मैं कौन हूं”” की खोज में भारत यात्रा
मार्च, 2010 में श्रद्धेय राधानाथ स्वामी को जाना. उनकी आत्मकथा के माध्यम से. पुस्तक का नाम था, द जर्नी होम- आटोबायोग्राफी ऑफ एन अमेरिकन योगी (योगियों, गुरुओं और साधुओं की अध्यात्म भूमि भारत में एक अद्भुत खोज). पुस्तक, मांडला प्रकाशन, अमेरिका से छपी थी. (अब फरवरी, 2013 में इसका हिंदी अनुवाद भी देखा. नाम है, […]
मार्च, 2010 में श्रद्धेय राधानाथ स्वामी को जाना. उनकी आत्मकथा के माध्यम से. पुस्तक का नाम था, द जर्नी होम- आटोबायोग्राफी ऑफ एन अमेरिकन योगी (योगियों, गुरुओं और साधुओं की अध्यात्म भूमि भारत में एक अद्भुत खोज). पुस्तक, मांडला प्रकाशन, अमेरिका से छपी थी. (अब फरवरी, 2013 में इसका हिंदी अनुवाद भी देखा. नाम है, अनोखा सफर-एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा). लेखक राधानाथ स्वामी.अंगरेजी में लिखी यह आत्मकथा कोलकाता की उसी पुस्तक दुकान से ली, जहां से पिछले तीस वर्षों से पुस्तकें खरीदता रहा हूं. दुकान में घुसते ही पहली नजर इस पुस्तक पर पड़ी. कवर पर पीले रंग की पृष्ठभूमि.
नीचे हल्के लाल रंग की पृष्ठभूमि में वृंदावन स्थित राधा मदन मोहन मंदिर की तस्वीर. तब से कई बार पढ़ा. पुस्तक पढ़ते ही पुस्तक के लेखक से मिलने की प्रबल इच्छा हुई. खोजा. इंटरनेट से मदद लेकर. यह पुस्तक महज रिचर्ड से स्वामी राधानाथ बनने की कथा नहीं है, व्यक्तित्व के पूरे बदलाव और अध्यात्म के उत्कर्ष पर पहुंचने का वृत्तांत है. तप और साधना के बल पर. पल-पल सजग रह कर. इसलिए उन्हें देखने की इच्छा जगी.
मिलना हुआ राधानाथ स्वामी जी से 24 जनवरी 2013 को. मुंबई में. मूलत: या जन्मना अमेरिकी. पर भारतीय अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ जीवित सत्वों (इसेंस) में से एक. उनकी आभा-प्रभा में अलौकिक शांति है.
उनकी उपस्थिति का एहसास होता है. शायद उनके अविश्वसनीय तप, त्याग, कठोर साधना के कारण. मृत्यु से कई बार सामना, अनमोल व दुर्लभ अनुभव, हमेशा सीखने की प्रवृत्ति, निरंतर आत्मा को नयी ऊंचाई पर ले जाने की भूख या खोज के कारण. संत की असीमित संवेदना, अपरिमित करुणा, अलौकिक आध्यात्मिक तेज ने उन्हें विशिष्ट बना दिया है. वह अपनी आभा, तेज, करुणा, संवेदना और शब्द से छूते हैं. बिना बोले.
वह भारत, भारतीय संस्कृति, भारतीय अध्यात्म के लिए ही आज प्रेरक नहीं हैं. दुनिया आज उन्हें तलाश रही है. ओबामा उनसे मिलते हैं. ब्रिटेन की संसद उन्हें बुला कर सुनती है. आक्सफोर्ड, कैंब्रिज उन्हें आमंत्रित करते हैं. हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड, बर्कले जैसी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं में न्योते जाते हैं. दुनिया जिस नैतिक संकट, मूल्य संकट, सामाजिक संकट, लोभ और भोग की आग में आज जल और तप रही है, उसमें लोग उनकी बातों को गौर से सुनते हैं.
क्यों? क्या हैं, राधानाथ स्वामी? क्या है उनकी पृष्ठभूमि?
