कर्तव्य का स्वरूप

अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनानेवाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है. कर्तव्य का पालन शायद ही कभी मधुर होता हो! कर्तव्य-चक्र तभी हलका और आसानी से चलता है, जब उसके पहियों में प्रेम रूपी चिकनाई लगी होती है, अन्यथा वह एक अविराम घर्षण मात्र है. यदि ऐसा न […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 10, 2016 6:27 AM
अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनानेवाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है. कर्तव्य का पालन शायद ही कभी मधुर होता हो! कर्तव्य-चक्र तभी हलका और आसानी से चलता है, जब उसके पहियों में प्रेम रूपी चिकनाई लगी होती है, अन्यथा वह एक अविराम घर्षण मात्र है. यदि ऐसा न हो तो माता-पिता अपने बच्चों के प्रति, बच्चे अपने माता-पिता के प्रति, पति अपनी पत्नी के प्रति तथा पत्नी अपने पति के प्रति अपना-अपना कर्तव्य कैसे निभा सकें? कर्तव्य वहीं तक अच्छा है, जहां तक कि यह पशुत्व भाव को रोकने में सहायता प्रदान करता है.
उन निम्नतम श्रेणी के मनुष्यों के लिए, जो और किसी उच्चतर आदर्श की कल्पना ही नहीं कर सकते, शायद कर्तव्य की यह भावना किसी हद तक अच्छी हो, परंतु जो कर्मयोगी बनना चाहते हैं, उन्हें तो कर्तव्य के इस भाव को एकदम त्याग देना चाहिए. कर्तव्य एक शरीर है और हमारी आसक्ति का आवेग मात्र है. जब कोई आसक्ति दृढ़ हो जाती है, तो उसे हम कर्तव्य कहने लगते हैं. उदाहरणार्थ, जहां विवाह की प्रथा नहीं है, उन सब देशों में पति-पत्नी का आपस में कोई कर्तव्य नहीं होता. जब विवाह-प्रथा आ जाती है, तब पति-पत्नी आसक्ति के कारण एक साथ रहने लगते हैं.
कई पीढ़ियों के बाद जब उनका यह एकत्रवास एक प्रथा-सा हो जाता है, तो वह कर्तव्य रूप में परिणत हो जाता है. जीवन के विभिन्न कर्तव्यों के प्रति मनुष्य का जो मानसिक और नैतिक दृष्टिकोण रहता है, वह अनेक अंशों में उसके जन्म और उसकी अवस्था द्वारा नियमित होता है. इसीलिए जिस समाज में हमारा जन्म हुआ हो, उसको आदर्शों और व्यवहार के अनुरूप उदात्त एवं उन्नत बनानेवाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है.
प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का विधान करती है, उसका विरोध करना व्यर्थ है. यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे, तो उसी कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता. कर्तव्य के केवल ऊपरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता या नीचता का निर्णय करना उचित नहीं है, देखना तो यह चाहिए कि वह अपना कर्तव्य किसी भाव से करता है.
– स्वामी विवेकानंद

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