यू नान के प्रसिद्ध हकीम लुकमान पेड़ों-पौधों से उनकी उपयोगिता पूछ कर मनुष्य का इलाज किया करते थे. आज भी भारत में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति प्रकृति के आशीर्वाद पर ही निर्भर है. इसका एक कारण यह भी है कि मनुष्य का शरीर और प्रकृति की वनस्पति, दोनों एक ही तत्व से बने हुए हैं. जो तत्व इन वृक्षों और वादियों में हैं, वही तत्व मनुष्य में भी हैं.
इसलिए दोनों के जीवन में साम्य है. इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य को दीर्घायु बनना है और स्वस्थ रहना है, तो प्रकृति और पर्यावरण की गोद में ही वह स्वस्थ और सुरक्षित रह सकता है. आज प्रगति के पंख पर उड़नेवाले पश्चिम देश के लोग भी अब प्रकृति और पर्यावरण के आंचल में प्राणशक्ति खोजने में लगे हुए हैं. पुस्तक ‘िद रिटर्न ऑफ नेचर’ में प्रकृति की ओर लौटने का निमंत्रण दिया गया है.
अब इन्हें भी बोध हो गया है कि प्रगति की दौड़ में दौड़ कर प्राणशक्ति को गंवा देना उचित नहीं है. अगर जीवन चाहिए, तो हमें प्रकृति की ओर लौटना ही पड़ेगा. सच कहें तो प्रकृति, पर्यावरण, जीवन और परमात्मा कोई अलग-अलग चीजें नहीं हैं. प्रकृति ही परमात्मा है और परमात्मा ही प्रकृति, पर्यावरण और जीवन है, इसलिए कुछ प्रमुख बिंदुओं पर विचार करें, जो इनमें थोड़े-बहुत अंतर को दर्शाते हैं.
मनुष्य, पेड़-पौधे और पशुओं में केवल इंद्रियों का अंतर है. मनुष्य के पास दस इंद्रियां हैं, तो पशुओं के पास दस से कम और पेड़ों के पास उससे भी कम. यहां तक कि इंद्री तो पहाड़ के पास भी होती है, लेकिन सिर्फ एक. इसीलिए विज्ञान कहता है कि पेड़-पौधे भी हंसते-रोते हैं. लकड़हारे को देख कर वृक्षों के पत्ते सिहर उठते हैं, वे मुरझा जाते हैं. ये वृक्ष और पहाड़ मनुष्य के समान जीव ही हैं, तो फिर मनुष्यों की प्रगति के नाम पर इन वृक्षों और पहाड़ों का नाश कितना उचित है?
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अगर पूरी मानव जाति इस संबंध में गहराई से सोचना शुरू कर दे और पेड़-पौधों और प्रकृति के शाश्वत नियमों से छेड़छाड़ करना बंद कर दे, तो यही प्रकृति उन्हें अपनी गोद में भर कर एक ऊर्जावान और निरोग जीवन प्रदान करेगी. लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हमारे अंदर प्रकृति को लेकर प्रेम का िवस्तार हो.
– आचार्य सुदर्शन