प्रेम और घृणा का द्वंद्व

मन जहां तक है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा. मन बिना द्वंद्व के ठहर भी नहीं सकता; पलभर भी नहीं ठहर सकता. मन के होने का ढंग ही द्वंद्व है. वह उसके होने की बुनियादी शर्त है. अगर तुम्हारे मन में प्रेम होगा, तो साथ ही साथ कदम मिलाती घृणा भी होगी. जिस दिन घृणा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 18, 2017 6:10 AM

मन जहां तक है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा. मन बिना द्वंद्व के ठहर भी नहीं सकता; पलभर भी नहीं ठहर सकता. मन के होने का ढंग ही द्वंद्व है. वह उसके होने की बुनियादी शर्त है. अगर तुम्हारे मन में प्रेम होगा, तो साथ ही साथ कदम मिलाती घृणा भी होगी. जिस दिन घृणा विदा हो जायेगी, उसी दिन प्रेम भी विदा हो जायेगा. इसलिए तो बुद्ध पुरुषों का प्रेम बड़ा शीतल मालूम पड़ता है. वह उष्णता प्रेम की, जो हम सोचते हैं, दिखाई नहीं देती. वैसा प्रेम गया.

वह ज्वर गया. इसलिए तो बुद्ध पुरुषों के प्रेम को हमने प्रेम भी नहीं कहा, करुणा कहा है, प्रार्थना कहा है. प्रेम कहना ठीक नहीं मालूम पड़ता. प्रेम का पैशन, त्वरा, तूफान, वहां कुछ भी नहीं है. ऐसा ही समझो कि सागर में लहरें उठी हैं, बड़ी आंधी आयी है, बड़ा तूफान आया है, फिर लहरें शांत हो गयी हैं. तो क्या तुम यह कहोगे- जब सागर में कोई तूफान न होगा- कि अब तूफान है, लेकिन शांत है? तूफान बचा ही नहीं. अब यह कहना कि तूफान है और शांत है, व्यर्थ की बात हुई. शांत होने का अर्थ ही है कि तूफान न रहा.

और जब सागर में तूफान उठता है, तो अकेले सागर से नहीं उठता, हवाओं के थपेड़े भी चाहिए, आंधियां चाहिए. अकेले से कहीं तूफान उठे हैं! दो चाहिए, द्वंद्व चाहिए, संघर्ष चाहिए. मन का सारा गुबार, मन की धूल के बवंडर द्वंद्व से उठते हैं. जब तुम प्रेम से भरते हो, तुम घृणा को भूल जाते हो. जब तुम घृणा से भरते हो, तुम प्रेम को भूल जाते हो. क्योंकि दोनों को एक साथ देखना तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर है. जिस दिन दोनों को साथ देख लोगे, दोनों से मुकाबिल हो जाओगे. एक तरफ श्रद्धा करते हो, दूसरी तरफ अश्रद्धा भी पलती है.

जिसके भीतर श्रद्धा है, उसी के भीतर अश्रद्धा हो सकती है. इसे समझने की कोशिश करना. अगर कोई मेरे संबंध में अश्रद्धा से भरा है, तो जान लेना कि कहीं पैर मिलाती श्रद्धा भी चलती होगी. इसलिए मेरे दुश्मनों को मेरे दुश्मन मत मान लेना, उनमें मेरे मित्र भी छिपे हैं. जो मेरी निंदा करने का कष्ट उठाता है, उसके भीतर कहीं प्रशंसा छिपी है. अन्यथा निंदा भी व्यर्थ हो जायेगी. कौन निंदा की चिंता करेगा? दुश्मन के भीतर मित्रता छिपी है, मित्र के भीतर दुश्मनी छिपी है. इसलिए तुम किसी को दुश्मन न बना सकोगे, अगर तुमने मित्र न बनाया.

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