आज हमने सुख के सारे साधन इकट्ठे कर लिये, सांसारिक वस्तुओं का अंबार लगा लिया, पर फिर भी हम अशांत हैं. चित्त की शांति गायब है. हम बेचैनी महसूस करते हैं. क्यों? जीवन की भौतिक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए हम शॉर्टकट रास्ता अख्तियार करते हैं. सिर्फ एक लक्ष्य है- ‘अपना सपना मनी-मनी.’ ‘सिंपल लिविंग एंड हाइ थिंकिंग’ के सिद्धांत को बदलकर हमने ‘हाइ लिविंग एंड नो थिंकिंग’ को अपना लिया है. येन-केन प्रकारेण भौतिक वस्तुओं का पहाड़ खड़ा कर लिया है, पर मूल वस्तु चित्त की शांति गायब है. ऐसा क्यों हो गया? क्योंकि, हमने सही मानव-मूल्यों को त्याग दिया है, तिलांजलि दे दी है. आज उसके परिणाम हमारे सामने हैं. आपने कहा है-.
‘‘सच उरे सबको उपर सच आचार।’’
अर्थात् सत्य श्रेष्ठ है, पर उससे भी श्रेष्ठ सत्याचार है. हमारे सारे कर्म सत्य पर आधारित होने चाहिए. साथ ही आपने ये भी कहा, ‘हे मानव पेट तो पशु भी भर लेता है, तू मानव होकर दीन-दुखियों की सहायता भी अपने पवित्र साधनों से अर्जित किये धन से कर.’ आपने कहा है –
‘‘घाल (मेहनत) खाये किछु हंथो दे नानक राह पछाने सोय ।’’
सब में उस परमात्मा की लौ प्रज्वलित हो रही है. कोई छोटा-बड़ा नहीं है. किसी को हेय दृष्टि से देखना उस परमात्मा का निरादर है.
आपने फरमाया है –
‘‘सब में जोत, जोत है सोय।
तिसके चानन, सब में चानन होय।।’’
साथ ही आपने कहा-
‘‘नीचा अंदर नीच जात नीची हु अत नीच
नानक तिनके संग साथ वडियां सियों क्या रीस।
जित्थे नीच समालियन, तिथे नदर तेरी बखशीश।।’’
समाज के वे लोग, जिन्हें दलित समझकर लोग निरादर भाव से देखते हैं और उनसे दूर रहते हैं, मैं सदैव उनके समीप हूं, क्योंकि वे भी उसकी ईश्वर की संतान हैं. मुझे बड़ों से क्या लेना-देना, जिनके कर्म निम्न हैं. जहां दीनों का मान होगा, वहीं परमात्मा की भी कृपा होगी. जिनके कर्म शुद्ध और पवित्र नहीं है, जो धन अर्जित करने में गलत साधनों का इस्तेमाल करते हैं, वे कदापि बड़े नहीं हो सकते. यही वजह है कि आपने भाई ‘लालो’ की सूखी रोटी बड़े प्रेम भाव से खायी और ‘मलक भागो’ के मीठे पकवान को स्वीकार नहीं किया.
इस प्रसंग में आपने कहा-
‘‘जे रत लगे कपड़े जामा होय पलीत।
जे रत पीवे मानसा तिन क्यों निरमल चित।।’’
जो मनुष्य दूसरों का खून चूस कर बड़ा बनता है, उसे भला कैसे मन की शांति मिल सकती है. हमारे मन की आंखें खोलते हुए आपने कहा- ‘‘सा जात सा पत है जेहे करम कमाए।’’
मनुष्य की जाति और उसकी प्रतिष्ठा तो उसके कर्मों के आधार पर ही निश्चित होती है, जन्म के आधार पर नहीं.
