Chitragupta Maharaj: कायस्थों के आराध्य देव चित्रगुप्त महाराज की आदिकाल से होती है उपासना

Chitragupta Maharaj Puja: युगपिता ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने के कारण इनका कुल 'कायस्थ' कहलाता है, और हर व्यक्ति के हृदय में स्थित होने के कारण इन्हें 'चित्रगुप्त' या 'चित्रांश' के नाम से जाना जाता है. त्रिदेवों के तेज से उत्पन्न श्री चित्रगुप्त में सत्, रज् और तम्, ये तीनों गुण त्रिगुणात्मक रूप में विद्यमान हैं.

By Shaurya Punj | November 4, 2024 11:53 AM
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डॉ राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’

Chitragupta Maharaj: धर्म-कर्म के उत्तम महीने कार्तिक में दीपावली के एक दिन बाद मनाये जाने वाले श्री चित्रगुप्त उत्सव को आत्मचिंतन पर्व रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है. जैसा कि स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त, ब्रह्माजी के 17वें मानस पुत्र थे. चित्रगुप्त जी की आध्यात्मिक महत्ता से जुड़े हुए तथ्य का विशेष वर्णन कठोपनिषद् में मिलता है.

प्रकारांतर से धर्मसम्मत रहे भारतवर्ष में विध्नहरण और मंगल कार्यार्थ श्री गणपति, ज्ञान के लिए शिवशंकर, बल व शक्ति के लिए हनुमान जी, कंचन काया के लिए सूर्य देव, निरोगता के लिए शीतला माता, धन-धान्य के लिए मां लक्ष्मी, सुख-समृद्धि व सौभाग्य के लिए दुर्गा जी, विद्या बुद्धि के लिए भगवती सरस्वती, भय नाश के लिए भैरव जी की व तांत्रिक सिद्धि के लिए माता काली की आराधना-उपासना की जाती है. ठीक उसी प्रकार लेखन विद्या, लेखकीय रोजगार व आध्यात्मिक उन्नति के लिए देव श्री चित्रगुप्त जी की उपासना अपने देश में आदिकाल से की जाती रही है. धर्मराज के रूप में विभूषित चित्रांशों के आदिदेव चित्रगुप्त जी को सूर्य पुत्र कहा गया है –

धर्मराज नमस्तुभ्यं नमस्ते यमुनाग्रज!
ताहि मां किंकरै सार्धं सूर्यपुत्र नमोऽस्तुते!!

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ब्रह्माजी की काया से उत्पन्न होने के कारण पड़ा इनके कुल का नाम

युगों-युगों से कलम के देवता के रूप में प्रख्यात चित्रगुप्त की उत्पत्ति कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन पद्म पुराण के सृष्टि खंड में है. इसके अनुसार, ब्रह्माजी ने जगत् के कल्याणार्थ श्रीविष्णु का पालन, स्वयं का अवतरण व शिव शंकर के संहार शक्ति को संचित किया और इन्हीं त्रिदेवों के तेज से ब्रह्म काया रूप में अपने हाथों में कलम, दवात, पत्रिका व पट्टी लिए श्री चित्रगुप्त प्रगट हुए. युगपिता ब्रह्माजी की काया से उत्पन्न होने के कारण इनके कुल को ‘कायस्थ’ और हर किसी के हृदय में विराजमान होने के कारण इन्हें ‘चित्रगुप्त’ अथवा ‘चित्रांश’ कहा गया. त्रिदेवों के तेज से उत्पन्न श्री चित्रगुप्त में सत्, रज् और तम् ये तीनों मिश्रित भाव त्रिगुणात्मक रूप में विधमान हैं.

