से भरे आकाश के नीचे खुला रेतीला तट, जिस पर मैं पसर जाता.’ (साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)गोवा से रिचर्ड मैक्लॉडगंज गये. दलाईलामा और उनके लोगों की परंपरा जानने-समझने. दलाईलामा से उनकी मुलाकात प्रेरक रही. उन्होंने रिचर्ड को कहा, ध्यान, अध्ययन और पूजा हमें आंतरिक ताकत देते हैं.
दयालु और ज्ञानवान बनाते हैं. वहां भी वह घने पेड़ों से घिरे पहाड़ों की एक गुफा में रहने लगे, जहां फन काढ़े सांप रेंगते थे. एक रात बड़ा बिच्छू गुफा से नीचे गिर पड़ा, बिल्कुल पास में रिचर्ड चुप, अचल बैठे रहे, वह कहते हैं, वहां बैठे-बैठे मुझे पिता तुल्य कैलास बाबा का स्मरण आया.
उनकी सोहबत में रिचर्ड ने सांप और बिच्छुओं के निकट सही चेतना के साथ रहना सीखा था. ऐसी स्थिति में निर्विकार बैठे वे प्रार्थना करते, हे ईश्वर! ईर्ष्या, भय और दूसरों के प्रति गलत धारणा बनाने की प्रकृति से ऊपर उठने में मदद करें.
रिचर्ड लिखते हैं, कभी-कभी अकेलापन लगता है.
वह मौन प्रार्थनाएं करते ऐसे ही एक क्षण चुप बैठे उन्होंने लिखा. उन्हीं के शब्दों में-एक साधु के मन में मुश्किल घड़ियों में, जब वह थका-हारा होता है. असमंजस में कि वह कहां जा रहा है और क्या पीछे छोड़ आया है, वह नहीं जानता कि उन वस्तुओं को थामे रखे या सदा के लिए छोड़ दे, जो अभी भी उसके पास है. क्या गंतव्य स्थान है उसका, जिसने अपना घर और मित्रों को त्याग दिया है?
उसके पास करने के लिए क्या है, जो अकेला घूमता है, अपनी तन्हाई के वीराने में? क्या वह इन दीवारों को तोड़ दे, जो उसने अपने ईद-गिर्द खड़ी की हैं या उन्हें और ऊंचा एवं मजबूत कर दे? वह याचना करते हैं, हे भगवान! क्या कोई मार्गदर्शक है, जो मुझे आप तक आने का मार्ग दिखा दे? उस बेघर व्यक्ति को कहां रहना चाहिए, जो यह मानता है कि उसका घर इस नश्वर संसार में नहीं है.’
(साभार : अनोखा सफर-एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
इसी बीच रिचर्ड की मुलाकात मिस्र से आये एक योगी से हुई. वह भी धर्मशाला के इस इलाके में गुफा में रहते थे. अकेले. एक दिन उन्होंने रिचर्ड के बारे में भविष्यवाणी की- तुम्हारे गुरु स्वयं तुम्हारे पास आयेंगे. यही तुम्हारी नियति है.’ और आगे ऐसा ही हुआ. पठानकोट होते हुए रिचर्ड फिर हरिद्वार पहुंचे. उनके पास अब एक झोला था.
एकमात्र संपत्ति. साथ में एक भिक्षापात्र और एक लकड़ी, जिसे वह लाठी के रूप में प्रयोग करते थे. बैग में पुस्तकें थीं, भगवद्गीता, उपनिषद, बाइबल, योगी कथामृत, बौद्ध धर्म के ग्रंथ, शंकराचार्य लिखित पुस्तक और श्रील प्रभुपाद द्वारा दी गयी श्रीकृष्ण पर एक पुस्तक. एक ट्रैफिक सिग्नल पर वह खड़े थे.
कोई उनका यह झोला भी ले भागा. पुस्तकों के जाने से रिचर्ड बहुत उदास और निराश हुए. वह अयोध्या गये. रात में सरयू नदी के बालू पर सोते. सुबह स्नान कर राम जन्मभूमि गये. फिर इलाहाबाद गये. एक दोपहर वह गंगा में तैरते-तैरते मौत के चंगुल में फंस गये.