यह महज राधानाथ स्वामी की आत्मकथा नहीं है. एक व्यक्ति की अपने अंदर निहित असीम संभावनाओं की खोज की कहानी है. लगातार उत्कर्ष, ऊपर उठने की कथा. एक सामान्य इंसान से आदर्श बनने का प्रामाणिक वृत्तांत. पग-पग पर अकल्पित मुसीबतों से जूझते हुए. राधानाथ स्वामी जी का जन्म 1950 में अमेरिकी परिवार में हुआ. शिकागो में. उनका मूल नाम रिचर्ड या रिची था. शुरू से ही अत्यंत संवेदनशील. जीवन के रहस्यों को जानने की प्रबल इच्छा. करुणा से भरे.
दूसरों के प्रति अत्यंत संवेदनशील. किसी को ठेस न पहुंचाने की प्रवृत्ति. प्रार्थना और अध्यात्म में जन्मजात रुचि. सामाजिक प्रतिष्ठा, यश और धन अर्जित करनेवालों की मुख्यधारा से अलग. अमेरिकी होते हुए भी उपभोक्तावादी अमेरिकी समाज, देह और भौतिक सुख को ही सर्वस्व माननेवालों से भिन्न. दूसरों की गरीबी, परेशानी देख कर खुद बेचैन होनेवाले. गरीबी, रंगभेद और नशे से पीड़ित, मित्रों के सोल संगीत (आत्मगीत) सुन कर परेशान रहनेवाले. अंत:करण में उठते सवालों के उत्तर ढूंढ़नेवाले कि जीवन क्यों है?
मशहूर गायक जार्ज हैरिसन के गीत, विदिन यू, विदआउट यू (तुझमें, तेरे बिन) या बीटल्स के ए डे इन लाइफ जैसे गीतों को सुन कर जीवन का अर्थ ढूंढ़नेवाले, रिचर्ड बचपन में संगीत प्रेमी बने. जब उन्होंने जानी रिवर्स को लुक टू योर सोल फॉर द आंसर (उत्तर के लिए अपनी आत्मा से संवाद) गाते सुना, तो उन्हें लगा कि जीवन का यही अर्थ तो ढूंढ़ रहा हूं.
रिचर्ड शुरू से ही उस मन: स्थिति से गुजर रहे थे, जिससे जीवन में हर इंसान गुजरता है. गांधी के मन में भी सवाल उठा था, जिसने अपने को नहीं पहचाना है, उसने कुछ भी नहीं जाना है.’ (संपूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड-दस, पृष्ठ 148). उपनिषद भी बार-बार कहते हैं, अपने को जानो’ (आत्मानं विद्धि). रमण महर्षि तो हर जिज्ञासु से यही कहते थे कि स्वयं से पूछो मैं कौन हूं?’ (कोअहम्). गांधी जी ने तो यहां तक कह दिया कि मनुष्य को अक्ल इसलिए दी गयी है कि वह ईश्वर को पहचाने, परंतु मनुष्य ने उसका उपयोग उसे भूलने में किया है.’ पर किशोरवय से ही रिचर्ड को यह सवाल मथता रहा कि मैं हूं कौन?
कॉलेज में उनके चैंपियन बनने, टीम का नेतृत्व करने के अवसर आये. एक बार कुश्ती में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के बाद वह वीतरागी हो गये. क्योंकि यह उनका क्षेत्र ही नहीं था. बचपन में ही अमेरिका के कई हिस्सों में अपने मित्रों के साथ घूमे. गाड़ी धोने की नौकरी की. संगीतकारों से सरोकार हुआ, संगीत में डूबे, गाते भी रहे, पर मन नहीं जमा.
मन में विद्रोह था. यथास्थिति के खिलाफ. वह बड़े बाल रखने लगे. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 70 के दशक में (गरमियों में) लंबे बाल रखना फैशन नहीं था, बल्कि धन की ताकत, सत्ता मद और पुरानी पीढ़ी के मूल्यों के प्रति बगावत की आवाज या अभिव्यक्ति थी. याद रहे, तब तक अमेरिका में हिप्पी आंदोलन और बीटल्स का दौर शुरू हो गया था. वहां की युवा पीढ़ी एक नये मूल्य, संस्कृति और आदर्श की तलाश में थी. रिचर्ड भी इस धारा से प्रभावित हुए थे.
