सेवा से स्वर्ग!
– हरिवंश – वर्षों बाद श्रद्धेय स्वामी निरंजनानंद जी से मिलना हुआ. परमहंस सत्यानंद जी के न रहने के बाद पहली मुलाकात. वह परमहंस के योग्य उत्तराधिकारी हैं. उनका तेज और मुखर हुआ है. आभा में चमक है. प्रताप भी बढ़ा है. यह सब उनके तप का चमत्कार है. हालांकि उनके लेख, प्रवचन और विचारों […]
– हरिवंश –
वर्षों बाद श्रद्धेय स्वामी निरंजनानंद जी से मिलना हुआ. परमहंस सत्यानंद जी के न रहने के बाद पहली मुलाकात. वह परमहंस के योग्य उत्तराधिकारी हैं. उनका तेज और मुखर हुआ है. आभा में चमक है. प्रताप भी बढ़ा है. यह सब उनके तप का चमत्कार है.
हालांकि उनके लेख, प्रवचन और विचारों से कभी दूर नहीं रहा. खासतौर से आराधना (प्रकाशन- रिखियापीठ देवघर) और योगविद्या (बिहार योग विद्यालय, गंगा दर्शन फोर्ट, मुंगेर) पत्रिकाओं के कारण. संस्कार गढ़ने के लिए ये दोनों पत्रिकाएं और आश्रम की पुस्तकें बेमिसाल हैं.
आश्रम का साहित्य, इस स्पर्धात्मक दुनिया में संजीवनी है. घर-घर के लिए अनिवार्य. आज बिहार योग विद्यालय के पचास वर्ष हो रहे हैं. स्वर्ण जयंती का अवसर. मुंगेर में 23 से 27 अक्तूबर 2013 के बीच विश्व योग सम्मेलन की तैयारी चल रही है. देश के लगभग पांच सौ शहरों में योग प्रचारक जा रहे हैं. उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों से लेकर देश के हर शहर तक.
1963 में वसंत पंचमी के दिन बिहार स्कूल ऑफ योगा की नींव पड़ी. तब स्वामी सत्यानंद जी ने कहा था, योग भविष्य की संस्कृति है. सोचिए उनकी दूरदृष्टि या भविष्य समझने की क्षमता. मुंगेर आश्रम में तब से यानी 1963 से वह ज्योति जल रही है. जिस निष्ठा, आस्था और सजगता से इस जलती ज्योति को आश्रमवासी जलाये हुए हैं, वह अद्भुत है. सबेरे मुंगेर आश्रम में इस ज्योति की सेवा होती है. तेल बदलना. बाती से बाती जलाना. जिस पवित्रता और सात्विक बोध से आश्रमवासी इस ज्योति को जलाये हुए हैं, वह श्रद्धा और समर्पण से ही संभव है.
मुंगेर शहर पहली बार जाना हुआ. आश्रम भी. अफसोस हुआ कि यहां आने में इतना विलंब हुआ. यह बोध कुछ खोने जैसा है. हिंदी इलाके का मानस, रग-रग, सब जानते हैं. वह भी मुंगेर का इलाका. हवा में ही तनाव की गंध. अपराध की पृष्ठभूमि. सृजन के सपने कभी भी अराजकता के बीच नहीं फलते-फूलते. न किसी कानून से ऐसे इलाके में हालात बदलते हैं. गहरी आस्था और श्रद्धा दो ही चीजें हैं, जिनसे बुनियादी बदलाव संभव है. पचास वर्षों से इसी बिहार में रह कर योग विद्यालय, शाब्दिक अर्थ में स्वर्ग लगता है. चेतना, साधना, तप वगैरह की बात अलग है. यह सब तो आश्रम की बुनियाद में है. पर पूरे आश्रम की सफाई, बिहार योग विद्यालय का सात्विक सौंदर्य, एक-एक चीज करीने से रखी हुई.
