स्वामी सत्यानंदजी के साथ ढाई घंटे
– हरिवंश – देवघर सीता कल्याणम व शतचंडी महायज्ञ में पिछले साल आना हुआ था. स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी को सुनने का प्रबल लोभ (या आकर्षण) था. 40 देशों के लोग, हर धर्म, मजहब और कौम के लोग. देवघर के पास एक गांव रिखिया में. यह देखना-जानना भी एक अद्भुत अनुभव है. उन्हें जब-जब सुनता […]
– हरिवंश –
देवघर सीता कल्याणम व शतचंडी महायज्ञ में पिछले साल आना हुआ था. स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी को सुनने का प्रबल लोभ (या आकर्षण) था. 40 देशों के लोग, हर धर्म, मजहब और कौम के लोग. देवघर के पास एक गांव रिखिया में. यह देखना-जानना भी एक अद्भुत अनुभव है.
उन्हें जब-जब सुनता हं, डूब जाता हूं. यह कहना सही होगा, खो जाता हं. सुध-बुध से परे. कल भी ऐसा ही हुआ (2 नवंबर, 2008). सुन कर उठा तो पाल ब्रंटन याद आये. पाल ब्रंटन ब्रिटिश पत्रकार थे. बाद में भारतीय अध्यात्म के ‘अध्येता या पुजारी ‘ हो गये. अनेक उल्लेखनीय किताबें लिखीं. गुप्त भारत की खोज अद्भुत किताब के लेखक भी वही हैं.
रमण महर्षि के बारे में अपना अनुभव बताते हए पाल ब्रंटन ने लिखा है. हर जिज्ञासु की तरह महर्षि के सामने मैं भी प्रश्नों और शंकाओं से भरा हुआ पहुंचा था. बहुत से सवाल मैंने आते हुए ट्रेन में तैयार किये थे. किंतु महर्षि के सानिध्य में पहुंचकर मेरी हालत बदल गयी. जिस समय उन्होंने आंखें गड़ा कर मुझे देखना आरंभ किया, मुझे महसूस होने लगा, मैं महाशांति के समुद्र में डूब रहा हं. मेरे भीतर कोई भी शंका शेष नहीं है…
यही हाल अंगरेजी के प्रसिद्ध उपन्यास लेखक और ग्रंथकार सामरसेट मॉम के साथ हुआ. महर्षि ने सामरसेट मॅाम को देखा. मॉम का हृदय शांति और आनंद से भर गया. फिर सामरसेट मॉम अचानक बोल पड़े. मुझे तो कुछ प्रश्न करना था, मगर अब सूझता ही नहीं कि क्या पूछना चाहिए.(पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष : रामधारी सिंह दिनकर)
अनेक जाने-माने लोगों के ऐसे अनुभव हैं. रेशनलिस्ट, समझदार, पढ़े-लिखे विद्वान लोगों के. कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति, स्वामी सत्यानंद जी को सुनते हुए हर बार होती है. नहीं जानता ‘कैसे और क्यों’? न जानना चाहता हूं. स्वामी जी का दर्शन ‘रेअर’ (दुर्लभ) है. अनेक महान और अकल्पनीय बड़े काया को पूरा करने के बाद वर्षों से वह साधना, ध्यान और तप में लीन हैं. कभी-कभार दर्शन देते हैं. संतों को अपने ढंग से निर्विघ्न रहने देने की मान्यता है, हमारी परंपरा में. और सत्यानंद जी के बारे में सुनता हूं, उन्हें किसी संस्था-जगह से लगाव नहीं. वह कभी भी कहीं जा सकते हैं. पहले भी उन्होंने महान और विश्वव्यापी संस्थाएं बनायीं. पल भर में छोड़ दिया.
इसलिए उनकी साधना में खलल डालने (मिलने के लिए समय मांग कर) से भय लगता है. पर उन्हें देखना और सुनना, एक दुर्लभ अनुभव है. पुतुल भाभी (सांसद दिग्विजय जी की पत्नी) पहली बार उन्हें देखी-सुनी हैं. स्वामी जी से मिल कर निकलने के कुछ देर बाद उनके अनुभव पूछता हूं. उनका जवाब संपूर्ण है, ‘गूंगे से गुड़ के अनुभव पूछने जैसा.’
