असूया और अनुसूया
कोई-कोई व्यक्ति ऐसा होता है कि यदि उसको बढ़िया से बढ़िया चीज दो, फिर भी उसे उसमें त्रुटि ही नजर आती है. ऐसी विचारधारा को असूया कहते हैं. ऐसे व्यक्ति दिव्यज्ञान नहीं जान सकते. ‘असूया’ का अर्थ है दोष ढूंढ़ना. जैसे तुम्हारी किसी से मित्रता है और दस वर्षों बाद कोई दोष देख कर तुम […]
कोई-कोई व्यक्ति ऐसा होता है कि यदि उसको बढ़िया से बढ़िया चीज दो, फिर भी उसे उसमें त्रुटि ही नजर आती है. ऐसी विचारधारा को असूया कहते हैं. ऐसे व्यक्ति दिव्यज्ञान नहीं जान सकते. ‘असूया’ का अर्थ है दोष ढूंढ़ना. जैसे तुम्हारी किसी से मित्रता है और दस वर्षों बाद कोई दोष देख कर तुम इसे तोड़ना चाहते हो. जब तुम तोड़ते हो, तुम पूरे संबंध में कुछ अच्छा नहीं देखते, त्रुटियां ही त्रुटियां खोजते हो. यह असूया है.
चेतना के अलग-अलग स्तरों पर ज्ञान भी अलग होगा. चेतना के एक विशेष स्तर पर तुम अनसूया बन जाओगे.‘अनसूया’ अर्थात् जो दोष नहीं खोजता. कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वे उसको यह दिव्यज्ञान दे रहे हैं, क्योंकि ‘तुम मेरे इतने करीब होकर भी मुझमें कोई दोष नहीं देखते हो.’ दूर से लोगों में दोष छिप जाते हैं पर पास आकर नहीं छिप सकते. यदि तुम ‘अनसूया’ नहीं हो, तो ज्ञान तुममें पनप ही नहीं सकता. तब ज्ञान देना निर्थक है.
एक दर्पण पर धूल हो तो उसे साफ करने के लिए झाड़न की जरूरत होती है पर यदि आंखों में ही मोतियाबिंद हो, तो कितनी भी सफाई कर लो, कोई लाभ नहीं. इसलिए, पहले मोतियाबिंद निकालना है, तब देखोगे कि दर्पण तो साफ ही है.
– श्री श्री रविशंकर