गुणात्मक दृष्टि से परमात्मा का अणु अंश परम से अभिन्न है. वह शरीर की भांति विकारी नहीं है. कभी-कभी इस आत्मा को स्थायी या कूटस्थ कहा जाता है. हमारे शरीर में छह प्रकार के रूपांतर होते हैं.
वह माता के गर्भ से जन्म लेता है, बढ़ता है, कुछ परिणाम उत्पन्न करता है, धीरे-धीरे क्षीण होता है और अंत में समाप्त हो जाता है. अन्य जीवधारियों में भी यही प्रक्रिया है. किंतु आत्मा में ऐसे परिवर्तन नहीं होते. आत्मा अजन्मा होती है.
किंतु चूंकि वह भौतिक शरीर धारण करती है, अत: शरीर जन्म लेता है. आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है. जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी होती है और आत्मा जन्म नहीं लेती, अत: उसका न तो भूत है, न वर्तमान न भविष्य. यह शात तथा सनातन है अर्थात् इस आत्मा के जन्म लेने का कोई इतिहास नहीं है.
हम शरीर के प्रभाव में आकर आत्मा के जन्म-मरण आदि का इतिहास खोजने लगते हैं. आत्मा शरीर की तरह कभी वृद्ध नहीं होती. अत: तथाकथित वृद्ध पुरुष भी अपने में बाल्यकाल या युवावस्था जैसी अनुभूति पाते रहते है. शरीर के परिवर्तनों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. आत्मा वृक्ष या किसी भौतिक वस्तु की तरह क्षीण नहीं होती. आत्मा की कोई उपसृष्टि नहीं होती.
शरीर की उपसृष्टि संताने हैं. वे भी व्यष्टि की आत्माएं हैं और शरीर के कारण वे किसी न किसी की संतानें प्रतीत होते हैं. शरीर की वृद्धि आत्मा की उपस्थिति के कारण होती है. किंतु आत्मा की न तो कोई उपवृद्धि है, न ही उसमें कोई परिवर्तन ही होता है. अत: आत्मा शरीर के छह प्रकार के परिवर्तनों से मुक्त है. आत्मा ज्ञान या चेतना से सदैव पूर्ण रहता है. चेतना ही आत्मा का लक्षण है. यदि कोई हृदयस्थ आत्मा नहीं खोज पाता है, तब भी वह आत्मा की उपस्थिति को अपनी चेतना की उपस्थिति से जान सकता है.
कभी-कभी हम बादलों या अन्य कारणों से आकाश में सूर्य नहीं देख पाते, किंतु सूर्य का प्रकाश सदैव विद्यमान रहता है. प्रात:काल ज्यों ही आकाश में थोड़ा सा सूर्य का प्रकाश दिखता है, हम समझ जाते हैं कि सूर्य आकाश में है. इसी प्रकार चूंकि शरीरों में कुछ न कुछ चेतना रहती है अत: हम आत्मा की उपस्थिति जान लेते है.
-स्वामी प्रभुपाद