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सुख-दुख से अप्रभावित आत्मा

जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश का आश्रय लेकर मनुष्य अपनी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, वैसे ही चैतन्य आत्मा का आश्रय लेकर शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि आदि अपने-अपने व्यापार में प्रवृत्त होते हैं. पृथ्वी पर जीवन का स्नेत सूर्य है, उसी के कारण इस पृथ्वी पर वनस्पति से लेकर मनुष्य तक के जीवन की सभी […]

जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश का आश्रय लेकर मनुष्य अपनी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, वैसे ही चैतन्य आत्मा का आश्रय लेकर शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि आदि अपने-अपने व्यापार में प्रवृत्त होते हैं. पृथ्वी पर जीवन का स्नेत सूर्य है, उसी के कारण इस पृथ्वी पर वनस्पति से लेकर मनुष्य तक के जीवन की सभी गतिविधियां चलती हैं, इनके लिए न तो सूर्य कोई आदेश ही देता है न प्रेरणा, किंतु उसके बिना भी सृष्टि का कार्य नहीं चल सकता.

उसके कारण मनुष्य को सुख-दुख आदि होता है, जिसका प्रभाव उस पर नहीं होता. इसी प्रकार मनुष्य का शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि आदि के व्यापार का कारण वह आत्मचेतना है, जिससे ये जड़ पदार्थ चैतन्य होकर अपने-अपने कार्यो में प्रवृत्त होते हैं. इसमें चेतनाशक्ति इनको अपना कार्य करने की शक्ति मात्र देती है. वह इनको न कार्य करने का आदेश देती है, न इनके कार्यो से होनेवाले सुख-दुख की भागीदार ही होती है. विद्युत से यंत्र चलते हैं, किंतु वह उन्हें चलाती नहीं.

यंत्र खराब होने पर यदि वे कार्य नहीं करते तो इसमें विद्युत का कोई दोष नहीं है. इसी प्रकार की आत्मा की चेतन शक्ति है. जिस प्रकार बिना विद्युत के यंत्र कार्य करना बंद कर देते हैं, उसी प्रकार बिना आत्मा की चेतन शक्ति के यह शरीर रूपी यंत्र निर्जीव हो जाता है. सूर्य की ही भांति यह आत्मा शरीर के सुख-दुख आदि से अप्रभावित रहती, क्यों आत्मा जड़ नहीं चेतन तत्व है.

आदि शंकराचार्य

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