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अध्यात्म से ही सुख की पूर्ति

एक बुढ़िया सड़क पर सुई खोज रही थी. कुछ बच्चे आये और पूछा-‘दादी! क्या खोज रही हो?’ बुढ़िया ने कहा-‘सुई.’ बच्चों ने पूछा-‘दादी! सुई कहां गुम गयी थी?’ बुढ़िया ने कहा- ‘कमरे में गुम हुई थी.’ बच्चे बोले- ‘दादी! यह क्या? सुई कमरे में गिरी और उसे तुम खोज रही हो सड़क पर. वह कैसे […]

एक बुढ़िया सड़क पर सुई खोज रही थी. कुछ बच्चे आये और पूछा-‘दादी! क्या खोज रही हो?’ बुढ़िया ने कहा-‘सुई.’ बच्चों ने पूछा-‘दादी! सुई कहां गुम गयी थी?’ बुढ़िया ने कहा- ‘कमरे में गुम हुई थी.’

बच्चे बोले- ‘दादी! यह क्या? सुई कमरे में गिरी और उसे तुम खोज रही हो सड़क पर. वह कैसे मिलेगी भला?’ बुढ़िया बोली- ‘बेटा, क्या करूं! कमरे में अंधेरा है. प्रकाश केवल सड़क पर ही है. प्रकाश में ही तो ढूंढ़ रही हूं.’ हमारे जीवन में ऐसे विरोधाभास चलते रहते हैं. हम दूसरों के विरोधाभास पर हंसते हैं, उनकी मूर्खता का उपहास करते हैं, किंतु हम स्वयं अपने जीवन में न जाने कितने विरोधाभासों को पालते चले जाते हैं.

सुख का निर्झर भीतर है और हम बाहर खोज रहे हैं. साधना इस भ्रांति को चूर-चूर कर देती है. वह सुख को खोजने के लिए भीतर में प्रवेश करने की ओर प्रेरित करती है और आवश्यकता की पूर्ति के लिए पदार्थ को अपेक्षित बताती है. पदार्थ सुख नहीं देते, वे आवश्यकता की पूर्ति मात्र करते हैं. दो खोजे हैं.

एक है आवश्यकता-पूर्ति की खोज और दूसरी है सुख की खोज. आवश्यकता की पूर्ति पदार्थ से ही संभव है, अध्यात्म से वह नहीं हो सकती. जबकि सुख की उपलब्धि केवल अध्यात्म से ही संभव है, पदार्थ से नहीं हो सकती. पदार्थ का समूचा क्षेत्र आवश्यकता की पूर्ति का क्षेत्र है. अध्यात्म का क्षेत्र इससे बिल्कुल उल्टा है. वह है सुख-पूर्ति का क्षेत्र.

आचार्य महाप्रज्ञ

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