भगवतप्रेम में लीन
शुद्ध भक्त निरंतर भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में रमे रहते हैं. उनका मन कृष्ण के चरणकमलों से हटता ही नहीं. वे दिव्य विषयों की ही चर्चा चलाते हैं. भगवद्भक्त परमेश्वर के गुणों तथा उनकी लीलाओं के गान में लगे रहते हैं. उनके हृदय तथा आत्माएं निरंतर कृष्ण में निमग्न रहती हैं और वे अन्य भक्तों […]
शुद्ध भक्त निरंतर भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में रमे रहते हैं. उनका मन कृष्ण के चरणकमलों से हटता ही नहीं. वे दिव्य विषयों की ही चर्चा चलाते हैं. भगवद्भक्त परमेश्वर के गुणों तथा उनकी लीलाओं के गान में लगे रहते हैं. उनके हृदय तथा आत्माएं निरंतर कृष्ण में निमग्न रहती हैं और वे अन्य भक्तों से भगवान के विषय में बातें करने में आनंद का अनुभव करते हैं. भक्ति की प्रारंभिक अवस्था में वे सेवा में ही दिव्य आनंद उठाते हैं और परिपक्वावस्था में ईश्वर प्रेम को प्राप्त होते हैं.
जब वे इस दिव्य स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, तो उस सर्वोच्च सिद्धि का स्वाद लेते हैं, जो भगवद्धाम में प्राप्त होती है. भगवान चैतन्य दिव्य भक्ति की तुलना जीव के हृदय में बीज बोने से करते हैं. ब्रह्मांड के विभिन्न लोकों में असंख्य जीव विचरण करते रहते हैं. इनमें से कुछ ही भाग्यशाली होते हैं, जिनकी शुद्ध भक्त से भेंट हो पाती है और जिन्हें भक्ति समझने का अवसर प्राप्त हो पाता है. यह भक्ति बीज के सदृश है. यदि इसे जीव के हृदय में बो दिया जाये और जीव हरे कृष्ण मंत्र का श्रवण तथा कीर्तन करता रहे तो भक्ति बीज उसी तरह अंकुरित होता है, जिस प्रकार नियमत: सींचते रहने से वृक्ष का बीज फलता है.
भक्ति रूपी आध्यात्मिक पौधा क्रमश: बढ़ता रहता है, जब तक यह ब्रह्मांड को भेद कर ब्रह्म ज्योति में प्रवेश नहीं कर जाता. ब्रह्म ज्योति में भी यह पौधा तब तक बढ़ता जाता है, जब तक उस उच्चतम लोक को नहीं प्राप्त कर लेता, जिसे गोलोक वृंदावन या कृष्ण का परमधाम कहते हैं. अंततोगत्वा यह पौधा भगवान के चरणकमलों की शरण प्राप्त कर वहीं विश्राम पाता है. जिस प्रकार पौधे के क्रम में फूल तथा फल आते हैं, उसी प्रकार भक्ति रूपी पौधे में भी फल आते हैं और कीर्तन तथा श्रवण के रूप में उसका सिंचन चलता रहता है.
चैतन्य चरितामृत में भक्तरूपी पौधे का विस्तार से वर्णन हुआ है कि जब पूर्ण पौधा भगवान के चरण कमलों की शरण ग्रहण कर लेता है, तो मनुष्य पूर्णत: भगवत प्रेम में लीन हो जाता है. तब वह एक क्षण भी परमेश्वर के बिना उसी तरह नहीं रह पाता, जैसे मछली जल के बिना. ऐसी अवस्था में भक्त वास्तव में परमेश्वर के संसर्ग में दिव्य गुण प्राप्त कर लेता है.
स्वामी प्रभुपाद