ईश्वरीय चमत्कार से ही वह बचे. फिर पटना पहुंचे. गंगा के किनारे कलक्टरी घाट पर सो गये. तब वहां से गंगा विशाल दिखती थी. सुबह-सुबह भजन-कीर्तन करते सैकड़ों लोग नहाने आये. उनकी आवाज से रिचर्ड की नींद खुली. वहां उन्हें सफेद दाढ़ी वाले एक धीर-गंभीर और अत्यंत प्रभावकारी व्यक्तित्व के साधु मिले. हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. पास के मंदिर में आने के लिए न्योता.
वहां एक दूसरे साधु भी मिले. जो लगभग 85 वर्ष के थे. वेदी के सामने बैठ कर भजन गा रहे थे. अंग्रेजी जाननेवाले उस व्यक्ति ने कहा, ये मेरे गुरु रामसेवक स्वामी हैं. बहुत बड़े भक्ति योगी. पटना में भी रिचर्ड को अद्भुत अनुभव हुआ. खाने में, मच्छरों के बीच सोने में और रोज बगैर जाने-समझे प्रवचन सुनने में. रिचर्ड को लगा कि अब उन्हें वीजा बढ़वाना होगा. वह पटना पासपोर्ट कार्यालय गये.
वहां बैठे एक व्यक्ति ने कहा, तुम्हारा वीजा नहीं बढ़ेगा. रिचर्ड हतप्रभ. तब उन्होंने कहा कि मैं आपके देश में अध्यात्म सीखने आया हूं. फिर वीजा मिला. पटना में हर दिन सुबह रामसेवक स्वामी के आश्रम में पांच साधु जुटते. रामायण पाठ होता. कृष्ण की भी चर्चा होती. रोज शाम को अंग्रेजी जाननेवाले नारायण प्रसाद से रिचर्ड पूछते कि आज के प्रवचन का सार बतायें? एक दिन लगा कि नारायण प्रसाद जी रोज-रोज एक ही प्रसंग दोहराते हैं.
तब एक शाम उनकी आंख में आंसू आ गये. उन्होंने नारायण प्रसाद से कहा, क्या में इतना पतित हूं कि मुझे सुनने का भी अधिकार नहीं? तब नारायण प्रसाद ने रिचर्ड को रहस्य बताया कि जिस दिन आप यहां आये, उसी रात रामसेवक स्वामी जी को यह सपना आया कि यह युवक कृष्ण भक्त है. किन्तु अभी इसे यह मालूम नहीं है. वृंदावन इसकी पूजा स्थली होगी. यदि इसे यह अभी बताया गया, तो वह विश्वास नहीं करेगा. लेकिन एक दिन वह इसे समझ जायेगा. यह बिल्कुल सटीक भविष्यवाणी थी, लेकिन यह प्रसंग बाद में.
पटना में कई सप्ताह ठहरने के बाद रिचर्ड वहां से निकले. नेपाल की ओर निकलने के पहले स्वामी रामसेवक जी से आशीर्वाद लेने गये. रामसेवक जी ने कहा कि वे कुछ देना चाहते हैं.
किंतु उस अकिंचन महात्मा के पास देने के लिए था ही क्या? इधर-उधर देखते हुए उन्हें एक लाठी दिखी. रिचर्ड कहते हैं कि आंसू भरी मुस्कान के साथ उन्होंने वह लाठी मुझे सौंप दी और कहा, शास्त्र कहते हैं कि भक्तों की कृपा रूपी लाठी हमें बड़े-बड़े खतरों से बचा सकती है? और उनकी यह बात भविष्यवाणी थी. इस लाठी ने ही रिचर्ड को नया जीवन दिया.
पर यह प्रसंग आगे. ट्रक-ट्रेलर पर यात्रा करते वह नेपाल की सीमा तक पहुंचे. बकरियों और मुर्गियों के बीच. आधी रात में ट्रक ने उन्हें काठमांडू के ठीक बाहर उतार दिया. वह थके थे. भूखे भी. अंधेरी रात थी. पर कुछ ही दूरी पर कुत्तों की भयानक अवाजें थीं. उन्हें पुरानी चेतावनी याद आ गयी कि रात को जंगली कुत्ते झुंड बना कर शिकार तलाशते हैं. शिकार दिखा कि सब घेर कर हमला कर देते हैं. बोटी-बोटी नोच कर चिह्न तक मिटा देते हैं.
