कभी उदास होकर यह मत सोचो कि ‘मेरा कोई नहीं है’. ढेर सारे पेड़ हैं, खुली छत है, आसमान है. किसी पेड़ से ही लिपट जाओ. इनमें बहुत ऊर्जा होती है. रोज इसके पत्ते मर जाते हैं, रोज नये पत्ते पैदा हो जाते हैं. पेड़ों को गले लगाओ, पेड़ को अपना मित्र मान लो. अब आप कहोगे कि हम पेड़ से गले लग रहे हैं, अगर कोई देखेगा, तो हमें पागल ही कहेगा. अगर कह ही लेगा, तो उससे क्या होगा?
इससे ज्यादा तो कुछ नहीं होगा. लेकिन, आप जब उनको समझायेंगे कि हम क्या कर रहे थे, तब तो वह आपको बहुत बुद्धिमान ही कहेगा कि बहुत सयाने आदमी हो. हमें अपने भीतर तह नहीं बनानी चाहिए. तहों को खोल कर रखना है. पर खोलें कहां, यह भी देखना चाहिए. जो कम समझदारी से नरमी से बोल कर निपट जाता हो, वही काम तो गुस्से से हम उल्टे और खराब कर देते हैं. एक नियम बना लीजिये! कुछ भी काम बिगड़ जाये, गुस्सा नहीं करना. कोई चीज बिगड़ गयी है या कोई आदमी हम से नाराज जो गया है, तो उसको हम राजी कर सकते हैं. बेवजह अपना मूड क्यों खराब करना.
क्योंकि मन बेचारा तो वैसे भी नाराज रहने को तैयार रहता है, कोई छेड़े तो फिर दिखो. हम लोग तैयार हैं उदास होने को, गुस्सा खाने को और फिर जिस पर हमारा बस चले, उस पर गुस्सा निकाल भी देते हैं. जबकि उससे पूछ लेना चाहिए ‘कि भाई! मेरे से कोई गलती हुई है तो बता दो, या अनजाने में मैने कुछ कह दिया हो तो बता दो. पर हम पूछते नहीं हैं. उल्टे अपने मन में गांठ बना लेते है कि देख लेंगे तुम्हें. लेकिन, अगर गुस्सा आ जाये, तो माफी मांग लें और कोई मेहनत का काम करके अपने आपको खाली कर लें.
जब गुस्सा शांत हो जाये, तो आकर उस से कहे कि ‘हां, अब बता! अब मैं तुमसे बात कर सकता हूं. क्योंकि उस समय मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था.’ अब चूंकि हम भी इनसान हैं. मन ही मन गुस्सा पालते रहते हैं. हम अपनी ऊर्जा को बेकार के कामों में लगा कर खराब कर लेते हैं. बल्कि होना यह चाहिए कि ध्यान-प्राणायाम-साधना करें, कुछ गायें, कोई सेवा कर लें. कोई किताब पढ़ लें, कुछ चिंतन कर लें, कुछ भी करें, रचनात्मक होना चाहिए. यही तो मजा है जिंदगी का.
– आनंदमूर्ति गुरु मां