साक्षात शिव स्वरूप है कांवर यात्रा
सुरेश गांधी जी हां, कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है. इस यात्रा के जरिए जो शिव की आराधना कर लेता है, वह धन्य हो जाता है. कांवर का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार. अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करे वह कांवरिया. कैलाश मानसरोवर, अमरनाथ यात्रा , शिवजी […]
सुरेश गांधी
जी हां, कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है. इस यात्रा के जरिए जो शिव की आराधना कर लेता है, वह धन्य हो जाता है. कांवर का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार. अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करे वह कांवरिया. कैलाश मानसरोवर, अमरनाथ यात्रा , शिवजी के द्वादश ज्योतिर्लिग (जो विभिन्न राज्यों में स्थित हैं) कांवर यात्रा आदि बहुत महंगी होने के कारण तथा अति दुष्कर होने के कारण सा के सामथ्र्य में नहीं होती. अमरनाथ यात्रा भी दूरस्थ होने के कारण इतनी सरल नहीं है, परन्तु कांवर यात्रा की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है.
वैसे तो भगवान शिव का अभिषेक भारत वर्ष के सारे शिव मंदिरों में होता है, लेकिन श्रावण मास में कांवर के माध्यम से जल-अर्पण करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है.
वेद-पुराणों सहित भगवान भोलेनाथ में भरोसा रखने वालों को विश्वास है कि कांवर यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की ही धारा होती है. कांवर के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है. तभी तो सावन शुरू होते ही इस आस्था और अटूट विश्वास की अनोखी कांवर यात्रा से पूरा का पूरा इलाका केशरिया रंग से सराबोर हो जाता है. सुलतानगंज से देवघर तक पूरा माहौल शिवमय हो जाता है. इतना ही नहीं, देश के अन्य भागों में भी कांवर यात्रा एं होती हैं. अगर कुछ सुनाई देता है तो वो है हर-हर महादेव की गूंज, बोलबम का नारा. कुंवारी लड़कियों से लेकर बुजुर्ग तक सा सावन के महीने में भगवान शिव को प्रसन्न करने में लीन दिखाई देते हैं.
कोई संपूर्ण माह व्रत रखता है तो कोई सोमवार को, परन्तु सारे महत्पूर्ण आयोजन है ये कठिन यात्रा एं जिनका गंतव्य शिव से संबंधित देवालय होते हैं, जहां जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करतें हैं. भगवान भोलेनाथ का ध्यान जा हम करते हैं तो श्रावण का महीना, रूद्राभिषेक और कांवर का उत्सव आंखों के सामने होता है.
शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सा रूपों में कहीं न कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़ के रूप में पूजनीय हैं. जल साक्षात शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं. बेल शिववृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है. गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूराफल आदि सब में शिव सत्ता मानी गयी है. अत: सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ की सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव की सिद्धि है.
कांवर शिव के उन सभी रूपों को नमन है. कंधे पर गंगा को धारण किए श्रद्धालु इसी आस्था और विश्वास को जीते हैं. यानी कांवर यात्रा शिव के कल्याणकारी रूप और निष्ठा के नीर से उसके अभिषेक को तीव्र रूप में प्रतिध्वनित करती है. कांवर यात्रा के हर कदम के साथ एक अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है. यूपी, बिहार सहित दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान तक में कांवड़ लाने का प्रचलन है. घरों में भी प्राय: श्रद्धालु शिवालयों में जाकर सावन मास में भगवान शिव का जलाभिषेक, दुग्धाभिषेक, करते हैं.
ऐसा नहीं है कि कांवर यात्रा कोई नयी बात है. यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है.
फर्क बस इतना है कि पहले इक्का-दुक्का शिव भक्त ही कांवर में जल लाने की हिम्मत जुटा पाते थे, लेकिन पिछले वर्षों से शिव भक्तों कि संख्या में लगातार वृद्धि होती चली जा रही है. मतलब इक्का-दुक्का से सैंकड़ों फिर हजारों और अब लाखों-करोड़ों कांवरिये जलाभिषेक अपने आराध्य देव भगवान भोलेनाथ को कर रहे है. उत्तर भारत में विशेष रूप से पश्चिमी व पूर्वी यूपी 10 वर्षों से कांवर यात्रा एक पर्व कुंभ मेले के समान एक महा आयोजन का रूप ले चुकी है. देवघर में कांवड़ यात्रा का खासा महत्व है.कांवर यात्रा के लिए शिव के भक्त पूरे साल इंतजार करतें हैं कि कब वो सुल्तानगंज के लिए प्रस्थान करेंगे.
