परमात्मा हमारे हृदयों में विराजमान है. फिर भी मनुष्य उसे भूला हुआ है. उसे देखता नहीं, पहचान तक नहीं और उसकी आज्ञाओं पर ध्यान नहीं देता. कहने को तो लोग ईश्वर को जानते भी हैं और मानते भी हैं, पर व्यवहार में उसका एक प्रकार से बहिष्कार ही कर देते हैं.
अमीरों में उतनी उदारता नहीं होती, तो भी अमीरों या अफसरों का जितना आदर करते हैं, उतना ईश्वर का नहीं करते. बेटे के ब्याह में जितना खर्च कर देते हैं, उससे चौथाई भी ईश्वर के निमित्त नहीं लगाते.
या तो धन, संपदा, बेटा, पोता, जीत, स्वास्थ्य, विद्या, बुद्धि, स्वर्ग, मुक्ति आदि प्राप्त करने के लिए ईश्वर को टटोलते हैं या कोई विपत्ति आ जाने पर छुटकारे के लिए उसे पुकारते हैं. अध्यात्म का जो लोग शोध कर रहे हैं, राजयोग के लिए यम-नियमों की जो साधना करना चाहते हैं, उन्हें ईश्वर प्रणिधान का तत्त्वज्ञान भली प्रकार समझना होगा. योग के आठ अंगों में से द्वितीय अंग नियम का पांचवां नियम ईश्वर पूजा नहीं वरन् ईश्वर प्रणिधान है.
परमात्मा की हृदय में स्थापना करना, हर घड़ी अपने साथ देखना, रोम-रोम में उसका अनुभव करना ईश्वर प्रणिधान का चिह्न् है. मंदिर में पूजा के लिए पुजारी नियत करना पड़ता है जो यथासमय सारी पूजापत्री किया करे. ईश्वर प्रणिधान में ईश्वर की प्रतिमा हृदय में, अन्त:करण में स्थापित करनी होती है और उसे चौबीस घंटे का साथी बनाना पड़ता है.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य