अहिंसा : आवेश का उपशम

जो लोग सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं, वे अहिंसा की शीतल छाया में विश्रम पाने के लिए सदा ही उत्सुक रहते हैं. अहिंसा का क्षेत्र सूर्य के प्रकाश की भांति प्राणी मात्र के लिए अपेक्षित है. इसके बिना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात केवल कल्पना बन कर रह जाती है. अहिंसा का आलोक जीवन की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 14, 2015 12:30 AM

जो लोग सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं, वे अहिंसा की शीतल छाया में विश्रम पाने के लिए सदा ही उत्सुक रहते हैं. अहिंसा का क्षेत्र सूर्य के प्रकाश की भांति प्राणी मात्र के लिए अपेक्षित है.

इसके बिना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात केवल कल्पना बन कर रह जाती है. अहिंसा का आलोक जीवन की अक्षय संपदा है. यह संपदा जिन्हें उपलब्ध हो जाती है, वे नये इतिहास का सृजन करते हैं. वे उन बंधी-बंधाई परंपराओं से दूर हट जाते हैं, जिनकी सीमाएं हिंसा से बाहर होती हैं. परिस्थितिवाद का बहाना बना कर वे हिंसा को प्रश्रय नहीं दे सकते.

अहिंसा की चेतना विकसित होने के अनंतर ही व्यक्ति की मनोभूमिका विशद बन जाती है. वह किसी को कष्ट नहीं पहुंचा सकता. इसके विपरीत हिंसक व्यक्ति अपने हितों को विश्व-हित से अधिक मूल्य देता है. किंतु ऐसा व्यक्ति भी किसी को सताते समय स्वयं संतप्त हो जाता है.

किसी को स्वायत्त बनाते समय उसकी अपनी स्वतंत्रता अपहृत हो जाती है. किसी पर अनुशासन थोपते समय वह स्वयं अपनी स्वाधीनता खो देता है. इसीलिए हिंसक व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट और समाहित नहीं रह सकता. उसकी हर प्रवृत्ति में एक खिंचाव-सा रहता है. वह जिन क्षणों में हिंसा से गुजरता है, एक प्रकार के आवेश से बेभान हो जाता है. आवेश का उपशम होते ही वह पछताता है, रोता है और संताप से भर जाता है.

आचार्य तुलसी

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