सत्य और अहिंसा
सत्य और अहिंसा की नीति के अलावा मेरी कोई और नीति नहीं है. मैं अपने देश या अपने धर्म तक के उद्धार के लिए सत्य और अहिंसा की बलि नहीं दूंगा. वैसे, इनकी बलि देकर देश या धर्म का उद्धार किया भी नहीं जा सकता. मैं अपने जीवन में न कोई अंतर्विरोध पाता हूं, न […]
सत्य और अहिंसा की नीति के अलावा मेरी कोई और नीति नहीं है. मैं अपने देश या अपने धर्म तक के उद्धार के लिए सत्य और अहिंसा की बलि नहीं दूंगा. वैसे, इनकी बलि देकर देश या धर्म का उद्धार किया भी नहीं जा सकता. मैं अपने जीवन में न कोई अंतर्विरोध पाता हूं, न कोई पागलपन.
यह सही है कि जिस तरह आदमी अपनी पीठ नहीं देख सकता, उसी तरह उसे अपना पागलपन भी दिखाई नहीं देता, लेकिन मनीषियों ने धार्मिक व्यक्ति को प्रायः पागल जैसा ही माना है. लेकिन मेरा विश्वास है कि मैं पागल नहीं हूं, बल्कि सच्चे अर्थों में धार्मिक हूं. मुझे लगता है कि मैं अहिंसा की अपेक्षा सत्य के आदर्श को ज्यादा अच्छी तरह समझता हूं और मेरा अनुभव मुझे बताता है कि अगर मैंने सत्य पर अपनी पकड़ ढीली कर दी, तो मैं अहिंसा की पहेली को कभी नहीं सुलझा पाऊंगा.
दूसरे शब्दों में, सीधे ही अहिंसा का मार्ग अपनाने का साहस शायद मुझमें नहीं है. सत्य और अहिंसा तत्वतः एक ही हैं और संदेह अनिवार्यतः आस्था की कमी का ही परिणाम होता है. मेरी प्रार्थनामय खोज ने ‘ईश्वर सत्य है’ के सामान्य सूत्र के स्थान पर मुझे एक प्रकाशमान सूत्र दिया : ‘सत्य ही ईश्वर है’. यह सूत्र मुझे ईश्वर के रूबरू खड़ा कर देता है.
– महात्मा गांधी