करिए श्रीमारुतिकवच का जाप, जिससे भूत-प्रेत व बाधाएं भागते हैं दूर

पवननुत्र हनुमान श्रीरामचंद्र के सबसे बड़े भक्त हैं. हनुमान जी की पूजा से समस्त कष्‍टों से तत्काल छुटकारा मिल जाता है. रामचरितमानस में श्रीराम ने कई बार हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए कहा है कि तुमने मुझपर जो उपकार किये हैं. उससे मैं कभी उऋण नहीं हो सकता हूं. श्रीमाता जानकी ने भी श्री […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 26, 2016 3:22 PM

पवननुत्र हनुमान श्रीरामचंद्र के सबसे बड़े भक्त हैं. हनुमान जी की पूजा से समस्त कष्‍टों से तत्काल छुटकारा मिल जाता है. रामचरितमानस में श्रीराम ने कई बार हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए कहा है कि तुमने मुझपर जो उपकार किये हैं. उससे मैं कभी उऋण नहीं हो सकता हूं. श्रीमाता जानकी ने भी श्री हनुमान को अजर अमर होने का वरदान दिया है. इसी प्रकार हनुमान जी के भक्त भी सभी प्रकार के कष्‍टों से दूर रहते हैं. प्रेत बाधा हो या गंभीर बीमारी हनुमान जी की पूजा से सभी का निवारण संभव है. इसी क्रम में नारद पुराण में श्रीमारुतिकवच का उल्लेख है. इस कवच के पाठ से या इसे धारण करने से सभी प्रकार के उपद्रव नष्‍ट हो जाते हैं. भूत, प्रेत, एवं शत्रु से उत्पन्न दु:खों का तत्काल नाश हो जाता है.

सनत्कुमार उवाच

कार्तवीर्यस्य कवचं कथितं ते मुनीश्वर ।

मोहविध्वंसनं जैत्रं मारुतेः कवचं श्रृणु ॥ १॥

सनत्कुमार जी ने कहा – मुनीश्‍वर मैंने तुमकसे कार्तवीर्य कवच का वर्णन किया. अब मोहनाशक और विजयप्रद मारूति कवच का वर्णन सुनो.

यस्य सन्धारणात्सद्यः सर्वे नश्यन्त्युपद्रवाः ।

भूतप्रेतारिजं दुःखं नाशमेति न संशयः ॥ २॥

जिसके धारण करने से सभी उपद्रव तत्काल नष्‍ट हो जाते हैं तथा भूत, प्रेत एवं शत्रु से उत्पन्न दु:ख का भी नाश हो जाता है, इसमें संशय नहीं है.

एकदाहं गतो द्रष्टुं रामं रमयतां वरम् ।

आनन्दवनिकासंस्थं ध्यायन्तं स्वात्मनः पदम् ॥ ३॥

एक समय की बात है, मैं मन को रमानेवालों में श्रेष्‍ठ भगवान श्रीराम का दर्शन करने के लिए अयोध्‍या गया हुआ था. वे आनंदवन में बैठकर अपने ही स्वरुप का ध्‍यान कर रहे थे.

तत्र रामं रमानाथं पूजितं त्रिदशेश्वरैः ।

नमस्कृत्य तदादिष्टमासनं स्थितवान् पुरः ॥ ४॥

वहां पहुंचकर देवेश्‍वरों से पूजित रमानाथ श्रीराम को नमस्कार कर के उन्हीं के आदेश से उनके सामने ही एक आसन पर बैठ गया.

तत्र सर्वं मया वृत्तं रावणस्य वधान्तकम् ।

पृष्टं प्रोवाच राजेन्द्रः श्रीरामः स्वयमादरात् ॥ ५॥

उस जगह मैंने उनसे आरंभ से लेकर रावण वध तक का सारा वृतांत पूछा. जब राजाधिराज श्रीराम ने बड़े आदर के साथ स्वयं वह सारी कथा कह सुनाई.