एक आश्रम की उपस्थिति ने कैसे गांव का, गरीबों का, युवाओं का चेहरा बदल दिया है, वर्षों से यह देख रहा हूं. चुपचाप काम करते हुए. स्वामी सत्संगी जी के प्रबंधन की कला, सुरुचिपूर्ण काम और दृष्टि देख कर हैरानी होती है. अविश्वास जैसा. गरीब बच्चे-बच्चियों को परफेक्ट प्रशिक्षण.
अंगरेजी, कंप्यूटर वगैरह का. इससे बढ़ कर जीवन जीने की पद्धति और कला में निपुण बनाने का. जेएनयू के एक प्रोफेसर ने ऐसी आध्यात्मिक संस्थाओं के उल्लेखनीय और सामाजिक योगदानों पर महत्वपूर्ण काम किया है. क्या सरकारें , स्वयंसेवी संस्थाएं, ऐसे काम करेंगी! अद्भुत और अविश्वसनीय. पर प्रचार की जरा भी इच्छा नहीं.
रिखियापीठ या स्वामी निरंजनानंद जी (बिहार योग विद्यालय) या योगदा आश्रम(स्वामी श्रद्धानंद जी, स्वामी निष्ठानंद जी, भाईश्री जैसे लोग) जैसी संस्थाएं- लोग हैं, जो जेनुइनली प्रचार-प्रसार से दूर रहना चाहते हैं. अपने काम में डूबे हए संत-संस्थाएं. स्थितिप्रज्ञता यही है, मन पूछता है? कामनाओं से परे. निरासक्त. फिर भी लगातार कर्म व सेवा.
स्वामी सत्यानंद जी को देखता हूं, तो बंगाल के परमहंस रामकृष्ण और दक्षिण के रमण महर्षि याद आते हैं. बंगाल के पुनर्जागरण, उदारता, एक लिबरल समाज बनाने में परमहंस का कितना बड़ा योगदान है? दक्षिण में रमण महर्षि के होने से समाज, माहौल पर ऐसा ही असर हुआ. स्वामी सत्यानंद जी की उपस्थिति कुछ ऐसी ही है. योगियों से, संन्यासियों से, संतों से अतीत और उम्र नहीं पूछते. अंदाज करता हैं. स्वामी जी 100 के आसपास होने चाहिए. वह बर्मा, रंगून, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, ल्हासा, मानसरोवर सब घूमे हैं.
पैदल. युवा दिनों में. फिर योग को दुनिया में स्थापित किया. योग पुनर्जागरण के एकल केंद्र बने. वैज्ञानिक दृष्टि से योग पर अध्ययन और अपार साहित्य उनकी देन है. रिखिया के एकांत में रह कर दुनिया की एक-एक खबर. किसी विषय पर जब वह बोलते हैं, स्त्रोत बताते हैं, तो स्तब्ध होने का भाव उपजता है. हर भेंट में. एक व्यक्ति के पास ज्ञान का यह भंडार अतीत से लेकर अधुनातन तक. पर संतों व फकीरों का रहस्य किसने जाना?
आज के हालात पर सुनने की इच्छा है. स्वामी जी कहते हैं. इतिहास से सीखो-जानो. काल ने हर चीज का ‘एक्सपायरी डेट’ (उम्र-अवधि) तय कर रखा है. मसलन, कुत्ता कहते हैं, 12 वर्ष जीता है. हाथी 50 वर्ष. इनसान की औसत उम्र 100 वर्ष. इसी तरह सभ्यताएं 5000 वर्ष अधिकतम.
बुद्ध से आनंद ने पूछा, आपने भिक्षु संघ बनाया. भिक्षुणी संघ की अनुमति दें. बुद्ध ने कहा, बनाओ, बौद्ध धर्म की आयु कम हो जायेगी. उनके इस कथन से भी स्पष्ट है. हर चीज की उम्र होती है. ईसाई धर्म 2000 साल पहले जन्मा. औद्योगिक क्रांति हुई. उसकी गहरी चोट ईसाई धर्म पर हुई. पर पुरानी धर्मांधता गयी.
