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Jagannath Rath Yatra 2024 : जीवन के आह्लाद की यात्रा है जगन्नाथपुरी की रथयात्रा

प्रति वर्ष आषाढ़ मास में ओडिशा के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर से भव्य शोभा रथयात्रा निकाली जाती है. भगवान जगन्नाथ यानी श्रीकृष्ण, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को सुंदर वस्त्रों में सुसज्जित करके रथ यात्रा निकाली जाती है. इस वर्ष जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत आज से हो चुकी है, जो 16 जुलाई तक चलेगी. यह रथयात्रा कई मायनों में विशिष्ट है, जिस कारण विश्व भर में इसकी प्रसिद्धि है.

Jagannath Rath Yatra 2024 : प्रति वर्ष आषाढ़ मास में ओडिशा के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर से भव्य शोभा रथयात्रा निकाली जाती है. भगवान जगन्नाथ यानी श्रीकृष्ण, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को सुंदर वस्त्रों में सुसज्जित करके रथ यात्रा निकाली जाती है. इस वर्ष जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत आज से हो चुकी है, जो 16 जुलाई तक चलेगी. यह रथयात्रा कई मायनों में विशिष्ट है, जिस कारण विश्व भर में इसकी प्रसिद्धि है.

सलिल पांडेय, मिर्जापुर
स्कन्दपुराण के ‘उत्कलखंड (पुरुषोत्तमक्षेत्र महात्म्य’ खंड) के 23 अध्यायों में भगवान विष्णु के शंखाकार श्रीक्षेत्र जगन्नाथपुरी में आगमन एवं आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया से दशमी तक होने वाले रथयात्रा महोत्सव का वर्णन किया गया है.
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के चार पूजनीय देवताओं में सर्वप्रथम हलधर बलभद्र को ऋग्वेद, नारायण स्वरूप नृसिंह भगवान को सामवेद, माता सुभद्रा को यजुर्वेद तथा सुदर्शनचक्र को अथर्वेद के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है. लोकशिक्षक के रूप में यहां कला, शिल्प, संगीत, अभियांत्रिकी तथा अन्यान्य निर्माण के देवता ब्रह्मा की उपस्थिति का भी जिक्र है. इसी तरह यहां भगवान विष्णु के रूप में श्रीकृष्ण की जगह नृसिंह भगवान को सामवेद इसलिए माना गया है, क्योंकि भगवान का यह अवतार आधा नर और आधा पशु माना जाता है. वहीं जगन्नाथपुरी में वाराह अवतार भगवान का भार ढोने वाले अवतार का उल्लेख किया गया है.
वस्तुत: रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख-दुख में सहभागी होते हैं. ‘सब मनिसा मोर परजा’ (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार हैं. भगवान जगन्नाथ तो पुरुषोत्तम हैं. उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण अद्वैत का ब्रह्म समाहित है.

काष्ठ-विग्रह निर्माण की कथा

रथयात्रा की तैयारी वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया जिसे पापनाशिनी तृतीया भी कहते हैं, से शुरू हो जाती है. इसी दिन से काष्ठ में रथयात्रा के लिए तीन रथ का निर्माण होने लगता है. मान्यता है कि खुद विश्वकर्मा भगवान का काष्ठ-विग्रह अवन्तीपुरी के राजा इन्द्रद्युम्न की इच्छा पर बनाते हैं. भगवान विश्वकर्मा की शर्त है कि वे जिस कक्ष में भगवान का विग्रह निर्मित करेंगे, उस कक्ष में कोई नहीं आयेगा. इस शर्त का उल्लंघन खुद इन्द्रद्युम्न की पत्नी रानी गुंडिचा कर देती हैं. कृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा का विग्रह अर्द्धनिर्मित ही था. कक्ष खुलते विश्वकर्मा अदृश्य हो गये और विग्रह अधूरे रह जाते हैं. राजा इंद्रद्युम्न दुखित होते हैं, तभी आकाशवाणी होती है. दुःखी इंद्रद्युम्न समुद्र में तैरते भारी काष्ठ को लेकर भगवान का विग्रह तैयार कराते हैं. राजा इन्द्रद्युम्न सत्ययुग के राजा हैं. जगन्नाथपुरी में विग्रह तो विश्वकर्मा बनाते हैं जबकि जगन्नाथपुरी के श्रीमंदिर का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र सुघटक करते हैं.

