भगवान परशुराम विष्णु जी के छठे अवतार माने जाते हैं. परशुराम जी का जन्म धरती पर से अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करने के लिए हुआ था. परशुराम जी को न्याय का देवता भी कहा जाता है. हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को परशुराम द्वादशी के नाम से जाना जाता है. यह वह दिन है जब भगवान शिव ने स्वयं उन्हें एक दिव्य फरसा, भार्गवस्त्र प्रदान किया था. भगवान परशुराम को शस्त्र और शास्त्रीय विद्या दोनों का ही ज्ञान था. शस्त्र विद्या का अर्थ है, हथियार का ज्ञान, और शास्त्रीय विद्या किताबों और धर्म के ज्ञान को कहते हैं. भगवान परशुराम जी अपनी कठोर तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर एक दिव्य अस्त्र की कामना की थी. इसके बाद महादेव ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें फरसा और अन्य कई शस्त्र भी प्रदान किये थे, इतना ही नहीं परशुराम जी को युद्धविद्या भी स्वयं भगवान भोलेनाथ ने ही दी थी.
भगवान परशुराम का जन्म त्रेता युग के पहले दिन हुआ था, जब राक्षसी क्षत्रिय राजाओं के अत्याचार बढ़ गए तब धरती माता ने भगवान विष्णु से मदद मांगी. विष्णु जी ने उन्हें वचन दिया था कि वह जल्द ही उनकी मदद करने आएंगे. इसलिए, भगवान विष्णु ने अक्षय तृतीया के दिन ऋषि जमदग्नी और रेणुका के पुत्र के रूप में धरती पर जन्म लिया था. भगवान परशुराम के जन्मोत्सव को पूरे भारत में परशुराम जयंती के रूप में बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है. उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं का वध करके धरती से पाप और बुराई का नाश कर दिया था. उन्होंने अहंकारी और दुष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से 21 बार संहार किया था.
तब महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका बाद में परशुराम पृथ्वी छोड़कर महेन्द्रगिरि पर्वत पर चले गए. वहां उन्होंने कई वर्षों तक कठोर तपस्या की. जिसके कारण आज उस स्थान को उनका निवास्थल कहा जाता है. परशुराम द्वादशी के दिन भक्त व्रत रखते है. यह व्रत द्वादशी के सूर्योदय से शुरू होता है और अगले दिन के साथ समाप्त हो जाता है. इस दिन क्रोध, लालच और ऐसे अन्य बुरे कर्मों से दूर रहना चाहिए.
इस दिन भक्त सुबह जल्दी उठकर ब्रह्मा मुहूर्त में स्नान करते हैं. इसके बाद भगवान परशुराम की मूर्ति की स्थापना कर उनकी पूजा अर्चना करते हैं. भगवान को चन्दन लगाते हैं, पुष्प अर्पित करते हैं, प्रसाद के रूप में फल और पंचामृत चढ़ाते है. इसके पश्चात व्रत कथा पढ़ते या सुनते हैं. कथा समाप्ति के बाद की आरती की जाती है. परशुराम द्वादशी की रात भक्त भगवान विष्णु और भगवान परशुराम से प्रार्थना करते हैं और भजन कीर्तन करते हैं. इस व्रत का पारण केवल फलों से किया जाता है, जब सूर्यास्त के समय शाम में पूजा की जाती है. अनाज को अगले दिन सुबह पूजा के बाद ही ग्रहण करना चाहिए.
वीरसेन नाम का एक राजा था. उसका कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने का निर्णय लिया. तपस्या करने के लिए वह घने जंगल में चला गया. वह इस बात से अनजान था कि ऋषि याज्ञवल्क्य का आश्रम भी वहीं पास में ही है. एक दिन वीरसेन ने याज्ञवल्क्य को अपनी ओर आते देखा तो वह तुरंत उठकर खड़े हो गया और उनका अभिनन्दन किया. कुछ समय बाद ऋषि ने राजा से उसकी कठिन पूजा का कारण पूछा तब राजा ने उसे बताया कि वह एक पुत्र चाहता है, इसलिए भगवान को प्रसन्न करने के लिए वह ये सब कर रहा है.
ऋषि याज्ञवल्क्य ने उसे कठोर तपस्या के बजाय परशुराम द्वादशी का व्रत करने की सलाह दी. ऋषि की आज्ञा का पालन करते हुए राजा ने परशुराम द्वादशी के दिन विधिपूर्वक व्रत और पूजा की जिसके बाद विष्णु जी ने उसे बहादुर और धार्मिक पुत्र का वरदान दिया. बाद में वीरसेन का यह पुत्र पुण्यात्मा राजा नल के रूप में प्रसिद्ध हुआ. ऐसी मान्यता है कि इस व्रत और पूजा के प्रभाव से मनुष्य को शिक्षा और समृद्धि की भी प्राप्ति होती है. इतना ही नहीं मृत्यु के बाद स्वर्गलोक में भी स्थान प्राप्त होता है.