कायस्थों के अराध्य देव हैं चित्रगुप्त


कायस्थों के अराध्य देव चित्रगुप्त की दो पत्नियां प्रथम श्राद्ध देव की पुत्री नंदिनी और दूसरी धर्म शर्मा की पुत्री इरावती हैं. प्रथम से चार और द्वितीय पत्नी से आठ संतान हुई. इन बारह आदि पुरुषों के वंशज बारह कायस्थ हुए, जिनमें पहली पत्नी से भानु, विभानु, विश्वभानु और विर्यभानु हैं, तो दूसरी पत्नी से चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चारुण, चित्रचारु और अतिन्द्रिय. ये सभी बारह पुत्र देश के अलग-अलग भागों में निवासरत् हैं और विदेशों में भी इनकी उपस्थिति दर्ज है.

भगवान चित्रगुप्त सभी ऋषियों के दंड दाता

स्कंद पुराण (33/30) के अनुसार, अपरा विद्या के ज्ञाता, सदाचारी, धैर्यवान, उपकारी, राजा-प्रजा सेवक व क्षमाशील यह कायस्थों के सात लक्षण होते हैं. श्रुति स्मृति में अंकित ब्राह्मणों के छह कर्मों की भांति चित्रगुप्त वंशीय कायस्थों के सात कर्म बताये गये हैं, जिनके अंतर्गत पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना, दान देना व लेना तथा वेद का लेखन सम्मिलित हैं. श्री चित्रगुप्त का दिव्य आदर्श अपने समाज व राष्ट्र के हित के नाम पर पुरुषार्थ करने के लिए सदैव प्रेरित करता है. सृष्टि के सभी देहधारियों के भाग्य-कर्मफल अंकित करने वाले श्री चित्रगुप्त कर्म के आधार पर बगैर किसी पक्षपात के सभी का लेखा लिखते हैं, जैसा कि वाराह पुराण में आया है कि भगवान चित्रगुप्त सभी ऋषियों के दंड दाता हैं.

प्राचीन अभिलेखों में श्री चित्रगुप्त का वर्णन विवरण


विभिन्न पुराणों, स्मृतियों, धार्मिक साहित्यों और प्राचीन अभिलेखों में हमें देव श्री चित्रगुप्त का वर्णन विवरण प्राप्त होता है. श्री चित्रगुप्त हमारे अचेतन मन के स्वामी हैं, जिन्होंने महाभारत काल में भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था.

ब्रह्मा जी के 17वें मानस पुत्र थे श्री चित्रगुप्त ब्रह्मा जी के 17वें मानस पुत्र थे श्री चित्रगुप्त


धर्म-कर्म के उत्तम महीने कार्तिक में दीपावली के एक दिन बाद मनाये जाने वाले श्री चित्रगुप्त उत्सव को आत्मचिंतन पर्व रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है, जैसा कि स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त ब्रह्मा जी के 17वें मानस पुत्र थे. चित्रगुप्त जी की आध्यात्मिक महत्ता से जुड़े हुए तथ्य का विशेष वर्णन कठोपनिषद् में है. ऐसे मार्कंडेय पुराण, ब्रह्म पुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति और यम स्मृति में चित्रगुप्त कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है. पद्म पुराण के उत्तराखंड में अंकित है कि एक बार परमपिता ब्रह्मा ने दस हजार दस सौ वर्षो तक समाधि लगायी. उन ब्रह्मा के शरीर से बड़ी-बड़ी भुजाओं वाले श्याम वर्ण कमलवत् नेत्र युक्त शंख- उल्प गर्दन, चंद्रवत् मुख, तेजस्वी, अति बुद्धिमान, हाथ में कलम और दावत लिये एक पुरुष उत्पन्न हुए. ब्रह्माजी ने निज शरीरज पुरुष से उत्पन्न होने के कारण उस महापुरुष का नाम कायस्थ रखा और कहा कि पृथ्वी पर तुम चित्रगुप्त के नाम से विख्यात होगे. यमलोक की प्राणियों के पाप व पुण्य का लेखा- जोखा तुम्हारे हाथों होगा.

