मनुष्य की पात्रता

छात्रों में से जो उत्तीर्ण होते हैं, वह अगली कक्षा में चले जाते हैं. जो अधिक अच्छे नंबर लाते हैं, वे छात्रवृत्ति पाते हैं. इसके विपरीत जो फेल होते रहते हैं, वे साथियों में उपहासास्पद बनते, घरवालों के ताने सहते, अध्यापकों की आंखों में गिरते और अपना भविष्य अंधकारमय बनाते हैं. इसमें ईश्वर की विधि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 24, 2016 5:21 AM

छात्रों में से जो उत्तीर्ण होते हैं, वह अगली कक्षा में चले जाते हैं. जो अधिक अच्छे नंबर लाते हैं, वे छात्रवृत्ति पाते हैं. इसके विपरीत जो फेल होते रहते हैं, वे साथियों में उपहासास्पद बनते, घरवालों के ताने सहते, अध्यापकों की आंखों में गिरते और अपना भविष्य अंधकारमय बनाते हैं.

इसमें ईश्वर की विधि व्यवस्था को, अन्य किसी को कोसना व्यर्थ है. मनोयोग और परिश्रम में अस्त-व्यस्तता कर लेने से ही छात्रों को प्रगतिशीलता का वरदान अथवा अवमानना का अभिशाप सहना पड़ता है. यह बाहर से मिला हुआ सोचा तो जा सकता है, पर असल में होता है स्वउपार्जित ही. मनुष्य जीवन निस्संदेह सुर-दुर्लभ उपहार और ईश्वरी वरदान है, इसका दुरुपयोग करना ऐसा अभिशाप है, जिसकी प्रताड़ना मरने के उपरांत नहीं, तत्काल हाथों-हाथ सहनी पड़ती है.

यह एक प्रकट रहस्य है कि बोलने, सोचने, कमाने, घर बसाने, चिकित्सा, शिक्षा, विज्ञान, वाहन, शासन, बिजली की जो सुविधाएं मनुष्य को मिली हैं, वे सृष्टि के उन्य किसी प्राणी को नहीं मिली. अभ्यास में रहने के कारण इनका महत्व प्रतीत नहीं होता, पर यदि उसे अन्य जीवों की आंख में बैठ कर देखा जाये, तो प्रतीत होगा कि स्वर्ग और देवता की सुविधा का जो वर्णन है, वह पूरी तरह मनुष्य पर लागू होता है. भगवान ने ऐसा पक्षपात क्यों किया कि अन्य प्राणी जिन सुविधाओं से वंचित रहे, उन्हें मात्र मनुष्य को दिया गया? मोटी दृष्टि से यह अन्याय या पक्षपात समझा जा सकता है. जीवों में से लंबी अवधि के उपरांत हर किसी को यह अवसर मिलता है कि वह सुयोग का लाभ उठाये और अपनी इस पात्रता का परिचय दे कि वह बड़े अनुदानों को उन्हीं कामों में खर्च कर सकता है.

निश्चित रूप से वासना तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए यह अनुदान किसी को भी नहीं मिला है. यह पशु प्रवृत्तियां हेय से हेय योनि में भली प्रकार पूरी होती रहती है. इन सुविधाओं के लिए ऐसा अनुदान देने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी. मनुष्य जीवन तो विशुद्ध रूप से एक काम के लिए मिला है कि ‘सृष्टा के विश्व उद्यान का भौतिक पक्ष समुन्नत और आत्मिक पक्ष सुसंस्कृत बनाने में हाथ बंटाया जाये.’ ऐसा आदान-प्रदान किसी अन्य समुदाय में नहीं मिलता.

– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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