परिसर में जगह-जगह गोबर से लिपाई. पूरे माहौल में एक पवित्र सात्विक गंध. और यह सब एक बेचैन इलाके और प्रदेश में. यहीं देश-दुनिया के लोग एक साथ. एक जगह. संयोग से जिस दिन आश्रम में था, स्वामी धर्मशक्ति सरस्वती (1924-2013, श्रद्धेय स्वामी निरंजनानंद जी की मां) की स्मृति में षष्ठी कार्यक्रम था. पूजा-पाठ के बाद प्रसाद वितरण. प्रसाद वितरण में हजारों लोग. मुंगेर के छोटे-छोटे बच्चे , सबको अनुशासित करने, पंक्तिबद्ध चलने का रास्ता दिखाते. कैसे जायें? कहां जूते रखें, बताते बच्चे . नितांत गरीब औरतें-पुरुष भी बड़े-बड़े संन्यासियों के साथ एक जगह बैठ कर एक साथ प्रसाद पाते. एक ही पंक्ति में. गांधी का सबसे अंतिम आदमी, औरत-पुरुष, बड़े लोग, पढ़े-लिखे, यहां सब एक समान.
कोई शोरगुल नहीं. खुद स्वामी निरंजनानंद जी और स्वामी सूर्यप्रकाश सरस्वती एक -एक व्यक्ति की देखभाल करते रहे. न कहीं शोर, न कहीं अनुशासन भंग करने की कोशिश. पूरे माहौल में एक गरिमा और मर्यादा.
मन बार-बार भटकता. किसी सरकारी, गैर-सरकारी कार्यक्रम में या निजी कंपनियों के कामकाज में पग-पग पर अराजकता, असंतोष और अनुशासन न मानने के दृश्य. समाज, राज्य या हिंदी इलाकों के इसी रेगिस्तान में यह आश्रम नखलिस्तान (भिन्न, सर्वश्रेष्ठ) कैसे है? इसी तरह बगल में देवघर के पास रिखिया धाम है.
इन आश्रमों के पास धन नहीं है. स्वेच्छ्या लोग देते हैं. स्वामी जी लोगों द्वारा लिखित अद्भुत पुस्तकों से आय होती है. पिछले पचास वर्षों से इस परंपरा में भटकाव नहीं है. योग को दुनिया में फैलाने, उस पर वैज्ञानिक दृष्टि से काम करने का श्रेय सिर्फ बिहार योग विद्यालय को है.
इस परंपरा को है. यह परंपरा अपने मूल मकसद के प्रति साफ है. इसके साधन और साध्य में टकराव या भटकाव नहीं है. साध्य है, मानव की मुक्ति. चाहे वह किसी भी धर्म या क्षेत्र का हो. आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व की प्राप्ति. पूरे समर्पण से काम. इसलिए आज संसार में सच्ची आध्यात्मिकता के प्रति श्रद्धा है. लोग बाजार में हो रहे धर्म के खेल और चेहरे को समझते हैं. इसलिए बिहार योग विद्यालय जैसी संस्थाएं भीड़ में भिन्न दिखायी देती हैं.
स्वामी सत्यानंद जी यहां आये. अपने गुरु, स्वामी शिवानंद जी का आदेश पाकर. योग को द्वारे-द्वारे, तीरे-तीरे प्रचारित करने का मिशन लेकर. योग, व्यवहार और तंत्र के व्यवहारिक पक्षों को मिला कर बिहार योग परंपरा की शुरुआत हुई. योग के प्रकाश को वह दुनिया के कोने-कोने में ले गये. 80 से अधिक दुर्लभ ग्रंथों की रचना की. 1988 में उपलब्धियों के शिखर पर पहुंच कर सत्यानंद जी ने सब छोड़ दिया. फिर वह मुंगेर नहीं लौटे. रिखिया पीठ में एकांतवास किया. कठिन साधना और तप. फिर दिसंबर, 2009 में स्वेच्छ्या महासमाधि में लीन हो गये.