उन्हें मार्टिन लूथर किंग जूनियर के एक कथन में अपने जीवन का मकसद मिला. यदि मनुष्य के पास ऐसा कोई आदर्श नहीं है, जिसके लिए वह मर-मिट सके, तो उसके पास ऐसा कुछ सार्थक नहीं है, जिसके लिए वह जीवन जीये. यह अमेरिका की बगावती पीढ़ी थी. दुनिया में हिप्पी आंदोलन के नाम से भी इसे ख्याति मिली. यह पीढ़ी जो सैम कु क के गीत ए चेंज इज गौन्नाकम (एक बदलाव आकर रहेगा) और वी शैल ओवरकम (हम होंगे कामयाब) गानेवाली पीढ़ी थी.
उन्हीं दिनों लगभग 19 वर्ष की उम्र में अपने कुछ मित्रों के साथ अमेरिकी युवा, रिचर्ड भी जीवन अर्थ की तलाश में निकल पड़े. कद साढ़े पांच फुट. वजन लगभग 55 किलोग्राम. एक सुखी अमेरिकी परिवार के ऐशो-आराम छोड़ कर. अमेरिकी समाज- देश दुनिया की श्रेष्ठ प्रतिभाओं को लुभाता रहा है. अपनी श्रेष्ठ व्यवस्था के कारण. पर एक मूल अमेरिकी युवा बगावत कर एक नयी राह पर चल निकलता है.
बिना पैसे लिये, हिचहाइकिंग (लिफ्ट लेकर चलना) से दुनिया घूमने निकल पड़ा. अमेरिका से उड़ कर यूरोप पहुंचा. पहली रात लक्जमबर्ग में गुजारी. एक खुले मैदान में. एक मित्र, जिसके पास कुछ धन था, वह रात में लुट गया. धनहीन होकर वह लौट गया. अब दो ही लोग बचे. गैरी लिस्स और रिचर्ड या रिची. गैरी लिस्स, रिची के बचपन के दोस्त थे. दोनों लगभग धनहीन, लेकिन लौटने को तैयार नहीं. न खाने का ठीक, न रहने का ठिकाना. बिना धन खर्च किये, संसार की यात्रा होनी थी. भूखे पेट.
फिर हालैंड पहुंचे. अमेरिका-यूरोप समेत दूसरे देशों में तब हिप्पियों की जिंदगी जीनेवाले, धनहीन लोगों के प्रति सरकारें व समाज अत्यंत क्रूरता से पेश आते. पग-पग पर जीने के लिए मनोबल की जरूरत थी.
समुद्री नाव पर सवार होकर इंग्लैंड पहुंचना हुआ. ब्रिटिश कस्टम ने बहुत सख्ती की. किसी तरह बच निकले. तभी बीच में उस पीढ़ी के प्रिय गायक हैंडिक्स की मौत की खबर मिली. जिस पीढ़ी ने सेक्स, ड्रग्स और रॉक -एन-रोल में सुखी और समृद्ध जीवन शैली के लक्षण देखे, उसके अग्रणी गायकों में से थे, हैंडिक्स. विद्रोह करनेवाली हिप्पी पीढ़ी के प्रिय गायक. इस मौत ने रिची को हिला दिया कि क्या हम इसी जीवन की तलाश में हैं?
रिची का भी हिप्पी आंदोलन से मोहभंग होने लगा. उन्हें अनुभव हुआ कि हिप्पी आंदोलन में वहशी, जंगली और कृतघ्नता धारा का जोड़ है, तब उन्हें अपने मां-बाप की याद आयी, जिनसे उन्होंने कृतज्ञता का गुण सीखा. सिर्फ विरोध के लिए विरोध और अपने सुख के लिए कुछ भी करो, की धारा से रिची का मन टूटने लगा. वह लिखते हैं कि वह भी इंद्रिय भोगों की आग में ऐसे कूदनेवाले थे, जैसे पहले कोई न कूदा हो.
पर हैंडिक्स की मृत्यु ने रिची को अंदर स्पर्श किया. अमेरिकी रिची की अब तक कोई महिला मित्र नहीं थी. याद रखिए, वह दौर जब किशोर होते ही सेक्स में अमेरिकी युवा मुक्ति पाने की बात करते थे. उन्होंने जान-बूझ कर एक अलग रास्ता चुना. जीवन का अर्थ समझने के लिए. खुद को पहचानने और मैं कौन हूं’ तलाशने के लिए. फिर इटली होकर मोरक्को जाने की योजना बनी. रिची का मन गिरजाघरों और धर्मों में रमने लगा.