ततः कथान्ते भगवान्मारुतेः कवचं ददौ ।

मह्यं तत्ते प्रवक्ष्यामि न प्रकाश्यं हि कुत्रचित् ॥ ६॥

तत्पश्‍चात कथा के अंत में भगवान ने मुझे मारुति कवच प्रदान किया, जिसका मैं तुम्हारे समक्ष वर्णन करुंगा. तुम इसे कहीं भी प्रकट न करना.

भविष्यदेतन्निर्द्दिष्टं बालभावेन नारद ।

श्रीरामेणाञ्जनासूनोसूनोर्भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥ ७॥

नारद! श्रीराम ने बालभाव से भविष्‍य में होने वाला यह सब वृतान्‍त बताया और अंजनीनंदन हनुमान का कवच भी कह सुनाया, जो भोग और मोक्ष देने वाला है.

॥ श्रीहनुमत्कवचम् ॥

हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः ।

पातु प्रतीच्यामक्षघ्नः सौम्ये सागरतारकः ॥ ८॥

पूर्व दिशा में हनुमान रक्षा करें, दक्षिण दिशा में पवनपुत्र रक्षा करें. पश्चिम दिशा में रावणपुत्र अक्षयकुमार के विनाशक रक्षा करें तथा उत्तर दिशा में सागरतारक रक्षा करें.

ऊर्ध्वं पातु कपिश्रेष्ठः केसरिप्रियनन्दनः ।

अधस्ताद्विष्णुभक्तस्तु पातु मध्ये च पावनिः ॥ ९॥

ऊर्ध्‍व दिशा में केसरी के प्रिय पुत्र कपिश्रेष्‍ठ रक्षा करें. अधोभाग में विष्‍णुभक्त रक्षा करें तथा दिशाओं के मध्‍यभाग में पावनि रक्षा करें.

लङ्काविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो निरन्तरम् ।

सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः ॥ १०॥

भालं पातु महावीरो भ्रुवोर्मध्ये निरन्तरम् ।

नेत्रे छायापहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ॥ ११॥

लंका जलाने वाले हनुमान जी संपूर्ण विपत्तियों से निरंतर हमारा संरक्षण करें. सुग्रीव के मंत्री मस्तक की करें. वायुनंदन हनुमान भालदेश की रक्षा करें. महावीर दोनों भौंहों के मध्‍यभाग में निरंतर रक्षा करें. छायाग्राहिणी राक्षसी का अपहरण करने वाले तथा वनरों के स्वामी हनुमान जी हमारे दोनों नेत्रों की रक्षा करें.

कपोलौ कर्णमूले च पातु श्रीरामकिङ्करः ।

नासाग्रमञ्जनासूनुः पातु वक्त्रं हरीश्वरः ॥ १२॥

श्रीराम के सेवक दोनों कपोलों तथा कानों के मूलभागों की रक्षा करें. अंजना के पुत्र नासिका के अग्रभाग की तथा बंदरों के स्वामी मुख की रक्षा करें.

पातु कण्ठे तु दैत्यारिः स्कन्धौ पातु सुरारिजित् ।

भुजौ पातु महातेजाः करौ च चरणायुधः ॥ १३॥

दैत्यों के शत्रु कण्‍ठ की रक्षा करें, देवशत्रुओं को जीतनेवाले दोनों कंधों की रक्षा करें. महातेजस्वी दोनों भुजाओं और चरणरूपी शस्त्रवाले दोनों हाथों की रक्षा करें.

नखान्नखायुधः पातु कुक्षौ पातु कपीश्वरः ।

वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः ॥ १४॥

नखरुपी शस्त्रवाले नखों की रक्षा करें, कपियों के स्वामी कुक्षिभाग की रक्षा करें. अंगूठी ले जानेवाले वक्षस्थल की तथा भुजारूपी आयुधवाले दोनों पार्श्‍वभागों की रक्षा करें.

