Diwali 2022: दीपावली में अब कुछ ही दिन शेष रह गये हैं. मिट्टी के दीये बाजारों में बिकने लगे हैं. झारखंड के लातेहार जिले के महुआडांड़ में भी बाजार मिट्टी के दीयों से सजे हैं. कुम्हारों को इस दीपावली मिट्टी के दीयों की अच्छी बिक्री की उम्मीद है. हालांकि वे बताते हैं कि इस काम में मेहनत ज्यादा और कमाई कम है. परिवार पालने की चुनौती है. यही वजह है कि नयी पीढ़ी मजदूरी कर ले रही है, लेकिन पुश्तैनी काम नहीं कर रही है.
मिट्टी कला को नहीं सिखना चाहता युवक
लातेहार के महुआडांड़ में सोमवार को साप्ताहिक बाजार लगता है. दीया बेचते हुए भुनेश्वर प्रजापति बताते हैं कि तीन प्रकार के दीये की बिक्री हो रही है. छोटा 200 रुपये सैकड़ा, दूसरा 50 रुपये दर्जन और तीसरा 10 रुपये पीस है. वे बताते हैं कि उनके पिता घर पर मिट्टी का बर्तन बनाते हैं. इस कला को वे नहीं सिखना चाहते क्योंकि इसमें कमाई नहीं है. वे केरल जाकर बागान में मजदूरी करते हैं. दीपावली त्योहार के बाद वे केरल चले जाएंगे.
Also Read: Jharkhand Foundation Day 2022: लातेहार के ललमटिया डैम की खूबसूरती पर्यटकों को करती है आकर्षित
बिजली है, लेकिन इलेक्ट्रिक चाक नहीं
महुआडांड़ की चटकपुर पंचायत अंतर्गत कुम्हार टोली में करीब 45 प्रजापति परिवार हैं. दीपावली त्योहार को लेकर 20 घरों में चाक चल रहा है. सभी घरों से एक-दो सदस्य कमाने बाहर जाते हैं. सभी के पास हाथ वाला चाक है. गांव में बिजली आ गई है, लेकिन पैसा नहीं है कि कुम्हार इलेक्ट्रिक चाक खरीद सकें. इन्हें कोई मदद भी नहीं मिल पा रही है.
मिट्टी बर्तन का कारोबार काफी प्रभावित
तेलगु कुम्हार ने कहा कि मिट्टी बर्तन का कारोबार बहुत पहले ही खत्म हो चुका है. बाजार में विभिन्न प्रकार की लाइटें आने से दीपोत्सव जैसे त्योहार में लोग आधुनिक रौशनी को अपना रहे हैं. बहुत लोग मिट्टी का दीया सिर्फ पूजा पाठ को लेकर 5, 11 या 21 पीस खरीदते हैं. हालांकि पिछली दिवाली में लोगों ने 5 से 10 दर्जन दीया खरीदा था. इस दिवाली में उम्मीद हैं. बिक्री अच्छी होगी.
मेहनत ज्यादा और पैसा कम
विश्वनाथ कुम्हार चाक पर दीया बनाते हुए कहते हैं कि दीया आठ दिन में तैयार होता है. विभिन्न प्रकार के मिट्टी बर्तन बनाते हैं. मेहनत ज्यादा और पैसा कम है. अगर अच्छी खरीदारी होगी तो एक कारीगर दस हजार के आस-पास कमा लेगा. हम परंपरा को जीवित रखे हैं, पर आने वाली पीढ़ी शायद ही इस परंपरा का निर्वाह कर पाएगी. बच्चों और पोता को वे बताते हैं कि परंपरा को जिंदा रखना है, तो समय-समय पर मिट्टी को अलग रूप देना होगा.
रिपोर्ट: वसीम अख्तर, महुआडांड़, लातेहार