जंगलों में बैठना और हार्मोनिका (वाद्ययंत्र, जिसे रिची बजाते थे) बजाना. वह भीड़ से अलग थे.अध्यात्मिक अनुभवों की तलाश में रोम गये. वहां के गिरजाघर गये. संत फ्रांसिस को समझने असीसी (जहां संत फ्रांसिस रहते थे) गये. रोम से नेपल्स गये. वहां से पोंपई होते ग्रीस के एक द्वीप पर पहुंचे. हिचहाइकिंग (लिफ्ट मांगते हुए) या पैदल चल कर दोनों मित्र ग्रीस के एक द्वीप कोर्फू पहुंचे. होमर के महाकाव्य द ओडिसी में इसका उल्लेख है. वहां एक पेड़ के नीचे बैठ कर रिची भगवद्गीता, बाइबल और द बुक आफ ताओ पढ़ने लगे.
वहां से एथेंस पहुंचे. पग-पग पर परेशानियों में डूबते-उतराते. कभी पुलिस पकड़ती, कभी कोई और तंग करता. किसी तरह नावों का किराया जुगाड़ कर गैरी और रिची आइल आफ क्रीट पहुंचे. भूमध्य सागर के किनारे. वहां अनेक गुफाएं थीं. दिन में दोनों अलग-अलग ध्यान करते. सूर्यास्त के बाद गुफा में मिलते. एक सादी ब्रेड बांट कर खाते. सोने के लिए थी, पथरीली जमीन.
बात करने के लिए दिन भर के ध्यान के अनुभव. वहीं एक सूर्यास्त की बेला में, जब भूमध्य सागर की लहरें सुनहरी हो गयी थीं. पूरा परिवेश सुनहरी छटा से दीप्त था, तब अचानक मेरे हृदय से एक मृदुल किंतु प्रबल स्वर उभरा, भारत जाओ.’ आगे राधानाथ स्वामी लिखते हैं, भारत क्यों? मैंने सोचा, वह तो बहुत दूर एक अलग ही दुनिया है. उसके विषय में मैं बहुत कम जानता हूं. मेरे पास नहीं के बराबर पैसे थे और न ही मुझे विश्वास था कि यह मेरे भगवान की ही पुकार थी.’ (साभार : अनोखा सफर-एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा)
आत्मपुकार ने भारत आने की प्रेरणा दी
इसी तरह 19 वर्षीय अमेरिकी युवक रिची को एक अज्ञात, अलौकिक आवाज या आत्मपुकार ने भारत आने की प्रेरणा दी. उनके मित्र गैरी ने भी उसी शाम इजरायल जाने की आत्मपुकार सुनी थी. अब रिची को भारत की यात्रा अकेले करनी थी. बचपन के मित्र का साथ भी छूट रहा था, जिनके साथ मिल कर दुनिया देखने और जीवन का अर्थ ढूंढ़ने निकले थे. बिना धन, कपड़ा, जानकारी के एक अज्ञात संसार में छलांग जैसा. नाव से वह एथेंस गये.
उन्हें न भारत की जानकारी थी, न किसी भारतीय से परिचय. अपने अमेरिकी स्कूल में उन्हें यही बताया गया था कि भारत, गरीबी, बीमारी और विशाल जनसंख्या वाला, सपेरों से भरा एक गंदा स्थान है. पर रिची की भूख तो योगियों, संतों, ऋषियों से मिलने की थी. एथेंस में उन्हें पता चला कि भारत जाने का रास्ता तुर्की होकर है. इस्तांबुल, होकर जो अत्यंत खतरनाक जगह थी. वहां एक लीबा (स्थानीय मुद्रा) के लिए भी हत्या होती थी.
