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पराधीन सपनेहुं सुखु नाहीं
बल्देव भाई शर्मा संत तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में भगवान राम की कथा के साथ अन्य अनेक प्रसंगों के माध्यम से मनुष्य जीवन को एक संपूर्ण दृष्टि देने का प्रयास किया है. सुख-दुख, जीवन-मृत्यु, पाप-पुण्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म और मान-अपमान आदि से संबंधित जीवन का जो कुछ भी भाव बोध है उस सबकी व्याख्या व समाधान […]
बल्देव भाई शर्मा
संत तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में भगवान राम की कथा के साथ अन्य अनेक प्रसंगों के माध्यम से मनुष्य जीवन को एक संपूर्ण दृष्टि देने का प्रयास किया है. सुख-दुख, जीवन-मृत्यु, पाप-पुण्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म और मान-अपमान आदि से संबंधित जीवन का जो कुछ भी भाव बोध है उस सबकी व्याख्या व समाधान कथा प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है.
इसलिए करीब चार सौ वर्षों से यह ग्रंथ भारतीय जनमानस में गहरा बैठा हुआ है. मानव जीवन के लिए इस ग्रंथ का दिशाबोध इतना उपयोगी है कि भारत की सीमाएं लांघकर रूस और चीन जैसे देशों में भी डाॅ वारान्निकोव व प्रो जिन दियांग सरीखे हिंदी विद्वानों ने अपनी भाषाओं में इसका अनुवाद कर इसे अपने देशवासियों के लिए सुलभ कराया. वस्तुत: यह ग्रंथ मानवता का मंत्र है जो सुखी खामियानी और परोपकारी जीवन जीने की कला सिखाता है. शायद इसी भाव बोध से प्रेरित होकर पादरी फादर कामिल बुल्के भी रामकथा के अनुरागी बन गये.
दो दिन बाद हम भारतवर्ष का 70वां स्वाधीनता दिवस मनाने जा रहे हैं. किसी भी देश और देशवासियों के लिए इससे ज्यादा गर्व की बात क्या हो सकती है कि पराधीनता की बेड़ियां काटकर वे आजादी की खुली हवा में सांस ले सकें.
चाहे इसके लिए उन्हें कितने ही बलिदान क्यों न देने पड़े. भारत की स्वाधीनता का मंदिर ऐसे ही असंख्य दुरात्माओं के त्याग और वीरतापूर्ण संघर्ष की नींव पर खड़ा हुआ. यह दिन न केवल पूरी श्रद्धा से उन अविस्मरणीय स्वाधीनता सेनानियों की पुण्य स्मृति को नमन करने का है. बल्कि उस संकल्प को परखने का भी है जो हमने 15 अगस्त, 1947 को उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप स्वाधीन भारत को गढ़ने का लिया था. जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन सर्वस्व राष्ट्रयज्ञ में झोंक दिया.
मानस में तुलसीदास ने लिखा है-‘जद्यपि जग दुख दारून नाना, सब तें अधिक जाति अपमाना’ यहां जाति शब्द व्यक्तिवाचक नहीं है, भाववाचक है अर्थात समाज, आज के अर्थ में उसे देश कह सकते हैं. यानी दुनिया में मानव जीवन के लिए एक से एक बड़ा असह्य दुख है, लेकिन मातृभूमि के अपमान से बड़ा दुख कोई नहीं हैं. इसी अपमान से तिलमिलाकर महाराणा प्रताप ने मातृभूमि की पराधीनता के खिलाफ लड़ते हुए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया और वन-वन भटकते हुए घास की रोटियां तक खायीं.
इसीलिए वह आज भी भारतीय जनमानस में एक महान योद्धा के रूप में विराजमान हैं. राजस्थान में आज भी यह उक्ति गर्व से चर्चित है. ‘ माई ऐहणा पूत जण जेहणा महाराणा प्रताप’ यानी वहां हर माता की ये ख्वाहिश रहती है कि वह महाराणा प्रताप जैसे महान जीवनव्रती और संकल्पवान पुत्र को जन्म दे. महाभारत में उद्धृत ‘विदुलोपाख्यानम्’ ऐसी ही एक माता बिदुला का प्रसंग है.
जो युद्ध की भीषणता देखकर जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए अपने सैनिक पुत्र को कायरता के लिए लताड़ती है. अंतत: माता के उपदेश से प्रेरित होकर वह पुत्र युद्ध क्षेत्र में लौटता है और वीरतापूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होता है. यह समाचार पाकर पुत्र के युद्ध के भागने पर शर्मिंदा हो रही बिदुला का मुख गर्व से चमचमा उठता है.
ऐसी वीर माताओं की पराक्रमी संतानाें ने ही भारत के स्वाधीनता संग्राम की अग्नि को अनवरत जलाये रखा. फलस्वरूप भारत स्वाधीनता के आकाश में एक दैदीपरूमान नक्षत्र की तरह चमक उठा. शहीदे आजम भगत सिंह की फांसी के जब कुछ ही दिन बचे थे तब उनकी माता विद्यावती देवी जेल में मिलने गयी. बातें करते-करते पुत्र विछोह की पीड़ा से माता की आंखें नम हो गयीं, तो भगत सिंह बोले ना बेबे, तुम भगत सिंह की मां हो.