लङ्कानिभर्जनः पातु पृष्टदेशे निरन्तरम् ।

नाभिं श्रीरामभक्तस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ॥ १५॥

लंका को भूज देने वाले पृष्‍ठ भाग की निरंतर रक्षा करें. श्रीराम भक्त नाभि की और अनिल पुत्र कमर की रक्षा करें.

गुह्यं पातु महाप्राज्ञः सक्थिनी अतिथिप्रियः ।

ऊरू च जानुनी पातु लङ्काप्रासादभञ्जनः ॥ १६॥

महाप्राज्ञ गुह्यभाग की तथा अतिथिप्रिय जांघों की रक्षा करे. लंका के महलों को नष्‍ट करने वाले दोनों ऊरुओं तथा घुटनों की रक्षा करें.

जङ्घे पातु कपिश्रेष्ठो गुल्फौ पातु महाबलः ।

अचलोद्धारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः ॥ १७॥

कपिश्रेष्‍ठ दोनों पिण्‍डलियों की रक्षा करें. महाबलवान दोनो टखनों की रक्षा करें. पर्वत को उठानेवाले एवं सूर्य के समान तेजस्वी हनुमान जी दोनों चरणों की रक्षा करें.

अङ्गानि पातु सत्त्वाढ्यः पातु पादाङ्गुलीः सदा ।

मुखाङ्गानि महाशूरः पातु रोमाणि चात्मवान् ॥ १८॥

अत्यंत महाबली हनुमान जी अंगों तथा पैर की अंगुलियों की सदा रक्षा करें. महाशूर मुख आदि अंगों की तथा मन को वश में रखने वाले रोमवलियों की रक्षा करें.

दिवारात्रौ त्रिलोकेषु सदागतिसुतोऽवतु ।

स्थितं व्रजन्तमासीनं पिबन्तं जक्षतं कपिः ॥ १९॥

वायु पुत्र कपिश्रेष्‍ठ हनुमानजी दिन रात तीनों लोकों में खड़े, चलते, पीते और खाते समय मेरी रक्षा करें.

लोकोत्तरगुणः श्रीमान् पातु त्र्यम्बकसम्भवः ।

प्रमत्तमप्रमत्तं वा शयानं गहनेऽम्बुनि ॥ २०॥

मैं सावधान होऊं या असावधान, अथवा गहरे जल में क्यों न सोया होऊं, सब जगह लोकोत्तर गुणशाली शिवपुत्र श्रीमान् हनुमान मेरी रक्षा करें.

स्थलेऽन्तरिक्षे ह्यग्नौ वा पर्वते सागरे द्रुमे ।

सङ्ग्रामे सङ्कटे घोरे विराड्रूपधरोऽवतु ॥ २१॥

स्थल में, आकाश में अग्नि में, पर्वत पर, समुद्र में, वृक्षपर, युद्ध में अथवा घोर संकट के समय विराटरूपधारी हनुमान जी मेरी रक्षा करें.

डाकिनीशाकिनीमारीकालरात्रिमरीचिकाः ।

शयानं मां विभुः पातु पिशाचोरगराक्षसीः ॥ २२॥

सोते समय मेरे प्रभु हनुमान जी डाकिनी, शाकिनी, मारी, कालरात्रि, मरीचिका, पिशाच, नाग तथा राक्षसियों को भागाकर मेरी रक्षा करें.

दिव्यदेहधरो धीमान्सर्वसत्त्वभयङ्करः ।

साधकेन्द्रावनः शश्वत्पातु सर्वत एव माम् ॥ २३॥

संपूर्ण प्राणियों के लिए भयंकर तथा श्रेष्‍ठ साधकों के रक्षक दिव्यदेहधारी बुद्धिमान हनुमान जी सदा सब ओर से मेरी रक्षा करें.

