Astrology: सतयुग ही नहीं, त्रेतायुग से होता आया है ज्योतिष विद्या का प्रयोग
Astrology: ज्योतिष शब्द की उत्पत्ति, संस्कृत के 'द्युत' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- चमकना या प्रकाशित होना. इसमें 'इसुन्' प्रत्यय लगने से 'द' को 'ज' आदेश हुआ और इसके बाद 'सुप्' इत्यादि प्रत्यय लगकर नपुंसकलिंग एकवचन का शब्द 'ज्योतिषम्' बना.
सलिल पाण्डेय, मिर्जापुर
धर्म-अध्यात्म व ज्योतिष विशेषज्ञ
Astrology: इक्कीसवीं सदी के इंटरनेट युग के दिनोंदिन बढ़ते प्रभावों के दौरान ज्योतिष-विद्या के बारे में चिंतन- मनन करने पर यह विद्या इतनी सार्थक एवं प्रमाणिक प्रतीत होती है और ऐसी धारणा बनती है कि भारतीय ऋषियों- मुनियों ने अपने तृतीय नेत्र से पूरे ब्रह्मांड की गतिविधियों पर उसी तरह दृष्टि डाली, जिस तरह वर्तमान दौर में नासा एवं इसरो के वैज्ञानिक अब डालने में लगे हुए हैं.
ज्योतिष शब्द की उत्पत्ति, संस्कृत के ‘द्युत’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- चमकना या प्रकाशित होना. इसमें ‘इसुन्’ प्रत्यय लगने से ‘द’ को ‘ज’ आदेश हुआ और इसके बाद ‘सुप्’ इत्यादि प्रत्यय लगकर नपुंसकलिंग एकवचन का शब्द ‘ज्योतिषम्’ बना. ज्योतिष शब्द का अर्थ है- ज्योति, अर्थात् प्रकाशपुंज.
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वर्तमान समय में अनेक ग्रहों की गतिविधियों को जानने की होड़ विश्व भर लगी हुई है. आज से तकरीबन 70-80 साल पहले आसपास की जानकारी लोगों को नहीं हो पा रही थी, जबकि कंप्यूटर युग के आर्टिफिशयल इंटिलिजेंस (Al) के दौर में उसी तरह जानकारियां सहज होती जा रहीं, जिस तरह सत्ययुग में राजा उत्तानपाद ने अपनी दो पत्नियों में एक सुनीति के पुत्र ध्रुव को जब दूसरी पत्नी सुरुचि के कहने पर अपमानित कर गोद से हटा दिया और मायूस हुए मासूम ध्रुव की मनःस्थिति विचलित होने लगी. तब ध्रुव की मां सुनीति ने पुत्र के उज्ज्वल भविष्य का अध्ययन कर आदेश दिया, ‘पुत्र ध्रुव, निराश न हो. जाओ तपस्या और साधना करो, तुम्हारे भाग्य बदलने इंसान नहीं, बल्कि स्वयं नारायण (विष्णु) जी आयेंगे. उनका आशीर्वाद प्राप्त होना लिखा है तुम्हारे भाग्य में और तुम आकाश मंडल सप्तर्षि बनकर सृष्टि पर्यंत चमकते रहोगे.’
सतयुग ही नहीं, त्रेतायुग में महादेव की भार्या सती का सीता जी का रूप धारण करना या रावण की बहन शूर्णपखा का सुसज्जित होकर श्रीराम के पास आना तथा श्रीराम द्वारा दोनों के शरीर के आभामंडल (औरा) से वास्तविकता जान लेना ज्योतिष विद्या ही है.
वास्तव में देखा जाये, तो सिद्धहस्त ज्योतिषी व्यक्ति के शरीर से निकलने वाली तरंगों के जरिये उसके स्वभाव तथा अतीत से लेकर भविष्य तक का अध्ययन कर लेता है. आखिर जिन तरंगों (वेव) के जरिये आधुनिक विज्ञान पलक झपकते अपना प्रभाव दिखा रहा है, उसी तरह ज्योतिषी भी जातक के तरंगों (वेव) का अध्ययन करता है. मां के गर्भ में आने के बाद शिशु यद्यपि मां के गर्भस्थ जल में रहता है और जल में वाह्य प्रभावों का असर कम रहता है, लेकिन जन्म लेते ही उस पर ग्रह-नक्षत्रों तथा वाह्य प्रभावों का असर तेजी से पड़ने लगता है. जन्म लेते शिशु का शरीर इतना कोमल होता है कि वाह्य प्रभाव उस पर अधिक असर डालते हैं. इसी से कुंडली का अध्ययन कर ज्योतिषी फलादेश करता है.
ज्योतिष विद्या के देवता ब्रह्मा : हर युग में ज्योतिष के विशेषज्ञों की भरमार रही है. वास्तव में नारद पुराण के अनुसार ज्योतिष के देवता ब्रह्मा जी है. जिसका वर्णन सनंदन ऋषि करते हुए बताते हैं कि ज्योतिष विद्या में चार लाख श्लोक और तीन स्कंध हैं. कुछ स्थानों पर पांच स्कंधों का उल्लेख किया गया है, जिसमें सिद्धांत, होरा, संहिता, स्वर एवं सामुद्रिक शास्त्र हैं. सिद्धांत को गणित एवं होरा को जातक कहा जाता है. इसके अलावा ज्योतिष में देश, दिशा और जन्म काल को शामिल किया गया है.
त्रेतायुग में उस वक्त भी ज्योतिष विद्या के जरिये जामवंत जी ने हनुमान जी की कुंडली देखी और उनसे ‘कहहि रीछपति सुन हनुमाना, का चुप साधि रहेहु हनुमाना’ कहा. कुंडली के ग्रह-नक्षत्रों का अध्ययन के बाद जामवंत समझ गये कि सीता जी का पता हनुमान जी ही लगा सकते हैं.
ऐसी ही स्थिति द्वापर में महान ज्योतिषी श्रीकृष्ण युद्ध के मैदान से विमुख होते अर्जुन की पूरी कुंडली बांच दी और किन ग्रहों के प्रभाव से अर्जुन विषादग्रस्त है और उसका क्या निराकरण किया जाये, ताकि आतताई दुर्योधन का वध हो सके, उसका पूरा उपक्रम श्रीकृष्ण ने किया. विराट रूप दिखाने का मतलब ही अर्जुन की कुंडली का फलादेश बताना है.
दरअसल, मनुष्य दुनिया भर के बारे में तो अनेकानेक माध्यमों से जानकारी हासिल कर लेता है, लेकिन खुद अपनी चेतना शक्ति को नहीं जान पाता. यदि कोई खुद अपने पंचभौतिक महल (शरीर) में विद्यमान ब्रह्म अंश को जान ले, तो वह सबसे बड़ा ज्योतिषी स्वंय हो जायेगा. खुद अपनी कुंडली जानने के लिए कुंडलिनी शक्ति जागृत करनी पड़ती है. इस तरह यदि सच में देखा जाये, तो कुंडलिनी शक्ति का जागरण ही कुंडली है.