आवेशित भावावेश

सभी आवेगों में निश्चित ही बहुत समानता है: वह है भावावेशित हो जाना. यह चाहे प्रेम हो, चाहे यह घृणा हो, चाहे यह क्रोध हो. यदि ये बहुत अधिक हो जायें, तो यह तकलीफ और दर्द का अनुभव पैदा करते हैं. यह विशेष रूप से एक भावावेशित व्यक्तित्व का सूचक है. जब यह क्रोध है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 16, 2016 12:49 AM

सभी आवेगों में निश्चित ही बहुत समानता है: वह है भावावेशित हो जाना. यह चाहे प्रेम हो, चाहे यह घृणा हो, चाहे यह क्रोध हो. यदि ये बहुत अधिक हो जायें, तो यह तकलीफ और दर्द का अनुभव पैदा करते हैं. यह विशेष रूप से एक भावावेशित व्यक्तित्व का सूचक है. जब यह क्रोध है, तब यह पूरी तरह क्रोध है. और जब यह प्रेम है, यह पूरी तरह प्रेम है.

यह पूर्ण रूप से, अंधे की तरह उस भाव में डूब जाता है. और इसके परिणामस्वरूप जो भी कृत्य होता है, वह गलत होता है. यहां तक कि यदि भावावेशित प्रेम भी हो, तो जो कृत्य इससे निकलता है, वह ठीक नहीं होगा. इसके मूल की तरफ जायें, जब भी तुम किसी भाव से आवेशित होते हो, तुम सभी तर्क खो देते हो, तुम सभी ग्राहकता, अपना हृदय खो देते हो. यह लगभग एक काले बादल की तरह होता है, जिसमें तुम खो जाते हो. तब तुम जो भी करते हो, वह गलत होनेवाला है. प्रेम तुम्हारे भावावेश का हिस्सा नहीं होना चाहिए. साधारणतया लोग यही सोचते और अनुभव करते हैं, परंतु जो कुछ भी भावावेशित है, बहुत अस्थिर है.

यह एक हवा के झोंके की तरह आता है और गुजर जाता है, और पीछे तुम्हें रिक्त, बिखरा हुआ, दुख और पीड़ा में छोड़ जाता है. जिन्होंने आदमी के पूरे अस्तित्व को, उसके मन को, उसके हृदय को, उसके होने को जाना है, उनके अनुसार, प्रेम तुम्हारे अंतरतम की अभिव्यक्ति होनी चाहिए न कि एक भावावेश. भाव बहुत नाजुक, बहुत परिवर्तनशील होता है. एक क्षण को लगता है कि यही सब कुछ है, दूसरे क्षण तुम पूरे रिक्त होते हो. इसलिए प्रेम को इस आवेशित भावावेश की भीड़ से बाहर कर लेना है. प्रेम भावावेश नहीं है. इसके विपरीत, प्रेम एक गहरी अंतर्दृष्टि, स्पष्टता, संवेदनशीलता और जागरूकता है.

इस तरह का प्रेम शायद ही कभी उपलब्ध होता है. कुछ लोग हैं, जो अपनी कार को प्रेम करते हैं- वह प्रेम मन का प्रेम है. वहीं तुम अपनी पत्नी को, अपने पति को, अपने बच्चे को प्रेम करते हो- वह प्रेम हृदय का प्रेम है. परंतु उसे जीवंत बने रहने कि लिए बदलाव की आवश्यकता है, और चूंकि तुम उसे उसकी परिवर्तनशीलता की अनुमति नहीं देते, इसलिए वह जड़वत हो जाता है.

– आचार्य रजनीश ओशो

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