कठिन यात्रा को पैदल पार करके भगवान भोले नाथ पर चढायेंगे. कुछ लोग तो गंगोत्री तक से भी जल लेकर बाबाधाम में चढ़ाते हैं. हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवरिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरे कांवर लेकर पद यात्रा कर अपने गांव वापस लौटते हैं.
श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है. कहने को तो ये धार्मिक आयोजन है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं. कांवर के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है. पानी आम आदमी के साथ साथ पेड़, पौधों, पशु-पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारों लाखों तरह के प्राणियों-जीवों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक है.
संपूर्ण भारत में भगवान शिव का जलाभिषेक करने के लिए भक्त अपने कंधों पर कांवर लिए हुए गोमुख (गंगोत्री) तथा अन्य समस्त स्थानों पर जहां भी पतित पावनी गंगा विराजमान हैं, से जल होकर अपनी यात्रा के लिए निकलते हैं.
कांवर की जानकारी उस प्रसंग से प्राप्त होती है, जा मात-पितृ भक्त श्रावण कुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता को कांवर में बैठाकर तीर्थयात्रा के लिए निकले थे. ‘कस्य आवर: कांवर: अर्थात परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ वरदान है कांवर. एक अन्य मीमांसा के अनुसार, क का अर्थ जीव और अ का अर्थ विष्णु है, वर अर्थात जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम. इसी तरह कां का अर्थ जल माना गया है और आवर का अर्थ उसकी व्यवस्था. जलपूर्ण घटों को व्यवस्थित करके विश्वात्मा शिव को अर्पित कर परमात्मा की व्यवस्था का स्मरण किया जाता है. क का अर्थ सिर भी है, जो सारे अंगों में प्रधान है, वैसे ही शिव के लिए कांवर का महत्व है जिससे ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन होता है. क का अर्थ समीप और आवर का अर्थ सम्यक रूप से धारण करना भी है. जैसे वायु सब को सुख, आनंद देती हुई परम पावन बना देती है वैसे ही साधक अपने वातावरण को पावन बनाए. इन तमाम अर्थों के साथ कांवर यात्रा का उल्लेख एक रूपक के तौर पर भी करते हैं. गंगा शिव की जटाओं से निकली.
उसका मूलस्नेत विष्णु के पैर हैं. भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर विष्णु ने गंगा से जा पृथ्वी पर जाने के लिए कहा तो वह अपने इष्ट के पैर छूती हुई स्वर्ग से पृथ्वी की ओर चली. वहां उसके वेग को धारण करने के शिव ने अपनी जटाएं खोल दीं और गंगा को अपने सिर पर धारण किया. वहां से गंगा सागरपुत्रों का उद्धार करने के लिए बहने लगी.
कांवर यात्रा के दौरान साधक या यात्रा ी वही गंगाजल लेकर अभिष्ट शिवालय तक जाते हैं और शिवलिंग का अभिषेक करते हैं. शिव स्तोत्र के रचयिता आचार्य पुष्पदंत के अनुसार, यह यात्रा गंगा का शिव के माध्यम से प्रत्यावर्तन है- अभिष्ट मनोरथ पूरा होने के बाद उस अनुग्रह को सादर श्रद्धापूर्वक वापस करना. कांवर से गंगाजल ले जाने और अभिषेक द्वारा शिव को सौंपने का अनुष्ठान शिव और गंगा की समवेत आराधना भी है. कांवर के व्युत्पत्तिपरक जो अर्थ किए गए हैं, उनमें एक के अनुसार क अक्षर अग्नि को द्योतक है और आवर का अर्थ ठीक से वरण करना.
प्रार्थना यह है कि अग्नि अर्थात स्रष्टा, पाक एवं संहारकर्ता परमात्मा हमारा मार्गदर्शक बने और वही हमारे जीवन का लक्ष्य हो तथा हम अपने राष्ट्र और समाज को अपनी शक्ति से सक्षम बनाएं.
देव भूमि हिमालय को देवताओं का निवास भी कहा गया है. शिव भी इसी क्षेत्र कैलाश में कहीं रहते हैं.कम से कम श्रद्धालु जन तो यही मानते हैं कि शिव परमात्मा के रूप में तो सर्वव्यापी हैं, कण कण में विराजमान हैं पर पार्थिव रूप में वे इसी क्षेत्र में यहीं रहते हैं. उनसे सांधित पुराण प्रसिद्ध घटनाओं का रंगमंच यही क्षेत्र रहा है. महाकवि कालिदास ने हिमालय को शिव का प्रतिरूप बताते हुए इसके सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व को रेखांकित किया है.
उनके अनुसार, हिमालय को देखें तो समाधि में बैठे महादेव, बर्फ के समान गौर उनका शरीर, चोटियों से बहते नद, नदी ग्लेशियर, झरने उनकी जटाएं, रात में चन्द्रोदय के समय सिर पर स्थित चन्द्रकला, गंगानदी का धरती पर आता अक्स खुद-ब-खुद दिमाग में उभरता जाता है.