उन्हीं दिनों वहां हैजे का भीषण प्रकोप था. हर कोई हतोत्साहित करनेवाला. तुर्की के इमीग्रेशन, कस्टम से लेकर पश्चिम के सभी यात्री या हिप्पी मित्र. पर तीन दोस्त फिर मिल गये, जो हर जोखिम उठाने को तैयार थे. जमीन के रास्ते भारत पहुंचने के लिए एथेंस और तुर्की के बीच का सीमारहित इलाका, फिर तुर्की के अंदर की यात्रा. पग-पग पर मौत की संभावनाएं थी. अत्यंत डरावनी यात्रा. फिर इस्तांबुल में किसी तरह इन लोगों का जीवन बचना, सीमाहीन इलाकों के खतरों से बच निकलना यह सब प्रकृति के चमत्कार या ईश्वर की कृपा ही थे. संयोगवश जीवन बचा. इस्तांबुल के गंदे और माफियाओं के होटल में आधी रात पहुंचे ही थे कि घंटे भर में ही जानलेवा हमले हुए. रातोरात भागना पड़ा.
मौत से बचने के लिए. फिर ट्रकों के साथ, मवेशियों के साथ यात्रा करते मध्य तुर्की के रेगिस्तान और निर्जन पठारों से गुजरे ये यात्री. यह सुविधारहित यात्रा थी. बस से ईरान के रेगिस्तानों से गुजरते हुए रिची (रिचर्ड) तेहरान पहुंचे. मशाहाद में रिची ने इसलाम का अध्ययन किया. फिर बोरियों से लदे ट्रक के पीछे बैठ कर अफगानिस्तान की सीमा पहुंचे. हेरात गये. पग-पग पर व्यावहारिक परेशानियां, पर यह सवाल उनके मन में बराबर उठता रहा, कौन हूं मैं? कौन हूं मैं? वास्तव में कौन हूं मैं? अफगानिस्तान में हेरात से किसी तरह वह कंधार गये. कंधार में फिर मौत का सामना.
हालांकि आज स्वामी राधानाथ जी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों (शैक्षणिक , कारपोरेट आदि) में सुनने के लिए बुलाये जाते हैं. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, बोस्टन यूनिवर्सिटी, कार्नवेल, स्टैंडफोर्ड, आक्सफोर्ड, कैंब्रिज समेत केनेडी स्कूल व दुनिया के अग्रणी कारपोरेट कंपनियों, मसलन इंटेल, एचएसबीसी जैसी जगहों पर. पर यहां पहुंचने के पहले उनकी जीवन यात्रा पग-पग पर रोमांच पैदा करती है. हिप्पी आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने यथास्थिति से विद्रोह किया.
हिप्पी आंदोलन की पहचान थी, नशा. एक शाम कंधार में रिचर्ड (अब राधानाथ स्वामी) को जबरन एक कमरे में एक अफगानी ने ठेल दिया. कमरे में हसीस का ढेर था. वहां के दृश्य देख कर उन्हें नशेड़ियों-शराबियों का जीवन याद आया. वहीं रिचर्ड ने जीवन का बड़ा संकल्प लिया, प्रतिज्ञा के तौर पर. हे भगवान! मैं जीवन में कभी नशा नहीं करूंगा.’ (साभार : अनोखा सफर-एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा) वहीं उन्हें एक रात बिना हिले-डुले सिर पर एक खतरनाक नेवले को लेकर बैठना पड़ा. पूरी रात. जरा भी हिलने-डुलने से जान का खतरा था. रिचर्ड के बाल बड़े थे. नेवला भी बालों में पंजा लगा कर सिर पर सो गया. एक अफगानी ने हिदायत देते हुए कहा, सोते नेवले को न जगायें, यह जानलेवा होगा.’
बाद में स्वामी राधानाथ के रूप में उन्होंने लिखा, कंधार में मैंने एक नेवले से धैर्य सीखा. हसीस के नशेबाजों से मद-निषेध और एक अंधे बालक से गीत सुन् ाकर, अध्यात्मिक बोध का एहसास.’ (साभार : अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा). पर काबुल में वह और कठिन यात्रा से गुजरे. वहां उन्होंने एक नयी प्रतिज्ञा की, आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की. यहां भी वह कठिन इंद्रिय परीक्षा से गुजरे. फिर उन्होंने भारत पहुंचने की वह राह पकड़ी, जिसने एशिया के इस हिस्से के भूगोल और इतिहास को प्रभावित किया है, बदला है.