यद्रूपं भीषणं दृष्ट्वा पलायन्ते भयानकाः ।

स सर्वरूपः सर्वज्ञः सृष्टिस्थितिकरोऽवतु ॥ २४॥

जिनके भीषण रूप को देखकर भगयानक जंतु भी भाग खड़े होते हैं, वे सृष्टि, पालन और संहार करने वाले सर्वस्वरुप एवं सर्वज्ञ हनुमान मेरी रक्षा करें.

स्वयं ब्रह्मा स्वयं विष्णुः साक्षाद्देवो महेश्वरः ।

सूर्यमण्डलगः श्रीदः पातु कालत्रयेऽपि माम् ॥ २५॥

जो स्वयं ब्रह्मा, स्वयं विष्‍णु और स्वयं साक्षात महेश्‍वर देव हैं, वे सूर्यमण्‍डल तक पहुंचने वाले लक्ष्‍मीदाता हनुमान तीनों कालों में मेरी रक्षा करें.

यस्य शब्दमुपाकर्ण्य दैत्यदानवराक्षसाः ।

देवा मनुष्यास्तिर्यञ्चः स्थावरा जङ्गमास्तथा ॥ २६॥

सभया भयनिर्मुक्ता भवन्ति स्वकृतानुगाः ।

यस्यानेककथाः पुण्याः श्रूयन्ते प्रतिकल्पके ॥ २७॥

सोऽवतात्साधकश्रेष्ठं सदा रामपरायणः ।

जिनके शब्द को सुनकर दैत्य, दानव तथा राक्षस आदि स्थावर जग में प्राणी भय से छूटकर अपने-अपने कर्मों में लग जाते हैं तथा प्रत्येक कल्प में जिनकी अनेक पुण्‍य कथाएं सुनी जाती है, वे श्रीरामभक्त हनुमान श्रेष्‍ठ साधन की रक्षा करें.

वैधात्रधातृप्रभृति यत्किञ्चिद्दृश्यतेऽत्यलम् ॥ २८॥

विद्ध्वि व्याप्तं यथा कीशरूपेणानञ्जनेन तत् ।

ब्रह्मा और ब्रह्मा की सृष्टि आदि जो कुछ भी संपूर्ण जगत दृष्टिगोचर होता है, उस सबको निरंजन वानर स्वरुप से व्याप्त समझो.

यो विभुः सोऽहमेषोऽहं स्वीयः स्वयमणुर्बृहत् ॥ २९॥

ऋग्यजुःसामरूपश्च प्रणवस्त्रिवृदध्वरः ।

तस्मैस्वस्मै च सर्वस्मै नतोऽस्म्यात्मसमाधिना ॥ ३०॥

जो सर्वव्यापी परमात्मा हैं, वह मैं हूं. यह मैं, मेरा, अपना, मैं स्वयं, अणु, महान ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद सब हनुमानजी के ही रूप हैं. प्रणव तथा त्रिवृत यज्ञ भी वे ही हैं. वे स्व रूप तथा सर्व रूप हैं. मैं अपने चित को एकाग्र करके उनको नमस्कार करता हूं.

अनेकानन्तब्रह्माण्डधृते ब्रह्मस्वरूपिणे ।

समीरणात्मने तस्मै नतोऽस्म्यात्मस्वरूपिणे ॥ ३१॥

जो अनेकानेक अनंत ब्रह्माण्‍ड को धारण करते हैं तथा जो ब्रह्मस्वरुप, वायुपुत्र और आत्मस्वरुप हैं, उन हनुमानजी को मैं नमन करता हूं.

नमो हनुमते तस्मै नमो मारुतसूनवे ।

नमः श्रीरामभक्ताय श्यामाय महते नमः ॥ ३२॥

उन हनुमान जी को नमस्कार है, वायुपुत्र को नमस्कार है, श्रीरामभक्त को नमस्कार है तथा महान श्‍यामस्वरुप को नमस्कार है.

नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे ।

लङ्काविदहनायाथ महासागरतारिणे ॥ ३३॥

जो सुग्रीव की श्रीराम के साथ मैत्री कराने वाले, लंकापुरी को दग्ध करने वाले तथा महासागर को लांघ जाने वाले हैं. उन वानर वीर को नमस्कार है.

सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च ।

रावणान्तनिदानाय नमः सर्वोत्तरात्मने ॥ ३४॥

जो सीता जी के शोक का विनाश करने वाले, श्रीराम की दी हुई मुद्रिका को धारण करने वाले तथा रावण के विनाश के आदि कारण हैं, उन सर्वोत्तरात्मा हनुमान जी को नमस्कार है.

मेघनादमखध्वंसकारणाय नमो नमः ।

अशोकवनविध्वंसकारिणे जयदायिने ॥ ३५॥

मेघनाद के यज्ञ का विध्‍वंस करने वाले, अशोक वाटिका को नष्‍ट-भ्रष्‍ट कर देने वाले तथा विजयप्रदाता हनुमानजी को बारंबार नमस्कार है.

वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने ।

वनपालशिरश्छेत्रे लङ्काप्रासादभञ्जिने ॥ ३६॥

ज्वलत्काञ्चनवर्णाय दीर्घलाङ्गूलधारिणे ।

सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नमः ॥ ३७॥

जो आकाश के भीतर चलने वाले, वानर रक्षकों के मस्तक काक छेदन और लंका के महलों का भंजन करने वाले, तपाये हुए सुवर्ण के समान कांतिमान, लंबी लांगूल धारण करनेवाले तथा सुमित्राकुमार को विजय दिलाने वाले हैं, उन वीरवर वायुपुत्र श्रीरामदूत को नमस्कार है.

अक्षस्य वधकर्त्रे च ब्रह्मशस्त्रनिवारिणे ।

लक्ष्मणाङ्गमहाशक्तिजातक्षतविनाशिने ॥ ३८॥

रक्षोघ्नाय रिपुघ्नाय भूतघ्नाय नमो नमः ।

ऋक्षवानरवीरौघप्रासादाय नमो नमः ॥ ३९॥

जो रावण कुमार अक्षय का वध करनेवाले, मेघनाद के ब्रह्मास्त्र का निवारण कर देने वाले, लक्ष्‍मण के शरीर में महाशक्तिजनित घाव का विनाश करने वाले, राक्षसो के हंता, शत्रुओं के नाशक और भूतों के विघातक तथा रीछों और वानर वीरों के समुदाय को प्रसन्न करनेवाले हैं. उन पवननंदन को बारंबार नमस्कार है.

परसैन्यबलघ्नाय शस्त्रास्त्रघ्नाय ते नमः ।

विषघ्नाय द्विषघ्नाय भयघ्नाय नमो नमः ॥ ४०॥

शत्रु सैन्य बल के नाशक और शस्त्र तथा अस्त्रों के विनाशक आपको नमस्कार है. वषि नाशक, शत्रु नाशक औी भय नाशक आपको बारंबार नमस्कार है.

महीरिपुभयघ्नाय भक्तत्राणैककारिण ।

परप्रेरितमन्त्राणां यन्त्राणां स्तम्भकारिणे ॥ ४१॥

पयः पाषाणतरणकारणाय नमो नमः ।

बालार्कमण्डलग्रासकारिणे दुःखहारिणे ॥ ४२॥

आप बड़े-बड़े शत्रुओं के भय को मिटाने वाले तथा भक्तों के एकमात्र रक्षक हैं. शत्रुओं द्वारा प्रयुक्त यंत्र मंत्रों का स्तम्भन करने वाले, पानी पर पत्थर को तैरानेवाले, प्रात:कालीन बाल सूर्य के मण्‍डल को अपना ग्रास बनानेवाले तथा सबके दु:ख हर लेने वाले आप हनुमान बारंबार नमस्कार है.

नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च ।

विहङ्गमाय शवाय वज्रदेहाय ते नमः ॥ ४३॥

नख ही आपके आयुध हैं. आप देखने में भयंकर तथा दांतों को भी आयुध के रूप में धारण करते हैं. आप आकाशचारी, शिवस्वरुप तथा व्रजदेहधारी हैं. आपको नमस्कार है.

प्रतिग्रामस्थितायाथ भूतप्रेतवधार्थिने ।

करस्थशैलशस्त्राय रामशस्त्राय ते नमः ॥ ४४॥

आप प्रत्येक ग्राम में स्थित हैं, भूतों और प्रेतों का वध करे के लिए उद्यत रहते हैं. आपके एक हाथ में शस्त्र रूप में पर्वत है तथा आप श्रीराम के वाण हैं. आपको नमस्कार है.

कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च ।

दक्षिणाशाभास्कराय सतां चन्द्रोदयात्मने ॥ ४५॥

कृत्याक्षतव्यथाघ्नाय सर्वक्लेशहराय च ।

स्वाम्याज्ञापार्थसङ्ग्रामसख्यसञ्जयकारिणे ॥ ४६॥

भक्तानां दिव्यवादेषु सङ्ग्रामे जयकारिणे ।

किल्किलाबुबुकाराय घोरशब्दकराय च ॥ ४७॥

सर्वाग्निव्याधिसंस्तम्भकारिणे भयहारिणे ।

सदा वनफलाहारसन्तृप्ताय विशेषतः ॥ ४८॥

आप कौपीन वस्त्रधारी तथा श्रीराम भक्ति में तत्पर रहने वाले हैं. आप दक्षिण दशिा के सूर्य तथा सत्पुरुष के लिए चंद्रोदय रूप हैं. आप कृत्याजनित क्षति एवं व्यथा के नाशक तथा संपूर्ण क्लेशों का हरण करले वाले हैं. स्वामी की आज्ञा से पृथापुत्र अर्जुन को महाभारत युद्ध में सहायता देने एवं विजय दिलाने वाले हैं. आप दिव्य वादों तथा संग्राम में भक्तों को विजय दिलाने वाले किलकिला एवं बुबुकार करने वाले तथा भयंकर हिंसनाथ करने वाले हैं. आप संपूर्ण अग्नि एवं व्याधियों का स्तंभन करने वाले तथा भय हरने वाले हैं. विशेषत: आप सदा वन्य फलों के आहार से ही पूर्णत: तृप्त रहते हैं. महासागर में पत्थरों का सेतु बांधनेवाले आपको नमस्कार है.

महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नमः ।

इत्येतत्कथितं विप्र मारुतेः कवचं शिवम् ॥ ४९॥

ब्रह्मन! यह मैंने कल्याणमय मारुति कवच का वर्णन किया है. जिस किसी को भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिए. प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिए.

यस्मै कस्मै न दातव्यं रक्षणीयं प्रयत्नतः ।

अष्टगन्धैर्विलिख्याथ कवचं धारयेत्तु यः ॥ ५०॥

जो इस कवच को अष्‍टगंध से लिखकर कण्‍ठ अथवा दाहिनी बांह में धारण करता है, उसे पद पद पर विजय प्राप्त होती है.

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ जयस्तस्य पदे पदे ।

किं पुनर्बहुनोक्तेन साधितं लक्षमादरात् ॥ ५१॥

प्रजप्तमेतत्कवचमसाध्यं चापि साधयेत् ॥ ५२॥

बहुत कहने से क्या लाभ. यदि आदरपूर्वक लाख बार पाठ करके इसको सिद्ध कर लिया जाय तो इस कवच का जप असाध्‍य कार्य को भी सिद्ध कर सकता है.

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने

तृतीयपादे हनुमत्कवचनिरूपणं नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८॥

Next Article

Exit mobile version