अगर एक व्यक्ति भीड़ के विपरीत जाता है- जीसस या बुद्ध- भीड़ इस व्यक्ति के साथ अच्छा महसूस नहीं करती. भीड़ उसे नष्ट कर देगी या यदि भीड़ बहुत सभ्य है, तो उसकी पूजा शुरू कर देगी. लेकिन दोनों ही ढंग एक जैसे हैं. यदि भीड़ थोड़ी-सी असभ्य है, जंगली है, जीसस को सूली दे देगी.
यदि भीड़ भारतीयों जैसी होगी – बहुत सभ्य, सदियों पुरानी सभ्यता, अहिंसक है, प्रेम पूर्ण है, आध्यात्मिक है, तो यकीनन वे बुद्ध की पूजा करेंगे. लेकिन, पूजा द्वारा वे कह रहे हैं : हम अलग हैं, आप अलग हैं. हम आपका अनुसरण नहीं कर सकते, हम आपके साथ नहीं आ सकते. आप अच्छे हैं, बहुत अच्छे हैं, सच में बहुत अच्छे हैं.
लेकिन हम कहना चाहेंगे कि आप हमारे जैसे नहीं हैं. आप परमात्मा हैं – हम आपकी पूजा करेंगे. लेकिन, हमें तकलीफ न दो; ऐसी बातें हमें मत कहो, जो हमारी चूलों को हिला दें, जो हमारी गहरी नींद को खराब कर दे. हमारे समय को बेचैनियों भरा बना दें. वैसे, मानवमात्र का यह अधिकार है कि वह पुरसुकून ढंग से अपना जीवन बिता सके. जीसस की हत्या करो या बुद्ध की पूजा करो – दोनों एक ही बात है.
जीसस की हत्या कर दी गयी, ताकि भीड़ भूल सके कि ऐसा कोई व्यक्ति हुआ था. चूंकि सत्य को देखा नहीं जा सकता, बस उसकी खुशबू महसूस की सकती है. उसकी खुशबू हमारे चारों तरफ हवाओं में होती है. इसी प्रकार आनंद को भी महसूस किया जा सकता है, और यह प्रमाण है कि यह व्यक्ति सच्चा है. पर यदि यह व्यक्ति सच्चा है, तब सारी भीड़ गलत हो जाती है, और यह बहुत ज्यादा हो जाता है. सारी भीड़ ऐसे व्यक्ति को बरदाश्त नहीं कर सकती; वह कांटा है, पीड़ादायी है.
सो, यह सोचते ही ठान लिया जाता है कि इस व्यक्ति को नष्ट करना होगा या पूजा करनी होगी, ताकि हम कह सकें: आप किसी दूसरी दुनिया से आये हैं, आप हम में से नहीं हैं. हो सकता है कि आप अपवाद हैं, लेकिन अपवाद सिर्फ नियम को सिद्ध करते हैं. यह शुभ है कि आप आये, हम आपका बहुत सम्मान करते हैं, लेकिन हमें परेशान ना करो. इसीलिए हम बुद्ध को मंदिर में रख देते हैं, ताकि उन्हें बाजार में आने की जरूरत न पड़े; वरना वे परेशानी पैदा करेंगे.
– आचार्य रजनीश ओशो