उनका (रिचर्ड का) इतिहास बोध भी गहरा है. खैबर पास से जब वह गुजर रहे थे, तो उन्हें ईसापूर्व 400 में सिकंदर की भारत पर चढ़ाई, फिर तेरहवीं सदी में चंगेज खां का क्रूर हमला, फिर मुगल सेना का इसी रास्ते आना और अंग्रेजी सेनाओं का वाटर-लू बना, यह भू-भाग याद आया. वह कहते हैं, इन रास्तों से गुजर रहा था, पर मैं भारत के लिए तरस रहा हूं.’
तीन महीने में वह तीन हजार मील की यात्रा कर चुके थे. हिचहाइक करते हुए. वह हुसैनीवाला सीमा चौकी पहुंचे, भारत में प्रवेश करने के लिए. पर वहां बैठी महिला इमिग्रेशन अधिकारी ने उन्हें धनहीन देख कर प्रवेश नहीं दिया. कहा, कंगाल हमारे यहां बहुत हैं, हमें एक और नहीं चाहिए. बार-बार वह कोशिश करते रहे, लेकिन हर बार इनकार और सुरक्षा बलों की धमकी ही मिलती. शाम में एक नये अधिकारी आये, उन्हें भी रिचर्ड के न घुसने की सूचना दे दी गयी. पर रिचर्ड पहुंचे और कहा, मैं भारत में भगवान को पाने आया हूं.’
उन्होंने अनुरोध करते हुए कहा, मुझे एक मौका दें, एक दिन मैं भारत के लोगों के लिए कुछ अच्छा करके दिखाऊंगा.’ (साभार : अनोखा सफर-एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा) उस सिख अधिकारी की आखों में आंसू आ गये. कहा, कभी-कभी व्यक्ति को अपने दिल की बातें भी सुननीं चाहिए. सिख अधिकारी ने कहा, मुझे तुम्हारे शब्दों पर यकीन है.’ यह अनहोनी घटना थी. बिल्कुल अप्रत्याशित. यह रिचर्ड के अंदर भारत के लिए तड़प, बेचैनी और प्रबल इच्छा का ही परिणाम था. या ईश्वर द्वारा निर्धारित नियति? रिचर्ड भारत में दाखिल हो गये. वहां से वह दिल्ली पहुंचे. विषम परिस्थितियों में. पग-पग पर कठिनाई झेलते हुए. दिल्ली में एक सपेरे ने उन्हें खतरे में डाल दिया.
एक बड़े भयानक सांप ने उन्हें जकड़ लिया. सपेरा पैसा मांग रहा था, लेकिन रिचर्ड के पास धेला भी नहीं था. उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की. अचानक भीड़ में से एक व्यक्ति आया. उसके चेहरे पर झुर्रियां थीं और हाथ में माला. उसने सपेरे से मोलभाव किया. उसे दस रुपये दिये और रिचर्ड को सांप से मुक्त कराया.
कनाट सर्कस में कृष्ण का चित्र देख
रिचर्ड कई दिनों के भूखे थे. कोई दूसरा व्यक्ति मिला, जो उन्हें खाने के लिए अपने साथ ले गया. एक मामूली दुकान पर दोनों खाने बैठे. खाना शुरू करते ही उनके साथी ने उन्हें बताया कि खाने की थाली में क्या-क्या व्यंजन हैं? खाने में मांस के कुछेक टुकड़े थे. यह सुनते ही रिचर्ड ने खाना बंद कर दिया.
उनके मन में पशुओं के प्रति संवेदना जगी और वह रोने लगे. एक अत्यंत गंदी जगह में वह टिके थे. वहां पहुंचे, तो उबकाई आयी. पूरा खाना बाहर. वहां उन्होंने एक और नया संकल्प लिया कि जीवन में कभी मांस नहीं खाऊंगा. रिचर्ड जब दिल्ली पहुंचे, तो सर्दियों के दिन थे. संयोग से तभी दिल्ली में विश्व योग सम्मेलन का आयोजन था.
