कर्तव्य की व्याख्या

प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का विधान करती है, उसका विरोध करना व्यर्थ है. यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे, तो उसी कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता है. कर्तव्य के केवल ऊपरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता या नीचता का निर्णय करना उचित नहीं, अपितु देखना तो यह चाहिए कि वह अपना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 31, 2016 2:03 AM

प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का विधान करती है, उसका विरोध करना व्यर्थ है. यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे, तो उसी कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता है. कर्तव्य के केवल ऊपरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता या नीचता का निर्णय करना उचित नहीं, अपितु देखना तो यह चाहिए कि वह अपना कर्तव्य किस भाव से करता है.

मानव-स्वभाव की एक विशेष कमजोरी यह है कि वह स्वयं अपनी ओर कभी नजर नहीं डालता. वह तो सोचता है कि मैं भी राजा के सिंहासन पर बैठने के योग्य हूं और यदि मान लिया जाये कि वह है भी, तो सबसे पहले उसे यह दिखा देना चाहिए कि वह अपनी वर्तमान स्थिति का कर्तव्य भलीभांति कर चुका है, ऐसा होने पर उसके सामने उच्चतर कर्तव्य आयेंगे. हम देखते हैं कि देश, काल व पात्र के अनुसार हमारे कर्तव्य कितने बदल जाते हैं और सबसे श्रेष्ठ कर्म तो यह है कि जिस विशिष्ट समय पर हमारा जो कर्तव्य हो, उसी को हम भलीभांति निबाहें. पहले तो हमें जन्म से प्राप्त कर्तव्य को पूरा करना चाहिए और उसे कर चुकने के बाद समाज एवं जीवन में हमारी स्थिति के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसे संपन्न करना चाहिए.

हर एक मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे मनुष्य के साथ ईश्वर-दृष्टि से बरताव करे, उससे किसी तरह भी घृणा या निंदा करना अथवा उसे हानि पहुंचाने की चेष्टा करना उसे बिल्कुल उचित नहीं. यह केवल संन्यासी का ही नहीं वरन् सभी नर-नारियों का कर्तव्य है. प्रत्येक कर्तव्य पवित्र है और कर्तव्यनिष्ठा भगवत्-पूजा का सर्वोत्कृष्ट रूप है. बद्ध जीवों की भ्रांत, अज्ञान-तिमिराच्छन्न आत्माओं का ज्ञान और मुक्ति दिलाने में यह कर्तव्यनिष्ठा निश्चय ही बहुत सहायक है. केवल बाह्य कार्यों के आधार पर कर्तव्य की व्याख्या करना नितांत असंभव है.

अमुक कार्य कर्तव्य है तथा अमुक अकर्तव्य- कर्तव्याकर्तव्य का इस प्रकार विभाग-निर्देश नहीं किया जा सकता. परंतु फिर भी, आंतरिक दृष्टिकोण से कर्तव्य की व्याख्या हो सकती है. यदि किसी कर्म द्वारा हम भगवान की ओर बढ़ते हैं, तो वह सत् कर्म है और वह हमारा कर्तव्य है, परंतु जिस कर्म द्वारा हम नीचे गिरते हैं, वह बुरा है और वह कर्तव्य है ही नहीं.

-स्वामी विवेकानंद

Next Article

Exit mobile version