इच्छा की सड़ांध

जब तक भी हमारे भीतर कुछ हासिल करने की इच्छा है, कुछ उपलब्धि पाने की इच्छा है, कुछ होने-बनने की इच्छा है, भले ही वह इच्छा किसी भी स्तर पर हो, तब तक वहां पर क्षोभ, गुस्सा, शोक, भय अवश्य होगा. हमारे अंदर से अमीर होने की आकांक्षा, ये और वो होने की महत्वाकांक्षा तभी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 9, 2016 6:31 AM

जब तक भी हमारे भीतर कुछ हासिल करने की इच्छा है, कुछ उपलब्धि पाने की इच्छा है, कुछ होने-बनने की इच्छा है, भले ही वह इच्छा किसी भी स्तर पर हो, तब तक वहां पर क्षोभ, गुस्सा, शोक, भय अवश्य होगा. हमारे अंदर से अमीर होने की आकांक्षा, ये और वो होने की महत्वाकांक्षा तभी गिर सकती है, जब हम इस शब्द में निहित सड़ांध या महत्वाकांक्षा की भ्रष्ट प्रकृति को समझ लें.

उन क्षणों में जब कि हम देख-समझ लेते हैं कि ताकत, सत्ता हासिल करने की इच्छा, चाहे वह किसी भी रूप में हो, चाहे वह प्रधानमंत्री बन जाने की हो या जज या कोई पुजारी या धर्मगुरु बन जाने की हो- हमारी किसी भी प्रकार की शक्ति अर्जित करने की इच्छा आधारभूत रूप से पैशाचकीय या पाप है. लेकिन, हम नहीं देख पाते कि महत्वाकांक्षा भ्रष्ट करती है, यह कि शक्ति की ताकत की आकांक्षा वीभत्स है. इसके विपरीत हम कहते हैं कि हम शक्ति और ताकत को भले काम में लगायेंगे, जो कि निहायत ही बेवकूफाना वक्तव्य है. किसी भी गलत चीज से अंत में कोई सही चीज हासिल नहीं की जा सकती है.

यदि किसी चीज को अर्जित करने के लिए माध्यम या साधन गलत हैं, तो उनका अंजाम या परिणाम भी गलत ही होंगे. यदि हम सभी महत्वाकांक्षाओं के संपूर्ण आशय को, उनके परिणामों, उसके परिणामों के साथ ही मिलनेवाले एेच्छिक-अनैच्छिक परिणामों सहित नहीं जानते-समझते हैं और अन्य इच्छाओं के केवल दमन का प्रयास करते हैं, तो इस बात का कुछ भी अर्थ नहीं है. हम अपनी इच्छाओं के लिए पागल हुए जाते हैं, हम अपने आपको इच्छा द्वारा तुष्ट करना चाहते हैं. लेकिन हम यह नहीं देखते कि वैयक्तिक सुरक्षितता की इच्छा, व्यक्तिगत उपलब्धि, सफलता, शक्ति, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, आदि इन इच्छाओं ने इस संसार में क्या कहर बरपाया हुआ है.

हमें यह एहसास तक नहीं है कि हम ही उन सबके जिम्मेवार हैं, जो हम कर रहे हैं. अगर कोई इच्छा को, उसकी प्रकृति को समझ जाये, तो उस इच्छा का स्थान या मूल्य ही क्या है? क्या वहां इच्छा का कोई स्थान है, जहां प्रेम है? या जहां इच्छा हो, क्या वहां प्रेम के लिए कोई जगह बचती है? बिल्कुल नहीं.

– जे कृष्णमूर्ति

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