विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है. ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुंच जायेगा, त्यों ही उसकी प्रगति रुक जायेगी, क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा. इसका उदाहरण यह है- रसायन-शास्त्र यदि एक बार उस एक मूल तत्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह अपने और आगे नहीं बढ़ सकेगा.
भौतिक-शास्त्र जब उस शक्ति का पता लगा लेगा- अन्य शक्तियां जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह वहीं रुक जायेगा. ठीक वैसे ही धर्म-शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो मृत्यु के इस लोक में एकमात्र जीवन है, जो इस परिवर्तनशील जगत का शाश्वत आधार है, जो एकमात्र परमात्मा है, अन्य सब आत्माएं जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियां हैं. इस प्रकार अनेकता और द्वैत में होते हुए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती है. धर्म इससे आगे नहीं जा सकता. यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य है. सच्चा विज्ञान हमें सावधान रहना सिखाता है. जिस तरह पुरोहितों से हमें सावधान रहना चाहिए, उसी तरह वैज्ञानिकों से भी हमें सावधान रहना चाहिए. पहले अविश्वास से आरंभ करो. छानबीन करो, परीक्षा करो और प्रत्येक वस्तु का प्रमाण मांगने के बाद उसे स्वीकार करो.
आजकल के विज्ञान के बहुत से प्रचलित सिद्धांत, जिनमें हम विश्वास करते हैं, सिद्ध नहीं हुए हैं. गणित जैसे शास्त्र में भी बहुत से सिद्धांत ऐसे हैं, जो केवल कामचलाऊ परिकल्पना के सदृश ही हैं. जब ज्ञान की वृद्धि होगी, तो ये फेंक दिये जायेंगे. ज्ञान का मार्ग अच्छा है, परंतु उसके शुष्क वाद-विवाद में परिणत हो जाने का डर रहता है. भक्ति बड़ी ही उच्च चीज है, पर उसके निरर्थक भावुकता पैदा होने के कारण वास्तविक चीज ही के नष्ट हो जाने की संभावना रहती है. ज्ञान की दृष्टि में भक्ति मुक्ति का एक साधन भी है और साध्य भी. मेरी दृष्टि में तो यह भेद नाममात्र का है- ज्ञानी और भक्त दोनों ही अपनी-अपनी साधना-प्रणाली पर विशेष जोर देते हैं; वे यह भूल जाते हैं कि पूर्ण भक्ति के उदित होने से पूर्ण ज्ञान बिना मांगे ही मिल जाता है और इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान के साथ पूर्ण भक्ति भी अभिन्न है.
स्वामी विवेकानंद