108 स्वर्ण-घट के पवित्र जल से स्नान

ज्येष्ठ पूर्णिमा जो जगन्नाथ भगवान के जन्मदिन के अवसर पर उन्हें, भाई बलभद्र और सुभद्रा को स्वर्ण कुएं के 108 स्वर्ण-घट जल से स्नान कराया जाता है. मंदिर के द्वैतापति बताते हैं कि इस कुएं में अनेक तीर्थों का जल होता है. वर्ष में एक ही दिन भगवान के विग्रह को स्नान कराया जाता है, जबकि वर्ष भर उनके विग्रह के पास रखे प्रतिबिंब को स्नान कराया जाता है. इतनी सजगता के बावजूद भगवान बीमार पड़ जाते हैं. बीमारी की अवस्था में उन्हें मुख्य सिंहासन पर न बैठाकर विशाल जगन्नाथ मंदिर में ही बांस की लकड़ी से बने कक्ष में रखा जाता है. इस बीच 15 दिनों के लिए आमजनता के लिए दर्शन बंद कर दिया जाता है. 56 भोग की जगह औषधियों से युक्त सामाग्री, दुग्ध, मधु आदि का भोग लगता है. पुनः आषाढ़ कृष्ण अमावस्या को भगवान आम जनता को दर्शन देते हैं. पूजा करने वाले द्वैतापति और विद्यापति तक पूरी सफाई के साथ भगवान की सेवा करते हैं और वे रथयात्रा की समाप्ति तक एकांतवास ही करते हैं. इन 15 दिनों में भगवान के पूजक द्वैतापति और विद्यापति भी न कहीं जाते हैं तथा इस बीच किसी की दी हुई वस्तु लेते भी नहीं. यहां तक कि उनके घर ससुराल से बेटियां भी नहीं आ सकतीं. वर्तमानकाल के वैश्विक महामारी के वक्त बीमार व्यक्ति के एकांतवास (आइसोलेट) की तरह यह व्यवस्था है. इसके 15 दिनों बाद आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को तीन रथ जगन्नाथ मंदिर के सिंह द्वार आता है. इन तीनों रथों में जगन्नाथ भगवान का रथ जिस पर गरुड़ध्वज बना रहता है, वह सबसे पीछे, उसके आगे पद्मध्वज से युक्त माता सुभद्रा का तथा सबसे आगे बलभद्र का तालध्वज युक्त रथ रहता है.

तीनों रथों में 2008 काष्ठखंडों का प्रयोग

रथ की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई के साथ जगन्नाथजी के रथ को नन्दीघोष, सुभद्राजी के रथ को दर्पदलन और बलभद्र जी के रथ को तालध्वज रथ की संज्ञा दी गयी है. जगन्नाथ भगवान के रथ में 16 पहिये और 16 हाथ की लंबाई 16 कलाओं का सूचक है, बलभद्र जी का रथ 14 हाथ लंबा और 14 पहिये वाला 14 भुवन एवं माता सुभद्रा का रथ 12 हाथ लंबा और 12 पहिये वाला द्वादश आदित्य का सूचक है. इन रथों में शनि के सूचक लोहे की कील का प्रयोग नहीं होता.
मंदिर में बनी अनेकानेक मूर्तियों में बौद्ध-कला की झलक मिलती है. जगन्नाथ भगवान के रथ में 832, बलभद्रजी के रथ में 763 एवं सुभद्रा जी के रथ में 413 काष्ठखंड का प्रयोग होता है. तीनों रथों के काष्ठखंडों का योग 2008 होता है.

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सोने के झाड़ू से रथयात्रा मार्ग की सफाई

शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा शुरू होते सामाजिक समरसता का समुद्र उमड़ पड़ता है. श्रद्धालुगण महाराज का पूरा नाम बड़े आदर से राजा गजपति गौणेश्वर नवकोटि करनाटोकण बर्गेश्वर प्रबल प्रतापी श्री श्री श्री दिव्य सिंह देव जी ही लेते हैं. वे सोने के झाड़ू से रथयात्रा मार्ग की सफाई करते हैं. यह कार्य स्वच्छता के जरिये बीमारियों से संघर्ष की ओर इंगित करता है. स्कंदपुराण की कथाओं के अनुसार, गुंडिचाबाड़ी जिसे जनकपुर कहते हैं और यहीं महावेदी में सबसे पहले राजा इन्द्रद्युम्न ने जगन्नाथ जी को अधिष्ठापित किया था, की तीन किलोमीटर तक ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग द्वारा रथ खींचने का पौराणिक विधान रहा है.
स्कन्दपुराण में सेवक समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में भगवान के विग्रह को रंग-रोगन के लिए भील समुदाय के एक आदिवासी का उल्लेख किया गया है. जनकपुर भगवान की मौसी का घर है. यहां से दशमी के दिन रथ का प्रत्यावर्तन होता है और फिर भगवान जगन्नाथ मंदिर में आ जाते हैं. रथ की वापसी पर श्रद्धालु विलख-विलख कर वैसे ही रोते हुए अपना दुख-दर्द बयां करते हैं, जैसे संतान आर्तभाव में अपने पिता से करता है.

