भगवान भोलेनाथ बड़े ही भोले हैं. भक्तों की थोड़ी ही भक्ति से वे सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं. भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न कर उनसे मनवांक्षित फल प्राप्त करना बड़ा ही सहज है. अपने मद में चूर जिस रावण ने एक बार कैलाश पर्वत सहित भगवान शिव को उठाने का प्रयास किया था तब शिव शंकर ने अपने बायें पैर के अंगुठे से ही उसे दबा दिया था. ऐसे में रावण ने शिवतांडव स्त्रोत की रचना का उसका पाठ कर भगवान शिव को प्रसन्न किया था. भगवान भोलेनाथ जिस पर क्रुध भी हो जाते हैं उसके जरा से अनुनय से प्रसन्न भी तत्काल ही हो जाते हैं. ऐसे ही पुष्पदंत (कुसुमदंत) नामक गंदर्भ जब पुष्प चोरी के अपराध के कारण अपने दिव्य रूप को खो चुका था तो उसने चंद्रमौलेश्वर शिव की आराधना के लिए एक स्त्रोत की रचना की. इसी स्त्रोत के पाठ से उसे अपने दिव्य रूप पुन: प्राप्त हुए थे. ये स्त्रोत हैं –
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकर: कर्मसु जन:
हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म-फल का विधान बनाया. आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है. आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाए रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं.
क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्वज्यिं शरणद सदस्या: सुर-गणा:
क्रतुभ्रंशस्त्वत्त: क्रतुफल-विधान-व्यसनिन:
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखा:
हे प्रभु !!! यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है. दक्षप्रजापति के महायज्ञ सेउपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए. फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ. आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के संदर्भ में क्यों न हो.
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा
धनुष्पाणेयार्तं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस:
एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरूप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे. हे शंकर तब आपने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण लेकर ब्रह्मा की और कूच किया. आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भाग निकले तथाआज भी आपसे भयभीत हैं.
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत
पुर: प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतय:
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहधर्मिणी बनाया तो उन्हें आपके योगी होने पर शंका उत्पन्न हुई. यह शंका निर्मूल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को जला कर नष्ट करा दिया.
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचरा:
चिता-भस्मालेप: स्रगपि नृकरोटी-परिकर:
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तणां वरद परमं मङ्गलमसि
हे भोलेनाथ!!! आप श्मशान में रमण करते हैं, भूत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं. यह सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं. तब भी हे श्मशान निवासी आपके भक्तो को आप इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंददायी ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि हे शंकर आप मनोवांछित फलप्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते.
मन: प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुत:
प्रहृष्यद्रोमाण: प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृश:
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत किल भवान
हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पद्धति को अपनाते हैं जैसे की सांस पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि. इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनंद, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वह वास्तव में आप ही हैं.
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह:
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि
हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं. आप ही आत्मा भी हैं. हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों.
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि:
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदं
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, मं जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजु), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुशुप्त), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता है. हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं.
भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहान
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते
हे शिव, वेद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान। हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामों से स्तुति करता हूं.
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नम:
नम: क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम:
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नम:
नम: सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नम:
हे त्रिलोचन, आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महाविशाल भी हैं तथा परमसूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी. आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभी कुछ से परे भी हैं.
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नम:
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नम:
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नम:
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम:
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूं. हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूं. हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सभी का पालन करने वाले हैं. आपको नमस्कार है. आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं. हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूं.
कृश-परिणति-चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धि:
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम
हे शिव आप गुणातीत हैं और आपका विस्तार नित बढ़ता ही जाता है. अपनी सीमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूं? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूं.
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति
यदि कोई गिरी (पर्वत) को दवात, सिंधु को स्याही, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा मां सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है.
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौले:
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य
सकल-गण-वरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधान:
रुचिरमलघुवृत्तै: स्तोत्रमेतच्चकार
इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गंधर्व ने चन्द्रमौलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है जो गुणातीत हैं.
अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्त: पुमान्य:
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायु: पुत्रवान कीर्तिमांश्च
जो भी इस स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वह जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंतत: शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवतुल्य हो जाता है.
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति:
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरो: परम
महेश से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरु से ऊपर कोई सत्य नहीं.
दीक्षा दानं तपस्तीथंर् ज्ञानं
योगादिका: क्रिया:
महिम्नस्तव पाठस्य कलां
नार्हन्ति षोडशीम
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इस स्तोत्र के पाठ के सोलहवें अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते.
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राज:
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दास:
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्न:
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चंद्रमौलेश्वर शिव जी का परम भक्त था. अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वह अपने दिव्य स्वरूप से वंचित हो गया तब उसने इस स्तोत्र की रचना कर शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्य स्वरूप को पुन: प्राप्त किया.
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्य: प्राञ्जलिर्नान्य-चेता:
व्रजति शिव-समीपं किन्नरै: स्तूयमान:
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाता है तथा ऋषि-मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है.
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परम सुख की प्राप्ति होती है.
इत्येषा वाहृयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयो:
अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिव:
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पित है. प्रभु महादेव हमसे प्रसन्न हों.
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर,
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नम:
हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप को नहीं जानता. हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है.
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं य: पठेन्नर:
सर्वपाप-विनिर्मुक्त: शिव लोके महीयते
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है.
श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेश:
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी को अत्यंत ही प्रिय है. इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है.