धर्म में हिंसा का रूप गया. हिंदू धर्म शब्द सही नहीं है. यह सनातन धर्म है. पर एक सीमा बाद ‘आउटलेट’ चाहिए. किसी भी धर्म या समाज को . क्योंकि परिवर्तन या बदलाव ही सृष्टि के नियम हैं. सार्वभौम सच. इसी सनातन समूह से निकल कर लोग बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, जैन, वगैरह बने. ये ‘आउटलेट’ थे. लोग इससे निकले. धर्म बदला.
स्वामी जी धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने के कानून बनाने के सख्त खिलाफ हैं. इसके पीछे उनके ठोस और अकाट्य तर्क हैं. यह शाश्वत प्रक्रिया है. जो यथार्थ, व्यावहारिक और सच है. धर्म और आध्यात्म, दो अलग-अलग चीजें हैं. सुंदर ढंग से दोनों का फर्क वह बताते हैं. धर्म, कर्तव्य बोध कराता है. सोसाइटी के प्रति. पिता, पत्नी, संतान , समाज, देश, दुनिया, चर-अचर के प्रति. आध्यात्म अलग है. वह बताते हैं वैदिक धर्म ‘इवोल्यूशनी सिस्टम’ (विकासोन्मुख पद्धति) है.
इसलिए वह टिका है. अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, चार चीजें हैं. अर्थ और काम के मोरचे पर ‘वैदिक पद्धति’ में रिसेसन (मंदी) चल रहा था. भारत ने धर्म और मोक्ष पर जोर दिया. अर्थ, काम की उपेक्षा की. यह सही नहीं था. संतुलन बिगड़ा पर कठोर यथार्थ यह भी है कि दीर्घकालीन स्थायित्व के लिए अर्थ और काम को बेलगाम नहीं छोड़ा जा सकता. इन पर संयम और सीमा जरूरी है. वह एक और महत्वपूर्ण तथ्य कहते हैं. जिस देश या राष्ट्र में कठोर शासन चलते हैं, वहां अवनति तय है. कानून, सरल और सहज होने चाहिए. सस्टेंड ग्रोथ (लगातार प्रगति) यानी 10, 20, 30 हजार साल की प्रगति के लिए यह जरूरी है. वह कहते हैं ग्रोथ (विकास) स्लो(धीमा) और रिस्ट्रिक्टेड (सीमा के तहत) हो तो वह सस्टेंड (दीर्घकालीन) करेगा. अतिरेक न हो.
समाजवाद या पूंजीवाद के कोई ‘बीचवाद’ हो. उनकी यह बात सुन कर रूस के सर्वसत्तावादी प्रणाली (टोटेलिटेरियन सिस्टम) के बिखरने का स्मरण हो आता है. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी याद आती है. दुनिया के बड़े-बड़े डिक्टेटर और निरंकुश राजा याद आते हैं.
सबके सपने, आतंक और निरंकुश इरादे इतिहास के धूलों में मिल गये. गांधी भी याद आते हैं. जिनका मानना था मनुष्य या समाज खुद अंदर से बदलें . अंदर का बदलाव, खुद का बदलाव स्थायी होता है, यह संकेत मिलता है. स्वामी जी कहते हैं, समाज की बुनियादी आकांक्षा शांति की है. बुद्ध को याद करें. जब वह हुए, तो सभी राजा-रजवाड़े आपस में लड़ रहे थे . वैर से वैर का समाधान नहीं होता.
शैव-वैष्णव विवाद याद है, आज? लोग भूल गये. क्योंकि यह भूलना ही था. खत्म होना ही था. यही स्वाभाविक क्रम है. आज लोग भागवत, रामायण दोनों पढ़ते हैं. शंकराचार्य, बद्रीनाथ गये. वहां नारायण को प्रतिष्ठित किया, बदरीकाश्रम में. इसकी कथा है.