52 शक्तिपीठों में प्रमुख, यहां गिरी थी माता सती की नाभि

जगन्नाथ मंदिर के प्रसाद की अत्यंत महिमा है. माता विमला देवी को प्रसाद चढ़ाने के बाद यह महाप्रसाद बन जाता है. चैतन्य प्रभु वल्लभाचार्य चले थे ब्रज के लिए, लेकिन यहां आये तो उनका मन यहीं रम गया. 12वीं सदी में राजा अनंत वर्मनदेव की मंदिर को भव्य रूप देने में उनकी अहम भूमिका रही. जबकि इसके पहले जब जगन्नाथ जी का मंदिर भव्य नहीं था तब आदिगुरु शंकराचार्य ने चतुष्पीठों में पूरी को स्थापित किया. यह कलियुग में मुक्ति का धाम है. काशी में तो महादेव भक्त के कान में ज्ञान का उपदेश देकर उसका अभ्यास कराते हैं तब मुक्ति मिलती है, जबकि जगन्नाथपुरी में सहज ही मुक्ति मिल जाती है. तांत्रिकों के लिए यह 52 शक्तिपीठों में प्रमुख पीठ रहा है. माता सती की नाभि यहां गिरी थी. माता की नाभि से संतान के शरीर की तंत्रिका प्रणाली सशक्त होती है. अतः इस दृष्टि से तांत्रिकों ने यहां साधना की. यहां सनातन धर्मावलंबियों के अलावा जैन, बौद्ध सभी आते हैं. एक तरह से पूजा-पद्धतियों का यहां संगम होता है. गणपति, शैव, शाक्त एवं सौर उपासकों की आस्था का केंद्र बिंदु है यह मंदिर. इसके ऊपर हवा के विपरीत जगन्नाथ मंदिर के ध्वज को फहराने का उल्लेख इस जीवन की विपरीतता में साहस के ध्वज के फहरने के भाव को दर्शाता है.

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नाराज होकर रथ का पहिया तोड़ देती हैं देवी लक्ष्मी

पौराणिक कथाओं के अनुसार, रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी भगवान जगन्नाथ को ढूंढ़ते हुए यहां आती हैं और उन पर नाराज भी होती हैं. तब द्वैतापति दरवाजा बंद कर देते हैं. इससे देवी लक्ष्मी नाराज होकर रथ का पहिया तोड़ देती हैं और ‘हेरा गोहिरी साही पुरी’ नामक मुहल्ले में लौट जाती हैं, जहां उनका मंदिर है. भगवान जगन्नाथ और रुक्मिणी का विवाह हुआ था. रुक्मिणी मां लक्ष्मी का ही रूप हैं. ऐसे में भगवान जगन्नाथ के बिना बताये मौसी के घर जाने के कारण वह नाराज हो जाती हैं. बाद में भगवान जगन्नाथ द्वारा रुष्ट देवी लक्ष्मी को मनाने की अनोखी परंपरा भी है.
महालक्ष्मी को प्रसन्न करने और मंदिर में प्रवेश के लिए महाप्रभु जगन्नाथ उन्हें रसगुल्ला भेंट कर क्षमा करने का अनुरोध करते हैं. काफी मनाने के बाद महालक्ष्मी मंदिर का द्वार खोल देती हैं और भगवान जगन्नाथ को अंदर आने देती हैं. इसके बाद जगन्नाथ जी को महालक्ष्मी के पास बैठाया जाता है और पुनर्मिलन की रस्म निभायी जाती है. अंत में महाप्रभु जगन्नाथ रत्न सिंघासन पर चढ़ते हैं और फिर से अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ हो जाते हैं. भगवान के घर वापसी समारोह को 'निलाद्री विजय' या 'नीलाद्रि बीजे' के रूप में जाना जाता है. 
यह मान-मनौवल संवादों के माध्यम से आयोजित किया जाता है. गुंडिचा और पुरी जगन्नाथ मंदिर के सभी पुजारी मिलकर इस परंपरा को निभाते हैं.

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