आठ सौ से अधिक योगी भाग लेने आये थे. रिचर्ड को वहां अनेक अध्यात्मिक लोगों से मुलाकात हुई. स्वामी राम, स्वामी सच्चिदानंद, श्री जे कृष्णमूर्ति आदि. इस तरह दिल्ली में उन्होंने एक -एक पल भारतीय योग, अध्यात्म और साधना को जानने-समझने में लगाया. शाम को कनाट सर्कस में घूमते हुए उन्होंने चित्रों के ढेर में एक चित्र देखा, जो उनकी आत्मा में समा गया. रंग नीला, मुकु ट में मोरपंख, नदी के किनारे खड़े होकर बांसुरी वादन. बगल में एक सफेद गाय. पूर्णिमा की रात. रिचर्ड नहीं जानते थे कि यह चित्र किसका है? लेकिन उनके पास जो कुछ भी था, वह देकर उन्होंने चित्र खरीदने की इच्छा की. चित्र की कीमत से काफी कम रिचर्ड ने मूल्य दिया, पर दुकानदार ने उन्हें वह चित्र सौंप दिया. यह भविष्य का एक गहरा संकेत था. आनेवाले वर्षों में उजागर हुआ कि इस चित्र में अंकित छवि ने रिचर्ड का जीवन ही बदल दिया.
दिल्ली में योग का सम्मेलन खत्म हुआ. यह 1970 का अंत था. रिचर्ड की उम्र बीस साल की थी. वहां से रिचर्ड ऋषिकेश-हिमालय चले गये. एक शाम वह ऋषिकेश में गंगा के किनारे ध्यानमग्न बैठे थे. कुछ देर बाद उन्हें दूर से कोई आता दिखा. एक साधु. सुनहरा रंग, सफेद दाढ़ी, कंधों तक लंबे बाल और हवा में लहराते वस्त्र. रिचर्ड उस धीर, गंभीर व्यक्तित्व से प्रभावित हुए. उनकी आंखें बड़ी-बड़ी थीं. भाव गहरे. उन्होंने कहा, तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूं? लेकिन मैं तुम्हें जानता हूं. मैंने तुम्हारी दृढ़ता का निरीक्षण किया है. तुमने जो वस्त्र पहने हैं, उन्हें अब गंगा को अर्पित कर दो. मैं तुम्हें साधु के कपड़े दूंगा. रिचर्ड ने पूछा, साधु क्या चीज है?
बताया गया, साधु भ्रमणशील भिक्षुक होता है, जो दिव्य जीवन की प्राप्ति के लिए सांसारिक आसक्तियों को त्याग देता है. तुम उसे एक मॉन्क’ भी कह सकते हो. उन्होंने रिचर्ड को दो पतले सूती कपड़े दिये. एक की लुंगी और दूसरे हिस्से को लपेट कर चादर. साथ में लंगोट के लिए दो सूती पट्टियां दीं, जिन्हें कौपीन के रूप में हम जानते हैं. उसी तट पर रिचर्ड ने अपनी कमीज और जींस गंगा में बहा दिये. हमेशा के लिए. रिचर्ड की पहचान बदलने की यह शुरुआत थी. उस संत ने उनके कान में कुछ शब्द बोले.
कहा, गंगा तुम्हारी मां होगी. आनेवाले समय में वह खुद अपना रहस्य बतायेंगी. रिचर्ड सूर्योदय से सूर्यास्त तक गंगा के किनारे बैठते. रात को गुफा में लौटते. रास्ते में उन्हें एक बूढ़ा आदमी मिलता, जो गाजर बेचता था. वह रोज रिचर्ड को एक गाजर देता था. रिचर्ड ने तय किया कि रोज एक गाजर और गंगाजल, तीस दिनों तक यही मेरा भोजन होगा. निर्जन वन, कहीं कोई और दिखायी नहीं देता था. रिचर्ड उस वियाबान जंगल में अपनी साधना में रम गये. वह गंगा की बहती लहरों से जीवन के पाठ पढ़ने लगे. कैसे गंगा की लहरें ऊंचाई से गिरती हैं.
असंख्य बाधाएं पार कर सागर में जा मिलती हैं. बीच-बीच में ऐसे प्रसंगों को जीवन के बड़े फलक से जोड़ कर स्वामी राधानाथ अपनी कवित्व-संपन्न भाषा में कहते हैं (अपनी आत्मकथा अनोखा सफर’ में), गंगा माता हमें सिखाती हैं कि यदि हमें अपनी सागर तुल्य अभिलाषाओं तक पहुंचना है, तो हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति में दृढ़ रहना चाहिए और मार्ग में आनेवाली अपरिहार्य बाधाओं से हतोत्साहित नहीं होना चाहिए. नदी रूपी जीवन में ये सारी बाधाएं चट्टान के समान हैं.’