फिर तुलसीदास हुए. उन्होंने शंकर से ही पार्वती को रामकथा सुनवा दी. भेद, दूरी खत्म. आज कहां है, शैव-वैष्णव विवाद? भावना को कानून ठीक नहीं करता. शैव, शिव पूजते थे. वैष्णव, विष्णु भक्त. जैन, अर्हत तीर्थांकर को. बौद्ध, बुद्ध को. पर याद रखिए. अरजी (प्रार्थना) एक के पास ही जाती है. इसलिए इसी तरह सभी धर्मों का यह भेद- दूरी खतम होना चाहिए. सब कुछ कहने-लिखने के बाद ॠषियों ने क्या कहा? ‘नेति-नेति’ यानी हमने जो कहा है, इसके अलावा भी बहुत कुछ है.
ॠग्वेद के अंत में एक प्रार्थना है. स्वामी जी संस्कृत का वह श्लोक कोट करते हैं. जिसका आशय है, ‘अपनी विचित्रता के बावजूद हम साथ रहें-जीयें’. यह सुन कर गांधी, नेहरू के सपने याद आते. सभी धर्मों का गुलदस्ता बने भारत. अलग-अलग भाषाएं, धर्म, जीवन पद्धति. सब साथ रहें. स्वामी जी से श्लोक या उनकी बातें सुन कर अच्छा लगता है. उनकी बोलने की शैली-ओजस्वी आवाज. मधुर कंठ. चुंबक की तरह है सब. वह बताते हैं ज्ञान स्थिर वस्तु का नाम नहीं है.
यह सतत विकासशील है. (एवर ग्रोइंग ) ज्ञान के लिए संभावनाओं के सभी द्वार खोल कर रखने पड़ते हैं. सनातन धर्म में ब्रेक नहीं है. चेंज हमेशा होता रहा. पहले कहा गया, 33 करोड़ देवी-देवता हैं. सवाल उठा? 33 हजार कहा गया. फिर तीन पर बात आयी. ब्रह्मा, विष्णु और महेश.
फिर बदला, एक मान्य हुआ. वह भी तेरे अंदर है, कहा गया. दर्शनशास्त्र की सीमाएं हैं. विचार, धर्म, दर्शन, संस्कृति वगैरह सब कपड़े की तरह हैं. ‘मैं’, सबसे अलग है. अहम अस्मि, कोई नकार सकता है? अहं ब्रह्मस्मि, कहा गया. कबीर ने कहा मुझे कहां ढूढंते हो, मैं तो तेरे पास में. माना जाता है कि बॉडी (शरीर) मैटर(पदार्थ) है, चेतना उसमें निहित है. ‘नियरर दैन योर माइंड एंड ब्रेथ’ (मस्तिष्क और सांस से भी नजदीक). यह चेतना मनुष्य के सांस/मन/मस्तिष्क से भी पास है. शास्त्र भी कहते हैं. पर इसे पकड़ना मुश्किल है.
बुद्धि से पकड़ा नहीं जा सकता है. यह आस्था-विश्वास से संभव है. श्रद्धा और विश्वास के प्रतीक हैं, शिव और पार्वती. प्रतीक के माध्यम से ही आगे जाना होगा. पर मान्यता है कि श्रद्धा, विश्वास की दुश्मन है, बुद्धि. हर धर्म एक आइडिया ( विचार) है. हर विचार के मूल में है, कॉज आफ एक्शन (कार्य का कारण).
स्वामी जी के कथन का मर्म है, सभी धर्मों के लोग राष्ट्रीय परिवार के सदस्य हैं. टेररिज्म का मुसलमानों या किसी एक के साथ जोड़ना गलत है. उस कौम में गरीबी है. पिछड़ापन है. वे डिप्रेस्ड हैं. उनके इस मानस को समझिए. हमारा यह राष्ट्रीय परिवार है. इसके जीने-रहने का संदेश होना चाहिए. एक साथ जीयें, रहें हम. कुछ तू सह ले/ कुछ मैं सह लूं/ कुछ तू कह ले/ कुछ मैं कह लूं. 2007 में शतचंडी महायज्ञ में 40 देशों के लोगों की भारी भीड़ के सामने स्वामी जी की कही बातें याद आती हैं.
