महाष्टमी व्रत से प्रसन्न होती हैं मां महागौरी
सनातन धर्म में हर तिथि का अलग-अलग महत्व है. ग्रह-नक्षत्रों के घटते-बढ़ते प्रभावों के चलते विविध धार्मिक आयोजन, व्रत-उपवास तथा निषेधों का उल्लेख मिलता है. इन्हीं तिथियों में अष्टमी का उल्लेख संतान प्राप्ति और उनके कुशल क्षेम के लिए विशेष रूप से निर्धारित है, जो कल यानी रविवार, 22 अक्तूबर को है.
सलिल पाण्डेय
अध्यात्म लेखक, मिर्जापुर
कृष्ण पक्ष की अष्टमी में चंद्रमा आधे प्रकाश के बाद अंधकार की ओर जाता है, तो शुक्ल पक्ष में आधे अंधकार के बाद प्रकाश की ओर जाता है. मनुष्य का जीवन भी अंधकार रूपी कष्ट और प्रकाश रूपी उल्लास के बीच व्यतीत होता है. इसीलिए नवरात्र पर अष्टमी तिथि को मां दुर्गा की प्रसन्नता के लिए व्रत-उपवास तथा विशेष पूजन-अर्चन किया जाता है. नारद-पुराण में उल्लेखित है कि मां भवानी का जन्म चैत्रशुक्ल पक्ष के नवरात्र की अष्टमी को हुआ था, इसलिए यह महाष्टमी तिथि हुई. इसी क्रम में आश्विन मास के नवरात्र में भी व्रत और विशेष पूजा की जाती है. नवरात्र की अष्टमी तिथि कालरात्रि कही गयी है. मध्य रात्रि में निशापूजन के लिए जागरण करना चाहिए.
शिवपुराण में कथा है कि महादेव ने मां काली के काले रूप का उपहास किया था. इससे रुष्ट होकर वे विन्ध्यपर्वत पर तपस्यालीन हो गयीं. प्रकृति के सानिध्य में उनका काला रंग समाप्त हुआ और वह गौर वर्ण की हो गयीं. इसलिए मां काली के गौर वर्ण की पूजा अष्टमी को की जाती है.
गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार, मां पार्वती ने भगवान शिव के वरण के लिए अत्यंत कठोर संकल्प लिया था. इस कारण इनका शरीर काला पड़ गया. तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोया, तब वह विद्युत प्रभा के समान अत्यंत कांतिमान-गौर हो उठीं. तभी से महागौरी कहलायीं. अष्टमी तिथि की देवी महागौरी ही हैं.
महाष्टमी पूजन की महत्ता
मां महागौरी का ध्यान-स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वाधिक कल्याणकारी है. वे अपने भक्तों के कष्ट जल्दी ही हर लेती हैं एवं इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं. संतान सुख एवं उसकी कुशलता के आशीष से मां भक्तों की झोली भर देती हैं.
कल होगी दुर्गाष्टमी की पूजा
आज (शनिवार, 21 अक्तूबर) शाम 7:27 बजे तक सप्तमी है. इसके बाद अष्टमी तिथि लग रही है. अतः महानिशा का पूजन 21/22 अक्तूबर की मध्य रात्रि को होगा, जबकि महाष्टमी व्रत कल (रविवार, 22 अक्तूबर) होगा.
कन्या-पूजन की महत्ता
श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार, नवरात्र में कुमारी कन्या के पूजन से मातारानी प्रसन्न होती हैं. इसमें 2 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्या के पूजन का विधान है. कुछ लोग अष्टमी को, तो कुछ नवमी के दिन कन्या पूजन करते हैं. श्रीमद्देवीभागवत के प्रथम खंड के तृतीय स्कंध में 2 वर्ष की कन्या ‘कुमारी’ कही गयी है, जिसके पूजन से दुख-दरिद्रता का नाश, शत्रुओं का क्षय और धन, आयु एवं बल की वृद्धि होती है. 3 वर्ष की कन्या ‘त्रिमूर्ति’ कही गयी है, जिसकी पूजा से धर्म, अर्थ की पूर्ति और पुत्र-पौत्र की वृद्धि होती है. 4 वर्ष की कन्या ‘कल्याणी’ है, जिसकी पूजा से विद्या, विजय, राज्य सुख की प्राप्ति होती है. 5 वर्ष की कन्या ‘कालिका’ है, जिसकी पूजा से शत्रुओं का नाश तथा 6 वर्ष की कन्या ‘चंडिका’ है, जिसकी पूजा से धन तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है. 7 वर्ष की कन्या ‘शाम्भवी’ है, जिसकी पूजा से विविध विवादों में विजय मिलता है. 8 वर्ष की ‘दुर्गा’ के पूजन से इहलोक के ऐश्वर्य के साथ परलोक में उत्तम गति मिलती है. सभी मनोरथों के लिए 9 वर्ष की कन्या को ‘सुभद्रा’ और जटिल रोग के नाश के लिए 10 वर्ष की कन्या को ‘रोहिणी’ स्वरूप मानकर पूजना चाहिए.
कन्यापूजन में रखें ध्यान
अपने घर की परंपराओं के अनुसार कन्या की संख्या रखें. उन्हें जो भी वस्तु दी जाये, उत्तम होे.
न्यूनतम शृंगार-सामग्री देनी चाहिए. साथ ही वस्त्र, आभूषण, मिष्ठान्न, फल, शहद जो संभव हो. या इन पदार्थों का मूल्य तथा अलग से दक्षिणा भी दी जाये.
पंचोपचार पूजन करना चाहिए.
कन्या को देने के बाद भोग का कुछ हिस्सा प्रसाद स्वरूप रख लें.
मां कभी रूठती नहीं, ऐसा मानकर हर हाल में आभार व्यक्त करना चाहिए.