पौराणिकता मान्यता है कि कांवर यात्रा एवं शिवपूजन का आदिकाल से ही अन्योन्याश्रित संबंध है. इस संदर्भ में सर्वप्रथम यह जानना अति आवश्यक है कि महेश्वर शिव जी का यह लिंग-रूप इतना महिमामय तथा पुण्यात्मक क्यों माना गया है तथा इसकी पौराणिकता का आधार क्या है?
लिंग स्वरूप शिव तत्व का वर्णन लिंग पुराण में इस प्रकार किया गया है-‘‘निगरुण निराकार ब्रह्म शिव ही लिंग के मूल कारण तथा स्वयं लिंग-रूप भी हैं. शद, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि से रहित अगुन, अलिंग (निगरुण) तत्व को ही शिव कहा गया है तथा शद, स्पर्श, रूप, रस, गंधादि से संयुक्त प्रधान प्रकृति को ही उत्तम लिंग कहा गया है.’’ वह जगत का उत्पत्ति स्थान है. पंच भूतात्मक अर्थात- पृथ्वी, जल, तेज, आकाश वायु से युक्त हैं, स्थूल है. सूक्ष्म है, जगत का विग्रह है तथा लिंग तत्व निगरुण परमात्मा शिव से स्वयं उत्पन्न हुआ है.
प्रधान प्रकृति ही सदाशिव के आश्रय को प्राप्त करके ब्रह्मंड में सर्वत्र चतुमरुख ब्रह्म , शिव और विष्णु का सृजन करती है. इस सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करने वाले वे ही एकमात्र महेश्वर हैं. वे ही महेश्वर क्रमपूर्वक तीन रूपों में होकर सृष्टि करते समय रजोगुण से युक्त रहते हैं. पालन की स्थिति में सत्वगुण में स्थित रहते हैं, तथा प्रलय काल में तमोगुण से आविष्ट रहते हैं. वे ही भगवान शिव प्राणियों के सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहर्ता हैं.
हरिद्वार में भगवान परशुराम ने शुरु की कांवर यात्रा
हरिद्वार में कांवर यात्रा के बात कहा जाता है सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवर लाकर ‘पुरा महादेव’, जो यूपी के बागपत में है, भगवान भोलेनाथ की नियमित पूजा करते थे. श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को गढ़मुक्तेश्वर से कांवर में गंगा जल लाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक किया करते थे.
आज भी उसी परंपरा का अनुपालन करते हुए श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर, जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर लाखों लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं. कहते है भगवान शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है.
श्रावण में भगवान भोलेनाथ का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शितलता मिलती है. भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है. खास तौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है.
इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताये गये हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाये गये पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है. भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए. सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाया जाना उचित नहीं है.
भगवान भोलेनाथ के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में लाभकारी है. शिव की पूजा से पहले नंदी व परशुराम की पूजा की जानी चाहिए. शिव का जलाभिषेक नियमित रूप से करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है. उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवर का बहुत महत्व है. राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवड़िये कहते थे.
ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे. यह एक प्रचलित परंपरा थी. लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था. इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है.
इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था.इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था. परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है.
आ लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थों के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर श्रावण मास में भगवान का जलाभिषेक करते हैं.
बाबा बैजनाथ धाम में मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने की जलाभिषेक
बाबा बैद्यनाथधाम कांवर यात्रा के संबंध में कहा जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी सदाशिव को कांवर से जल चढ़ाया था. आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान श्री राम ने कांवरिया बनकर सुलतानगंज से जल लिया और देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिग का अभिषेक किया.
कंधे पर गंगाजल होकर भगवान शिव के ज्योतिर्लिगों पर चढ़ाने की परंपरा, कांवर यात्रा कहलाती है. कहते हैं यह भक्तों को भगवान से जोड़ती है. महादेव को प्रसन्न कर मनोवांछित फल पाने के लिए कई उपायों में एक उपाय कांवर यात्रा भी है, जिसे शिव को प्रसन्न करने का सहज मार्ग माना गया है. वैसे तो कांवड़ शब्द के कई मायने हैं.
एक अर्थ यह भी है- क यानी ब्रह्म (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) और जो उनमें रमन करे वह कांवरिया जो नियमों का सम्यक पान करके अपने आपको इन देवों की शक्तियों से संपूरित कर देकांवर तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है. धूप-दीप की खुश्बू, मुख में बोलबम का नारा, मन में बाबा एक सहारा. जारी..
(आलेख भवतारिणी न्यूज पोर्टल से साभार)