नारी की दुर्दशा एवं ‘दासी’ जैसी प्रथा से आप अत्यंत दुखी थे और आपने समाज के ठेकेदारों को प्रताड़ित करते हुए कहा-
‘‘भंड जमीए, भंड निमीए, भंड मंगणु वीआ
भंडहु होवे दोसती, भंडहु चलै राह।
भंड मुआ, भंड भालीए, भंडि होंवे बंधान
सो किंउ मंद आखीए, जित जंमहि राजन।।’’
भाव- नारी से ही मनुष्य का जन्म होता है, उसी से उसकी सगाई होती है और फिर वही विवाह के लिए मांगी जाती है. नारी ही सखा है. नारी से ही सभ्य समाज की सृजना होती है. नारी ही समाज की व्यवस्था को स्वस्थ रखती है. नारी ही विद्वानों, ज्ञानियों, महापुरुषों एवं राजाओं को जन्म देती है. फिर ऐसी नारी को ‘ताड़न के अधिकारी’ और अधम कैसे कहा जा सकता है. कहा भी गया है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता’- सती प्रथा की आपने तीव्र भर्त्सना की. अंतर-मनन से ही मनुष्य स्वयं का उत्थान और अपने में परिवर्तन ला सकता है. अपनी बुराइयां और दूसरों की अच्छाइयां देखनी चाहिए. आपने कहा-
‘‘हम नहीं चंगे बुरा नहीं कोय।
प्रणवत नानक तारे सोय।।’’
साथ ही आपने जो पटी (तख्ती) लिखी, उसमें आपने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा-
‘‘ददे दोष न देऊ किसे, दोष करमा आपना
जो मैं किया सो मैं पाया, दोष न दीजे अवर जाना’’
दूसरे पर दोष मढ़ना उचित नहीं है, दोष तो अपने स्वयं के कर्मों में है, जिसे हम देख नहीं पाते. जो मैंने बोया है, उसी को काटना पड़ेगा. बबूल को बो कर हम आम नहीं खा सकते. समस्याएं बाहर नहीं होतीं, आवश्यकता है अपने गिरेबां में झांकने की.
गुरुनानक देव जी ने तीन मूलभूत बातों पर विशेष बल दिया और ये बताया है कि धर्म कलिष्ट नहीं है, यह जीवन जीने का सरल मार्ग दिखाता है, इसके लिए जरूरी हैं –
1. प्रभु के गुणगान में स्वच्छ हृदय से जुड़ना.
2. परिश्रम द्वारा धर्म वृत्ति से धन अर्जित करना.
3. उस अर्जित धन से दूसरे नि:सहाय लोगों की सेवाभाव से सहायता करना.
ईश्वर का नाम जपने के संबंध में आपने कहा है कि इसके लिए जंगलों में भटकने की आवश्यकता नहीं है, बाहरी आडंबर एवं वेशभूषा को बदलने की आवश्यकता भी नहीं, मात्र उसका नाम जपना, उसकी आराधना सच्चे मन से गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी की जा सकती है. मानव को सरल एवं निर्मल स्वभाव का होना चाहिए. हमारे सारे क्रियाकलाप भी स्वच्छ, शुद्ध एवं सत्य पर आधारित होने चाहिए.
संत-संग की उपादेयता पर भी आपने जोर दिया, जहां सभी सत्संगी मिलकर उस प्रभु का गुणगान करते हैं, जिससे आपस का भेदभाव मिट जाता है. कोई छोटा या बड़ा नहीं होता. सभी उस ईश्वर-‘परम अकाल पुरख’ की संतान हैं. इस भाव को सुदृढ़ करने के लिए आपने लंगर प्रथा भी चलायी, जिसमें सभी सत्संगी मिल-जुलकर एक साथ लंगर (भोजन) करते हैं. इस सत्संग से ही मिल बैठकर एक-दूसरे की सहायता एवं सेवा भाव की भावना भी उत्पन्न होती है एवं पावन वातावरण की सृजना होती है.
धर्म का मार्ग कोई कठिन मार्ग नहीं है, अपितु यह तो बिल्कुल सरल है. आवश्यकता है कि हमारा सारा आचरण सत्य पर आधारित हो और छल-कपट का समावेश न हो. निर्मल चरित्र, वह चरित्र है, जो अपना जीविकोपार्जन सत्य के मार्ग पर चलकर अर्जित करता है, दीन-दुखियों की सहायता करता है, न किसी को भय देता है न भय मानता है.
मानव-मानव में भेद नहीं करता है, सबों को उचित सम्मान देता है. काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से स्वयं को बचाना एवं विनम्र भाव से लोगों की सेवा करना ही सच्चा धर्म है