सुनकर माता मुस्कुरा दी. भगत सिंह ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाते हुए राजगुरु, सुखदेव के साथ फांसी पर झूल गये. मां को वीरमाता की उपाधि मिली. भारत की स्वाधीनता संग्राम ऐसी असंख्य त्यागपूर्ण और बलिदानी कथाओं का समुच्चय है जो तुलसीदास के लिखे – ‘पराधीन सपनेहुं सुखु नाहीं’ को चरितार्थ करती है. देश के जिस काल-परिस्थिति के बीच रामचरितमानस की रचना हुई, उनका अक्स उस ग्रंथ को रचते समय संत तुलसीदास के मनोभावों में झलकता है.
वे समाज को उन परिस्थितियों के प्रति जागरूक करना चाहते हैं ताकि जन-मन श्रीराम के आदर्श को लेकर धर्म, संस्कृति और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए स्वाभिमान के साथ खड़ा हो. सामाजिक चेतना किसी जादू की छड़ी से फटाफट नहीं जगायी जा सकती. भारत की स्वाधीनता ऐसे सुदीर्घ प्रयत्नों की ही फलश्रुति है.
तुलसीदास का लिखा ‘पराधीन सपनेहुं सुखु नाहीं’ भी इस दौर में इसका एक बीजारोपण माना जा सकता है जिसने देश की तत्कालीन पराधीन परिस्थितियों के बीच लोकमानस को झकझोरा. भारत की संस्कृति और दर्शन विश्व कल्याण और संसार में शांति सौहार्द व बंधुत्व का भाव जगाने का संदेश देता है. इसके लिए भारत का भारत बने रहना जरूरी है.
हमारे ऋषियों ने वेद, पुराण, उपनिषद रच कर जिन संस्कारों और जीवन मूल्यों को मानव कल्याण के लिए उद्घाटित किया, उस जीवन दृष्टि के नष्ट होने पर भारत कैसे बचेगा? इसलिए ऋग्वेद में उद्घोष किया गया ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिता’ यानी हम सदा राष्ट्र की परिस्थितियों के प्रति जागरूक रहें. जागरूक रहने का मतलब उन परिस्थितियों का निराकरण कर हम निरंतर राष्ट्र के सर्वतोमुखी उन्नयन में सहभागी बने रहें.
भारत का अध्यात्म दर्शन केवल वैराग्य नहीं सिखाता, बल्कि सदगुण सदाचार से युक्त, स्वार्थ-भेद से मुक्त सुखी-संपन्न जीवन जीने की राह भी दिखाता है जो दूसरों के हितों की भी परवाह करता हो. इसलिए जीवन का लक्ष्य तय किया ‘आत्मानं मोक्षार्थ जगद हताय च’ यानी जिसमें अपनी उन्नति और संसार का कल्याण दोनों के बीच कोई टकराव नहीं.
आजादी के बाद स्वाधीनता सेनानियों के सपनों के अनुरूप भारत को सुखी, संपन्न, भेदभाव रहित व स्वाभिमानी देश बनाकर विश्व में अग्रणी राष्ट्र के रूप में खड़ा करने का संकल्प केवल सरकारों के भरोसे पूरा नहीं हो सकता. इसके लिए नागरिक चेतना जगाने की जरूरत है कि यह मेरा देश है, इसकी आजादी से मिले अधिकारों के भरोसे यह पूरा नहीं हो सकता.
भारत के नवनिर्माण में मेरा क्या योगदान है. पिछले 69 वर्षों में सरकारों की सफलता-विफलता, नीतियां-सरोकारों की मीमांसा हो सकती है, उस पर बहस भी हो ताकि कुछ नये सबक लेकर आप हम आगे भारत को यशस्वी बनाने के एक सही रास्ते पर चल सकें.
लेकिन जात-पात, मजहब के भेदभाव, स्वच्छता, पर्यावरण, जल संरक्षण, स्त्रियों की सुरक्षा व उनका सम्मान, कानून पालन, देश की आंतरिक बाह्य सुरक्षा, राष्ट्रीयता, अनुशासन, भ्रष्टाचार, जिस कार्यालय में हैं वहां ड्यूटी को ईमानदारी व समर्पण के साथ निभाने जैसे मुद्दों पर राष्ट्रहित में अपनी भूमिका तय करना और उसके अनुरूप आचरण करना ज्यादा महत्वपूर्ण है.
अपने स्वार्थ के लिए किसी भी सामाजिक बुराई या निजी दुर्गुण को पनपने न देना, यह ईमानदार सोच प्रत्येक देशवासी की बने. आजादी का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है कि अपनी सुविधा के अनुरूप रास्ते बनाते रहें, उन्हें परिभाषित करते रहें. भारत का मर्म अध्यात्म है.
इसलिए आज भी दुनिया भर के लोग भौतिक चकाचौंध से ऊब कर भारत की गोद में शांति पाने आते हैं. इस अध्यात्मिक व सांस्कृतिक चेतना को जीवंत बनाये रख कर स्वाधीन भारत के नवनिर्माण का स्वप्न पूरा करें. तभी भारत न केवल अपने बल्कि विश्व के लिए भी हितकारी भूमिका निभा सकेगा. यही भारत की स्वाधीनता की सार्थकता है.
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