गंगा के बारे में पंडित नेहरू के उद्गार अद्भुत और अविस्मरणीय. स्वामी जी के भाव और अभिव्यक्ति भी गंगा के बारे में न भूलनेवाले हैं. एक दिन गंगा के तट पर बैठे-बैठे वह सोचते हैं कि कैसे इन्हीं कगारों के किनारे लाखों वर्षों का इतिहास दफन है? कभी यहां अध्यात्मिकता पल्लवित-पुष्पित हुई. महान सिकंदर आया, मुगलों ने जीत कर सदियों तक राज किया.
अंग्रेजों ने उन्हें मिटाया. अंतत: आजादी की लड़ाई ने अंग्रेजों को बाहर किया. फिर वह कहते हैं, गुलामी और आजादी , युद्ध और शांति नराजनीतिक जीत और हार, यह सब ऋतुओं के समान आये और चले गये. इन सबके बीच कालातीत गंगा मां, धैर्य के साथ सागर की ओर बहती रहीं. फिर वह निष्कर्ष निकालते हैं, इसी तरह सच भी अपरिवर्तनशील है. इस सृष्टि में चाहे कुछ भी हो जाये. कितना भी नाटकीय, पर सत्य के प्रवाह में अंतत: विघ्न नहीं पड़ता.
रिचर्ड के पास अपनी पुरानी पहचान के नाम पर सिर्फ एक चीज थी, हार्मोनिका. कभी-कभी वह अपना प्रिय संगीत बजाते. एक दिन उन्हें लगा, उनका ध्यान मूल विषय से भटक रहा है और उन्होंने हार्मोनिका को गंगा की लहरों में प्रवाहित कर दिया. इसके साथ ही पश्चिम से आयी पहले की सभी पहचानों जींस, शर्ट और हार्मोनिका को पानी में बहा कर रिचर्ड अपनी पुरानी पहचानों से मुक्त हो गये. काया स्तर पर. मन स्तर पर तो वह रोज ही नये हो रहे थे.
गंगा के तट पर उन्हें हुए अलग-अलग अनुभव छूनेवाले हैं. वहीं उन्हें एक शाम अद्भुत अनुभव हुआ. नदी के कल-कल स्वर से उच्चरण हुआ, ओउम. उनका मन अभिभूत हो गया. इसका अर्थ वह नहीं जानते थे, पर वह भाव में डूब गये. इसी तरह एक और शाम, सूर्यास्त हो रहा था. प्रकृति सजीव थी. पेड़, पौधे और खामोश माहौल के बीच चहचहाते तरह-तरह के पक्षी. स्वामी जी को लगा, मैं किसी असाधारण घटना के कगार पर खड़ा हूं.’ हजारों दिव्य ध्वनियों में एक मधुर शब्द उभरा.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
रिचर्ड इस बोल का अर्थ नहीं जानते थे, पर वह डूब गये. उन्हें लगा अपनी प्रिय हार्मोनिका, जिससे वह पश्चिम के मधुर और प्रिय संगीत गाते थे. दिल के भाव और कशिश की अभिव्यक्ति का वह यंत्र, उन्होंने गंगा को सौंप (बहा कर) दिया था. उन्हें लगा शायद इसके बदले ही उन्हें नदी की लहरों से संगीत के रूप में यह गीत मिला. रिचर्ड के उपवास के दिन खत्म हो गये थे.
एक माह हो गये थे. उन्हें ललक थी, आज भर पेट खाऊंगा. किसी ने उन्हें एक रुपया दिया था. उन्होंने जाकर मूंगफली खरीदी. उसे लेकर वह अपनी गुफा में लौट ही रहे थे कि एक बंदर ने पूरी मूंगफली छीन ली. वह कठोर व्रत से होकर गुजरे थे. फिर उन्हें उपवास करना पड़ा.
(जारी…)
(स्वामी राधानाथ से बातचीत और उनकी पुस्तक अनोखा सफर- एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा’ पर आधारित)
दिनांक 23.02.13