आपने किसी खूबसूरत कार को देखा, उसको छुआ, उसके रूप-आकार को देखा. इससे जो उपजा, वह संवेदन है. उसके बाद विचार का आगमन होता है, जो कहता है, ‘कितना अच्छा हो कि यदि यह मुझे मिल जाये. कितना अच्छा हो कि मैं इसमें बैठूं और इसकी सवारी करता हुआ कहीं दूर निकल जाऊं.’ इस तरह विचार दखल देता है, संवेदना को रूप आकार देता है.
विचार, आपकी संवेदना को वह काल्पनिक छवि देता है, जिसमें आप कार में बैठे, उसकी सवारी कर रहे हैं. इसी क्षण, जबकि आपके विचार द्वारा ‘कार में बैठे होने, सवारी की जाने की’ छवि तैयार की जा रही है. एक दूसरा काम भी होता है, वह है इच्छा का जन्म. जब विचार संवेदना को एक आकार, एक छवि दे रहा होता है, तब ही इच्छा भी जन्मती है. संवेदना तो हमारे अस्तित्व, हमारे होने का तरीका या उसका एक हिस्सा है. लेकिन, हमने इच्छा का दमन या उस पर जीत हासिल करना, या उसके साथ ही उसकी सभी समस्याओं सहित जीना सीख लिया है.
अब, यदि आप यह सब समझ गये हैं, तो अब यह प्रश्न उठता है कि क्या यह संभव है कि जब हम कार को देखें और छुएं जो कि संवेदना है, उस समय समानांतर रूप से विचार किसी छवि को न गढ़े? क्या यह हो सकता है कि संवेदना ही हो, विचार न हो? प्रश्न है कि क्या कोई ऐसी जगह, जहां पर केवल संवेदन हो, जहां ऐसा ना हो कि विचार आये और संवेदन पर नियंत्रण कर ले. यही समस्या है. क्यों विचार छवि गढ़ता है और संवेदना पर कब्जा कर लेता है? क्या यह संभव है कि हम एक सुंदर शर्ट को देखें, उसे छुयें, महसूस करें और ठहर जायें, इस अहसास में विचार को न घुसने दें?
क्या आपने कभी ऐसा कुछ करने की कोशिश की? जब विचार संवेदना या अहसास के क्षेत्र में आ जाता है और विचार भी संवेदन ही है, तब विचार संवेदना या अहसास पर काबू कर लेता है और इच्छा या कामना आरंभ हो जाती है. क्या यह संभव है कि हम केवल देखें, जांचें, संपर्क करें, महसूस करें? इस सब में अनुशासन की कोई जगह नहीं है, क्योंकि जब आप अनुशासन की शुरुआत करते हैं, तो वह कुछ पाने या हो जाने की इच्छा का एक दूसरा ही रूप होता है.
– जे कृष्णमूर्ति