इधर रिचर्ड के मन में यह विचार उभरा, उधर सफेद झाग गिराते कुत्ते आ गये. सिर उठा कर उन्हें देख कर चीखने लगे. कुछ ही क्षणों में अनेक भयावह कुत्तों की टोली ने धावा बोल दिया. ये पागल कुत्ते थे. रैबीज रोग से भरे. उनके मुंह से सफेद झाग निकल रहा था. रिचर्ड के होश उड़ गये. उन्हें लगा कि यह जीवन का अंतिम पल है. तभी उन्हें पटना में रामसेवक स्वामी की दी लाठी याद आयी. वह लाठी भांजते हुए पीछे हटने लगे. वृत्ताकार समूह बना कर कुत्ते उन्हें घेर रहे थे. वे लाठी भांजते पीछे हट रहे थे.
उन्हें लगा कि अब कुत्तों का भोजन बनना ही मेरी नियति है. वह प्रार्थना करने लगे और लाठी भांजते हुए पीछे हटने लगे. पीछे हटते-हटते अचानक एक झोपड़ी के दरवाजे से टकराये. तेजी से पीछे धक्का लगा. दरवाजा खुल गया. उन्होंने घुसकर दरवाजा बंद कर लिया. कुत्तों का हमला जारी था. उधर घर में शोर हुआ, तो सोनेवाले जगे. चोर समझ कर तलवार लेकर हमला करने के लिए तैयार थे. घुटनों पर गिर कर रिचर्ड दया की याचना करने लगे.
यहां भाषा से संवाद नहीं था. महज भावों से. तब तक बाहर के चिल्लाते खूंखार कुत्तों की आवाज की ओर रिचर्ड ने संकेत किया. धीरे-धीरे घरवालों ने हालात समझा. कहते हैं, मेरी नि:शब्द प्रार्थना उन तक पहुंची. उन्होंने तलवार रखी.’ फल और दूध रिचर्ड को दिया. उधर रात भर चौखट पर पागल कुत्ते भौंकते रहे.
(स्वामी राधानाथ से बातचीत और उनकी पुस्तक अनोखा सफर-एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा’ पर आधारित)
इसके (काठमांडू के) बाद रिचर्ड जनकपुर की ओर निकले. वहां एक भारतीय साधु मिले. पढ़े-लिखे. अंग्रेजी में पारंगत. वह श्रद्धालुओं को आशीर्वाद दे रहे थे. जब रिचर्ड ने उनसे आशीर्वाद और ज्ञान की बात की, तब उन्होंने दिलचस्प बातें की. यह रिचर्ड के लिए आंख खोलनेवाली स्थिति थी.
साधु ने कहा, मैं तीस साल से साधु की तरह जी रहा हूं. जानते हो मुझे क्या मिला? कुछ नहीं. साधु के मेरे पूरे जीवन में मुझे सड़े-गले दाल-चावल मिले हैं.’ एक महिला ने अपने नवजात शिशु को आशीर्वाद के लिए आगे किया. बाबा ने अंग्रेजी में कहा, अमेरिका धन और ऐश्वर्य से भरा देश है.’ वह शिशु के सिर पे हाथ फेरते हुए फिर मुझ पर चिल्लाया- अमेरिका में भोग करने के लिए सुंदर स्त्रियां हैं. अमेरिका में बड़े-बड़े आरामदेह घर और गाड़ियां हैं.
अमेरिका में अच्छे कपड़े और खाना-पीना है. अमेरिका में सबसे अच्छे टेलीविजन और सिनेमा है.’ आंख बंद कर उसने आह भरी, ओह! काश मेरे पास अमेरिका के मजे होते.’ तब उसकी आंखे मुझ पर अंगारे उगलने लगीं. लेकिन तुमने वह सब छोड़ दिया. किसके लिए? दाल-चावल के लिए? तंग आ गया हूं मैं दाल-चावल से. तुम इस गरीबी से भरी घटिया जगह पर भगवान ढूंढ़ने आये हो. मूर्ख हो तुम. कोई भगवान-वगवान नहीं है. सुन रहे हो तुम. कोई भगवान नहीं है. अपने महान देश लौट जाओ. यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे, तो तुम्हें जिल्लत भरी जिंदगी जीनी पड़ेगी और दुख ही दुख भोगोगे.’
