‘गुरु को अपना अर्जित ज्ञान अर्पित कर दें’

योग परंपरा में शिव को भगवान नहीं, बल्कि आदि-योगी और आदि-गुरु के रूप में माना जाता है. जब शिव ने अपने ज्ञान को फैलाना चाहा, तो उन्होंने देखा कि इंसान के पास अपना परम लक्ष्य पाने के एक सौ बारह तरीके हैं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 23, 2021 10:19 PM

योग परंपरा में शिव को भगवान नहीं, बल्कि आदि-योगी और आदि-गुरु के रूप में माना जाता है. जब शिव ने अपने ज्ञान को फैलाना चाहा, तो उन्होंने देखा कि इंसान के पास अपना परम लक्ष्य पाने के एक सौ बारह तरीके हैं. लेकिन जब उन्होंने देखा कि उनके सात शिष्यों यानी सप्तऋषियों को इन 112 तरीकों को सीखने में समय लगेगा, तो उन्होंने उन सभी तरीकों को 16-16 के समूह में सात हिस्सों में बांट दिया. योगिक पद्धति में 16 एक महत्वपूर्ण संख्या है. यहां देखें ईशा फाउंडेशन के सद्गुरु का लेख

शिव ने इन सातों लोगों को योग के अलग-अलग पहलुओं की गहराई से जानकारी दी, जो आगे चलकर योग के सात मुख्य पहलू बन गये. जब सप्तऋषियों ने उन सोलह तरीकों को सीख लिया, तो आदियोगी ने उनसे कहा, ‘अब वक्त आ गया है कि तुम लोग इस ज्ञान को बाकी दुनिया में बांटने जाओ.’ यह सुनकर वे पूर्णतया भावों से भर गये. वे लोग आदियोगी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे. जब वे लोग वहां से जाने लगे तो अचानक आदियोगी ने उनसे कहा, ‘मेरी गुरुदक्षिणा का क्या होगा?’

परंपरा है कि ज्ञान पाने के बाद शिष्य को गुरु के पास से जाने से पहले उन्हें कुछ भेंट या दक्षिणा देनी होती है. ऐसा नहीं है कि गुरु को किसी दक्षिणा या भेंट की जरूरत होती है, लेकिन वह चाहता है कि जाते समय शिष्य अपनी कोई अनमोल चीज समर्पित कर, समर्पण के भाव में जाये.

इसके पीछे वजह यह है कि समपर्ण के दौरान इंसान अपनी सर्वश्रेष्ठ अवस्था में होता है. आदियोगी की बात सुनकर उनके सातों शिष्य हैरानी में पड़ गये कि उन्हें क्या भेंट किया जाये. दरअसल, उन शिष्यों के पास उनके शरीर पर पहने बाघचर्म के अलावा और कुछ भी नहीं था.

फिर अगस्त्य मुनि ने कहा, ‘मेरे भीतर 16 रत्न हैं, जो सबसे अनमोल हैं. इन 16 रत्नों को, जिन्हें मैंने आपसे ही ग्रहण किया है, अब मैं आपको समर्पित करता हूं.’ इतना कहकर आदियोगी से सीखे हुए उन 16 तरीकों को उन्होंने गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया और खुद पूरी तरह से रिक्त हो गये. उनके इस समर्पण से बाकी छह शिष्यों को भी संकेत मिल गया और उन्होंने भी आदियोगी से सीखी सारी विद्याएं उन्हीं को भेंट कर दीं.

अब वे सब पूरी तरह से खाली हो गये थे. आपको इस समर्पण के भाव को समझना चाहिए. उन सारे ऋषियों के जीवन का परम लक्ष्य उस ज्ञान को हासिल करना था. उस ज्ञान को पाने के लिए उन्होंने 84 साल की कठोर साधना की थी और फिर जब उन्हें यह ज्ञान मिला तो एक ही पल में

उन्होंने अपने जीवन की उस सबसे बेशकीमती चीज को अपने गुरु के कदमों में रख दिया, और पूरी तरह से खाली हो गये. उनके पास कुछ भी न रहा. आदियोगी की शिक्षा का यह सबसे महान पहलू था. चूंकि वे शिष्य पूरी तरह से रिक्त हो चुके थे, इसलिए वे उनकी यानी आदियोगी की तरह हो गये.

दरअसल, शिव का मतलब ही है- ‘जो नहीं है’. इस तरह से उनके शिष्य भी उनकी तरह शिव यानी ‘जो नहीं है’ हो गये. अगर ऐसा न हुआ होता तो ये शिष्य अपनी सीखी 16 विद्याओं को ताज की तरह अपने सिर पर ले कर निकलते और दुनियाभर में उसका दिखावा व प्रचार करते. चूंकि समर्पण के बाद वे सभी भीतर से खाली हो गये, इसलिए आदियोगी द्वारा बतायी सभी 112 विद्याएं उन सभी के भीतर स्वतः जाग्रत हो गयीं.

जो चीज वे पहले नहीं सीख सकते थे और जिसे ग्रहण करने की उनमें क्षमता नहीं थी, उसी चीज को वे महज इसलिए सीख पाये, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन की सबसे अनमोल चीज वापस उन्हीं को समर्पित कर दी थी.

इन सातों ऋषियों को सात दिशाओं में विश्व के अलग-अलग हिस्सों में भेजा गया, ताकि ये अपना ज्ञान आम आदमी तक पहुंचा सकें. उनमें से एक ने दक्षिण दिशा में भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की. उनका नाम था – अगस्त्य मुनि.

अगर आप दक्षिण में कहीं भी जायेंगे तो आपको वहां के कई गांवों में तमाम तरह की पौराणिक कथाएं सुनने को मिलेंगी. ’अगस्त्य मुनि ने इसी गुफा में ध्यान किया था’, ’अगस्त्य मुनि ने यहां एक मंदिर बनवाया’, ’इस पेड़ को अगस्त्य मुनि ने ही लगवाया था’, ऐसी न जाने कितनी दंत कथाएं वहां प्रचलित हैं.

अगर आप उनके द्वारा किये गये कामों को देखें और यह जानें कि पैदल चलकर उन्होंने कितनी दूरी तय की, तो आपको इस बात का सहज ही अंदाजा हो जायेगा कि वह कितने बरस जिए होंगे. कहा जाता है कि इतना काम करने में उन्हें चार हजार साल लगे थे. हमें नहीं पता कि अगस्त्य मुनि चार हजार साल जिये या चार सौ साल, लेकिन इतना तो तय है कि उनका जीवनकाल असाधारण था.

अगस्त्य मुनि ने आध्यात्मिक प्रक्रिया को किसी शिक्षा या परंपरा की तरह से नहीं, बल्कि जीवन जीने के तरीके की तरह एक व्यावहारिक जीवन का हिस्सा बना दिया. उन्होंने सैकड़ों की तादाद में ऐसे योगी पैदा किये, जो अपने आप में ऊर्जा के भंडार थे. कहा तो यहां तक जाता है कि उन्होंने कोई ऐसा इंसान नहीं छोड़ा, जिस तक इस पवित्र योगिक ज्ञान और तकनीक को न पहुंचाया हो.

इसकी झलक इस बात से मिलती है कि उस इलाके में आज भी तमाम ऐसे परिवार हैं, जो जाने अनजाने ही योग से जुड़ी चीजों का पालन कर रहे हैं. इन लोगों के रहन-सहन, जिस तरह वे बैठते हैं, खाते हैं, वे जो भी करते हैं, उसमें अगस्त्य के कामों की झलक दिखती है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उन्होंने घर-घर में योग की प्रतिष्ठा की.

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