उन्होंने अपना कामकाज बहुत पहले स्वामी निरंजनानंद को सौंपा और कहा, ‘स्वामी निरंजनानंद के बारे में क्या कहा जाये. वह तो मेरे लिए ईश्वर का उपहार है. ईश्वर ने उसको मेरी झोली में डाल दिया. वह मेरे एकदम उल्टा है. वह मेरी कार्बन-कॉपी नहीं है. वह मेरी प्राप्ति है, मेरी पूर्णता है. स्वामी निरंजन जन्म से ही मेरे साथ हैं. उसने मुझे सबकुछ दिया, अपनी जवानी, अपना भविष्य, अपना सारा जीवन. उसकी कोई पत्नी नहीं, बच्चा नहीं है. बैंक बैलेंस नहीं है, कोई संपत्ति नहीं, कोई आकांक्षा नहीं. अगर कुछ है, तो सिर्फ सेवा की भावना. उसके भीतर हमेशा से यही भावना रही-‘आप मुझे जो करने को कहेंगे, मैं वही करूंगा.’
मैं सदा एक कठोर गुरु रहा हूं. पर स्वामी निरंजन ने मुझे वैसा ही स्वीकारा जैसा मैं हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि वह तुम्हें अंधकार से मुक्ति दिलाने का पथ बतलायेगा. जब भी तुम्हारे जीवन में अंधेरा हो और तुम रास्ता भूल रहे हो, तब वही तुम्हें दिशा-निर्देश देगा. मुझे पूरा विश्वास है कि वह तुम्हारे आध्यामिक जीवन में नैसर्गिक आलोक बन कर आयेगा.’
(स्वामी सत्यानंद जी)
1983 में परमहंस सत्यानंद जी ने अपने योगाचार्य और गुरु पद के सभी दायित्व स्वामी निरंजनानंद को हस्तांतरित कर दिये. फिर एक कठोर जीवन शैली अपनायी. हर चीज से पूर्ण विरक्त होकर, पंचाग्नि साधना की. तकरीबन 12 वर्षों तक. अत्यंत कठिन और अकल्पनीय. अन्य उच्च वैदिक साधनाएं कीं. उन्होंने 2009 में तीन बातें कहीं. पहली, रिखिया पंचायत के सभी बच्चों को प्रतिदिन एक समय का पौष्टिक आहार उपलब्ध कराना. दूसरी, संन्यास पीठ की स्थापना और तीसरी, रिखिया में वयोवृद्धों के लिए आवास-गृह का निर्माण. रिखिया पीठ की पीठाधीश्वरी स्वामी सत्यसंगानन्द इस काम में लगी हैं.
उधर निरंजनानंद जी अपने गुरु के संकल्पों को और ऊंचाई दे रहे हैं. 2008 में उन्होंने योग विद्यालय की बागडोर स्वामी सूर्यप्रकाश सरस्वती (1982 में अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को शहर में एक भारतीय परिवार में जन्में) को सौंप दी. अपने गुरु के पदचिह्नें पर चलने के लिए.
अब वह कठोर साधना का जीवन जीते हैं. इस बार निरंजनानंद जी पहली बार पंचाग्नि साधना में बैठे. अत्यंत कठिन साधना. 14 जनवरी (मकर संक्राति) से 11 फरवरी को पूर्णाहुति तक. चौतरफा आग के बीच बैठ कर. तापमान 50-55 डिग्री के बीच. आगामी नौ वर्षों तक वह ऐसी साधना करेंगे. लगातार और कठोर रूप से. वह 11 फरवरी को इस कठिन साधना से उठे. 12 फरवरी को उनकी मां ने शरीर त्यागा.
मुंगेर, रिखिया की परंपरा भिन्न है. मनुष्य अपने होने का अर्थ जाने. अधिक से अधिक ऊंचाई पर जाये. यहां किसी को पद से लगाव नहीं है. स्वामी निरंजनानंद जी की उम्र बमुश्किल 52 वर्ष है, पर वह अपने सब दायित्वों से मुक्त हैं. इनके सरोकार के मूल में समाज है. योग से शरीर और मन बदलने का लक्ष्य है. इनका मानना है कि स्वस्थ शरीर और मस्तिष्क को ध्यान वगैरह की विधियों से अनुशासित कर कोई भी सामान्य इंसान बेहतर बन सकता है. वह इसके वैज्ञानिक और मेडिकल कारण बताते हैं. योग की और गहराई में उतर कर इंसान ईर्ष्या, द्वेष, जलन, अहंकार वगैरह से न्यूनतम प्रभावित रह सकता है.