(साभार : अनोखा सफर – एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
एक भारतीय साधु के ऐसे शब्द सुन कर रिचर्ड को मुंबई में श्रील प्रभुपाद से सुनी बात याद आयी. उन्होंने कहा था कि गली में झाड़ू लगानेवाला एक ईमानदार भंगी, एक ढोंगी साधु से बेहतर है. जनकपुर में ही एक शाम उन्हें एक दूसरे साधु मिले. अच्छी ब्रिटिश अंग्रेजी बोलनेवाले. उनके साथ रिचर्ड के अनुभव भी बड़े दिलचस्प और जानकारीपूर्ण हैं. तंत्र की ताकत के बारे में उन्हें पता चला.
जनकपुर में ही उन्हें एक युवा नेपाली छात्र मिला, विष्णु प्रसाद. एक धार्मिक पश्चिमी युवक को साधु के रूप में देखकर वह प्रभावित हुआ. रिचर्ड को अपने घर ले गया. सम्मान के साथ रखा.
रिचर्ड ने यहां के अनुभव के संबंध में एक अनूठी बात लिखी- 1960 के दौर में अमेरिका में पलने-बढ़ने के दौरान मैंने (रिचर्ड ने) यह पाया था कि हमारी युवा पीढ़ी अपने बड़े-बूढ़ों से विद्रोह करती थी, पर नेपाल में किशोर बच्चों में घर में बड़ों के प्रति सम्मान देखना, मेरे लिए एक अत्यंत मधुर अनुभव था. वह कहते हैं, इन भले लोगों से मैंने पूरब के पारिवारिक संस्कारों के विषय में सीखा.’ (साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा). दुर्भाग्य है कि यह पूरब अब अपने ही संस्कारों से वंचित हो रहा है.
स्वामी जी का यह अनुभव पढ़ते हुए पश्चिमी इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी याद आये, जिन्होंने भारत की आजादी के पहले भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि भारत से एक नयी संस्कृति निकलेगी, जो पूरी दुनिया को नयी रोशनी देगी. पर आज भारत भी पश्चिमी राह पर बह निकला है.
नेपाल में रिचर्ड एक एकांतवासी संत सीताराम बाबा से भी मिले. काफी प्रभावित हुए. इसी क्रम में वह नेपाल के अंदरूनी इलाकों में घूम रहे थे. खेतों से गुजरते हुए. कीचड़ से गुजरते हुए. अचानक एक बड़ा तूफान आया. तूफान थमने के तुरंत बाद रिचर्ड ने देखा कि आगे गैरी हैं. दोनों बचपन के मित्र, अमेरिका से साथ निकले. यूरोप आये. आइल ऑफ क्रीट में एक दूसरे से बिछुड़े. लगभग एक वर्ष बाद अचानक आमने-सामने हुए. यह संयोग भी अद्भुत था. फिर वहां से अमरनाथ जाने की योजना बनी. ट्रक में सवार होकर रक्सौल होते हुए दोनों पटना पहुंचे. बनारस भी. वहां के काशी विश्वनाथ मंदिर गये.
काशी के विश्वनाथ मंदिर में उन्हें यह एहसास हुआ कि मेरी नियति में अब कुछ बेहतर होना है. रिचर्ड लिखते हैं, हे भगवान! मैं आपको जानने और प्रेम करने के लिए लालायित हूं. कृपया मुझे मेरा मार्ग दिखाइए.’ आगे रिचर्ड कहते हैं, उसी क्षण मुझे कुछ एहसास हुआ. आशा की भावना ने मुझे अभिभूत कर दिया. मुझे लगा यदि मैं भगवान के सम्मुख विनीत हो जाऊंगा, तो सब कुछ स्वयं प्रकट हो जायेगा. मुझे लगा कि उनका हाथ मुझ तक पहुंच रहा है और मेरे जीवन में कुछ विशेष घटनेवाला है.’
(साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
बनारस से ट्रेन में सवार होकर दोनों (रिचर्ड और उनके बचपन के मित्र गैरी) निकल पड़े. अमरनाथ पहुंचने के लिए. ट्रेन में भारी भीड़ थी. बरसात अलग. लगभग दो दिनों की यात्रा के बाद एक अनजान जगह ट्रेन रुकी. डिब्बे में ठसाठस भीड़ थी. गैरी और रिचर्ड पानी पीने के लिए और सांस लेने के लिए खिड़की से नीचे उतरे. उन्हें राहत मिली. उनके उतरते ही ट्रेन चल पड़ी. दोनों ने बहुत कोशिश की, दौड़ कर खिड़की से अंदर जाने की. पर वे छूट गये.
अगली ट्रेन की प्रतीक्षा में वहीं बैठे थे. वहीं साधुओं का एक झुंड था. रिचर्ड पूछने गये कि यह कौन-सा स्थान है? एक साधु ने बताया, यह मथुरा है. श्रीकृष्ण का जन्मस्थान. आज जन्माष्टमी है. श्रीकृष्ण का जन्मदिन. फिर वृंदावन में ही रिचर्ड कई महीने ठहरे. यहां हुए अध्यात्मिक उत्थान, तप, साधना और कुछ कटु अनुभव की बातें भी हैं, उनकी आत्मकथा में. हर विपरीत परिस्थिति में रिचर्ड के अंदर एक अद्भुत संकल्प-उत्साह था. ऐसा लगता है कि उनकी जिंदगी का रास्ता उनके होने के पहले ही प्रकृति ने तय कर रखा था. हर पग पर बड़ी-बड़ी कठिनाइयां. मौत से साबका.
खतरनाक जंगली जानवरों के बीच जीना. बिना खाये रहना. फिर भी अपने संकल्प के प्रति एक अद्भुत प्रतिबद्धता, समर्पण और अनूठी निष्ठा. वृंदावन के उनके अनुभव अद्भुत हैं. सच्चे और सही संतों के बारे में बतानेवाले. सही निष्ठा हो, तो प्रकृति (ईश्वर) कैसे राह आसान करती है, रिचर्ड के अनुभव बताते हैं. आज की भौतिक दुनिया इस भाव, मानस और समर्पण को नहीं समझ सकती. यह बाजार की दुनिया है. यह बेमकसद जीवन ढूंढ़ने की दुनिया है. पर रिचर्ड का पूरा जीवन अपने होने का अर्थ जानने में लग रहा था.
रिचर्ड को मालूम नहीं था कि वृंदावन में ही उन्हें जीवन का रहस्य मिलेगा. हिमालय की तलहटी में गंगा की लहरों में जो संगीत सुना (हरे कृष्ण… हरे राम), और मुंबई के क्रास मैदान में (क्रासफोर्ड) अध्यात्मिक अधिवेशन के दौरान जिस कृष्ण ने उन्हें खींचा तथा भारत में आते ही दिल्ली में कनक प्रेस की जिस तस्वीर ने उन्हें बांध लिया या पटना के रामसेवक दास जी के यहां, जिस कृष्ण कथा को सुन कर वह आत्मविभोर हो गये, उसका अर्थ और मूल मर्म तो उन्हें वृंदावन में ही पता चलनेवाला था.
पर यह सब भविष्य के गर्भ में था. रिचर्ड को अचानक ट्रेन ने एक ऐसी जगह उतार दिया, जो उनके लिए अनजानी थी. बिना योजना के वह यहां पहुंचे थे. जाना था अमरनाथ, पहुंच गये वृंदावन. ट्रेन के डिब्बे से आक्सीजन और पानी लेने नीचे उतरे कि ट्रेन चल पड़ी. पर यह वृंदावन उनकी नियति थी.
क्या यह संयोग था या पूर्व निर्धारित या भाग्य का खेल या तय नियति? यह भला कौन जान सका है? विकास, वैज्ञानिकता और अध्यात्मिकता के इस उत्कर्ष पर पहुंच कर भी ऐसे सवालों के उत्तर मनुष्य या विज्ञान ढूंढ़ पाने में विफल हैं.
वृंदावन में आठ मील दोनों साथी चले. फिर एक आदमी ने प्रणाम कर उनका (रिचर्ड) स्वागत किया. उन्हें विनम्रतापूर्वक एक आश्रम पहुंचाया और फिर वह चला गया. पता चला कि आज कृष्ण जन्माष्टमी है, हर अतिथि का स्वागत इस मिट्टी की परंपरा है.
दिनांक 25.02.13
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