चित्रगुप्त जी का प्रभाव

श्री चित्रगुप्त महापुराण से स्पष्ट होता है कि चित्रगुप्त का प्रभाव इतना अधिक है कि सौदास नामक एक पापी राजा ने सिर्फ एक बार इनकी पूजा की और उसके प्रभाव से नरक के बजाय स्वर्ग का अधिकारी बना. इसीलिए कोई भी पुरुष निश्चल भाव से चित्रगुप्त की आराधना करने पर परम विद्वान और अंत में मोक्ष का अधिकारी हो जाता है.

चित्रगुप्त जी को त्रिविध ताप से मुक्त करने वाला कहा गया है


सभी के हृदय में गुप्त रूप से वास करने वाले श्री चित्रगुप्त जी को त्रिविध ताप से मुक्त करने वाला कहा गया है. जगतोद्धार के बाद देव श्री चित्रगुप्त अपने जगत के संपूर्ण कार्यों को निष्ठापूर्वक संपन्न करने के लिए ज्वाला देवी के त्रिगर्त क्षेत्र में साधना की. यही कारण है कि श्री चित्रगुप्तवंशीय देवी भक्त हुआ करते हैं. ज्ञातव्य है कि कलम-दवात के साथ इस जगत में अवतरण होने के कारण श्री चित्रगुप्त को ज्ञान, शिक्षा, विद्या, बुद्धि और कला का देवता भी कहा गया है.

चित्रगुप्त उत्सव धर्म तत्वों की विस्तार का मार्ग प्रशस्त करता है


पर्व-त्योहारों के देश भारतवर्ष में अनेकानेक पर्व जहां सांस्कृतिक समृद्धि और धार्मिकता से संबद्ध हैं, वहीं चित्रगुप्त उत्सव धर्म तत्वों की विस्तार का मार्ग प्रशस्त करता है. आज के दिन यह निर्णय लिया जाना उचित होता है कि हमारे कौन-से कार्य कितने प्रभावकारी हो रहे हैं, साथ ही साथ सत् और असत् किस मार्ग का अनुकरण हमें करना चाहिए.

चित्रगुप्त जी की पूजा-आराधना होती चली आ रही है

(मध्य प्रदेश), अयोध्या (उत्तर प्रदेश), कांचीपुरम् (तमिलनाडु) और पटना (बिहार) में विराजमान चित्रगुप्त जी के चार प्राचीन महातीर्थ के साथ-साथ पूरे देश भर के पुराने व नये नगरों में उनके देवालय इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि पुरातन काल से भारत में चित्रगुप्त जी की पूजा-आराधना होती चली आ रही है. गुप्त काल में इनके पूजन का जो क्रम समाज में श्रद्धा और भक्ति के साथ स्थापित हुआ है, वह इस कलियुग में भी निर्बाद्ध रूप से जारी है. पाल काल में भी बिहार, बंगाल सहित देश के कितने ही क्षेत्र में चित्रगुप्त पूजा का जोर बना रहा. मध्ययुगीन समाज और आगे मुगल काल में भी कायस्थों के इस पर्व में राज दरबार के लोग भी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे. अंग्रेजों के जमाने में भी श्री चित्रगुप्त पूजनोत्सव की अहमियत बनी रही और वर्तमान समय भी प्रायश: भारतीय नगरों में जगह-जगह श्री चित्रगुप्त जी की मूर्ति बिठाकर और मंदिरों में आज के दिन वार्षिक उत्सव मनाया जाता है. कलम के सेवक व कलम से रोजी-रोजगार चलाने वाले भगवान के श्री चरणों में अपनी श्रद्धा निवेदित कर उनकी विशेष आराधना करते हैं –


मसिभाजनसंयुक्तं ध्यायेत्तं च महाबलम्।
लेखिनीपट्टिकाहस्तं चित्रगुप्तं नमाम्यहम्।।


अर्थात्- हाथ में स्याही और कलम लिये हुए, उन महाबली का मैं ध्यान करता हूं, जिनके हाथ में सबके जीवन का लेखा-जोखा रहता है. उन परम तेजस्वी श्री चित्रगुप्त जी को प्रणाम करता हूं.

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