यह जीवन जीने की एक विधि सिखाता है. एक बेहतर माहौल, तनावरहित आबोहवा, इसी रास्ते संभव है. ऐसे केंद्र ही धरती पर जीवित स्वर्ग हैं. मुंगेर आश्रम में पहली बार जाना हुआ. शाम में पहुंचा. पाया कि पेड़ों के नीचे दीये जलाये गये हैं. बचपन के दिनों का गांव याद आया, जब पेड़ों की पूजा देखी थी. शाम को दीप जलाकर. फिर शाम को भजन-कीर्तन, प्रवचन का संक्षिप्त कार्यक्रम रहा. पूरे माहौल में एक प्रेम, आत्मीय संवाद. देश-विदेश के कोने-कोने से लोग एक साथ जमा. यह सब मिल कर ही ऐसी जगहों को स्वर्ग बनाते हैं.
सेवा से स्वर्ग की रचना, यह बात समझ में आयी. मुंगेर आश्रम को देख कर लगा कि सेवा के पीछे श्रद्धा है और गहरी आस्था. इसी चरित्र, अनुशासन, श्रद्धा और सेवा से ही हम देश, समाज, संस्था या घर को स्वर्ग बना सकते हैं. बिहार योग विद्यालय के पचास वर्ष के होने के अवसर पर यह सूक्ति हम सब के मन में उतरे, तो एक नये समाज का उदय संभव है.आश्रम क्या है? सात्विक-सादा भोजन. नियमित अनुशासित जीवन. न धनलिप्सा, न पद चाह. स्वामी शिवानंद, स्वामी सत्यानंद, स्वामी निरंजनानंद, अब स्वामी सूर्यप्रकाश सरस्वती.
अगली पीढ़ी तैयार करना, पद सौंपना. यह परंपरा शीर्ष से है. बाहर के समाज में पद ही सबकुछ है. हैं, मृत्युशय्या पर, लेकिन पावर, पद चाहिए. यह बाहर का संसार है. यहां है, ‘मैं कौन हूं’ जानने की लगातार उत्कंठा. मिले दान से आश्रम व समाज का काम. याद रखिए, मुंगेर आश्रम या रिखिया आश्रम आवागमन की दृष्टि से आसान नहीं हैं. अब बिहार की सड़कें बहुत अच्छी हैं, पर पहले क्या हाल था? फिर भी उद्योगपति वाडिया, उद्योगपति अनिल अंबानी का परिवार, फिल्म के शीर्ष लोग संसार के कोने-कोने से यहां पहुंचते हैं.
कैसे? क्योंकि यहां काम बोलता है. प्रचार नहीं. आश्रम की संस्कृति, काम से खिंचे आते हैं, लोग. यहीं मिले वह अमेरिकी, जो आइबीएम में शीर्ष पर थे. दुनिया में कंप्यूटर बनानेवालों की पहली पांच सदस्यीय टीम में से एक. ब्रिलियेंट मैथेमेटिशियन (उम्दा गणितज्ञ). चांद पर अपोलो की लैंडिग की जगह तय करनेवालों में से एक. पर आश्रम में सब भूल कर सेवा-साधना में रत साधक. इसलिए पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जैसे लोग यहां पहुंच कर इसका बार-बार उल्लेख करते हैं.
स्वामी निरंजनानंद की परिकल्पना है ‘सत्यम वाटिका’ अपने गुरु सत्यानंद जी की स्मृति में. यहां लिखी एक-एक चीज, उद्गार मन को स्पर्श करनेवाले हैं. प्रथम योग विश्वविद्यालय के पचास वर्ष होने का गौरव-फख्र, आज भारत को है. छोटी जगह से दुनिया में प्रकाश फैलाता आश्रम.
दिनांक – 03.03.13