‘आज तक हमने कभी किसी को हिंदू, मुसलमान या ईसाई के रूप में नहीं देखा है. मेरे को यह सवाल अच्छा भी नहीं लगता है. हम ऐसा सोचते हैं कि योग की दृष्टि में, साधु की दृष्टि में, आश्रम की दृष्टि और संन्यास की दृष्टि में , सब हमारे चेले हैं. अगर हमारे पास शक्ति है, रोगी का रोग दूर करेंगे. गरीब की गरीबी दूर करेंगे. क्या हिंदू, क्या मुसलमान. बहादुर शाह जफर की एक कविता याद आती है.
तुमसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है.
एक तुझको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है.
क्या मलया, क्या क्रिस्तान, क्या हिंदू, क्या मुसलमान.
जैसा चाहा सबको बनाया, जो कुछ है सो तू ही है.
क्या मलया, क्या क्रिस्तान, क्या हिंदू, क्या मुसलमान, जैसा चाहा, सबको बनाया. आखिर उसी ने तो सबको बनाया है. ऐसी एक समान दृष्टि हमारे देश में लोगों की होनी चाहिए. ज्यादा से ज्यादा लोगों को समभाव से रहने की कोशिश करनी चाहिए. मंदिर, मसजिद तथा चर्चों ने जो गलतियां की हैं, उनको सुधारने की भी कोशिश करनी चाहिए. साधु गलत बोलता है, तो उसको भी ठीक करना चाहिए.’
इसी समागम में स्वामी जी ने बताया था.’ मुझे, स्वामी सत्यानंद को उन्नीस सौ अड़सठ से उन्नीस सौ अट्ठासी तक, बीस साल जितना ईसाई देशों में समर्थन मिला, जितना ईसाई मिशनरियों ने मेरा सम्मान किया, सहयोग दिया, हिंदुस्तान में उतना नहीं मिला. और हिंदुस्तान में जितना सम्मान मुझे बिहार में मिला, उतना कहीं नहीं. ईसाइयों के दो चर्च होते हैं, एक प्रोटेस्टेंट और दूसरा कैथोलिक. इंग्लैंड में जो प्रोटेस्टेंट चर्च है, उसको चर्च ऑफ इंग्लैंड कहते हैं. वहां के पादरी ने हमको रखा, हमने सबको योग निद्रा करवायी.
मुसलमान देशों में भी मेरे को बहुत मदद मिली.ईरान के शाह ने मेरे को बहुत मदद की. सउदी अरब में मेरे को अखबार में इतना स्थान देते थे, पूरा पेज का पेज. इसलिए यह जो धर्मांतरण का झंझट चल रहा है, यह नहीं होना चाहिए. इस देश में सबको किसी भी धर्म को स्वीकार करने की स्वतंत्रता है. और किसी भी गुरु को किसी को भी चेला बनाने की स्वतंत्रता है. ‘
क्षेत्रीयता, मानव स्वभाव, अच्छाई-बुराई के उद्गम, सभ्यताओं के संघर्ष वगैरह के बारे में अनेक तथ्यपरक, मौलिक और नयी बातें स्वामी जी बताते हैं. पर कहते हैं. आज युवा ऊपर उठना चाहते हैं. वे पोजिशन ( समाज में जगह) चाहते हैं. शिक्षा से यह संभव है. यह काम आज बड़े पैमाने पर होना चाहिए. खुद रिखिया में ग्रामीण बच्चों को अंग्रेजी, कंप्यूटर सीखाने से लेकर बदलती दुनिया की बातें बतायी जाती हैं.
ढाई घंटे सुनने के बाद भी इच्छा होती है, स्वामी स्त्यानंद बोलते रहें. पर उन्होंने शुरू में ही कहा था, हर चीज की ‘एक्सपायरी डेट’ (अंत ) है. सो इस मुलाकात का अंत भी होना ही था. पर उठते-उठते स्वामी जी ने कहा- इस देश में सभी धर्मवालों को एक साथ रहने, एक बिस्तर पर रहने की बात होनी चाहिए. यही रास्ता है. क्योंकि सोसायटी का फंडामेंटल हाइपोथिसिस (बुनियादी आकांक्षा, मान्यता) है, ‘शांति’. हर आदमी पीस में रहना चाहता है.
दिनांक : 04-11-08