सतत अभ्यास का महत्व
प्रतिभा के विकास में बुद्धि आवश्यक तो है, लेकिन सर्वसमर्थ नहीं. बुद्धिमान होते हुए भी विद्यार्थी पाठ याद न करे, पहलवान व्यायाम छोड़ दे, संगीतज्ञ, क्रिकेटर अभ्यास छोड़ दें, चित्रकार तूलिका का प्रयोग न करे, कवि भाव-संवेदनाओं को संजोना छोड़ बैठे, तो उसे प्राप्त क्षमता भी क्रमश: क्षीण होती जायेगी. जबकि, बुद्धि की दृष्टि से […]
प्रतिभा के विकास में बुद्धि आवश्यक तो है, लेकिन सर्वसमर्थ नहीं. बुद्धिमान होते हुए भी विद्यार्थी पाठ याद न करे, पहलवान व्यायाम छोड़ दे, संगीतज्ञ, क्रिकेटर अभ्यास छोड़ दें, चित्रकार तूलिका का प्रयोग न करे, कवि भाव-संवेदनाओं को संजोना छोड़ बैठे, तो उसे प्राप्त क्षमता भी क्रमश: क्षीण होती जायेगी. जबकि, बुद्धि की दृष्टि से कम परंतु सतत अभ्यास में मनोयोगपूर्वक लगे व्यक्ति अपने भीतर असामान्य क्षमताएं विकसित कर लेते हैं.
मानव शरीर अनगढ़ है, और वृत्तियां असंयमित. इन्हें सुगढ़ एवं सुसंयमित करना ही अभ्यास का लक्ष्य है. अभ्यास से ही आदतें बनती हैं और अंतत: संस्कार का रूप लेती हैं. कितने ही व्यक्ति किसी भी कार्य को करने में अपने को असमर्थ मानते हैं. उन्हें असंभव जानकर प्रयास नहीं करते, फलस्वरूप कुछ विशेष नहीं कर पाते. जबकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प कर लेने एवं आत्मविश्वास जुटा लेनेवाले व्यक्ति उसमें अवश्य सफल होते हैं. मानवीय काया परमात्मा की विलक्षण संरचना है. सर्वसमर्थता के बीज उसके भीतर विद्यमान हैं. सतत अभ्यास के द्वारा शरीर एवं मन को असामान्य कार्यों के कर सकने के लिए भी सहमत किया जा सकता है.
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य